शनिवार, 24 सितंबर 2011

वर्तमान और भविष्य कुछ भी नहीं बचते, बचता है तो सिर्फ भूत!

श्री चंद्र प्रकाश द्विवेदी 

१६ मई २०११ को फिल्म निर्देशक और अभिनेता श्री चंद्र प्रकाश द्विवेदी जी से हम विद्यार्थियों की मुलाकात हुई थी। इसकी रिपोर्टिंग सर्वप्रथम मैंने अवधी भाषा में अवधी पोर्टल पर लिखी थी, इसका अनूदित खड़ी बोली-हिन्दी रूप मोहल्ला लाइव साइट पर भी प्रकाशित हो चुका है। इसी रूप को यहाँ मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ: 

सोलह मई को हम जेएनयू के विद्यार्थियों की मुलाकात सिने निर्देशक और अभिनेता चंद्र प्रकाश द्विवेदी जी से हुई। द्विवेदी जी अपनी संजीदा कार्यशैली के चलते सिनेमाई भेड़ियाधसान से अलग जगह और जन-विश्वास बनाने में सफल रहे हैं। इसकी दाद वे भी देते हैं, जो उनसे विचारधारात्मक असहमति रखते हैं। ‘चाणक्य’ जैसा महाधारावाहिक बनाना और उसमें उसी देश-काल-परिस्थिति का रंग-ढंग/समाज/चरित्र/भाव समाहित कर देना मामूली बात नहीं है। इन्हीं खासियतों की वजह से द्विवेदी जी बहुतों से अलग साबित होते हैं। ‘पिंजर’ सिनेमा भी उनके लकीर से अलग चलने वाले अपनी धुन के पक्के फकीरी स्वभाव का परिचय देता है। स्टूडेंट एक्टिविटी सेंटर – टेफला में द्विवेदी जी के साथ सिने समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज और अजीत राय भी थे। वैसे तो हुजूर ने आते ही कहा कि घर पर कुछ दिक्कत है, इस वजह से जल्दी निकलूंगा, फिर भी 45-50 मिनट हम लोगों के बीच रहे और सवालों के यथासंभव जवाब देते रहे। इस मुलाकात के विधान में अविनाश की खास भूमिका थी, वहीं प्रकाश के रे का सहयोग पूरे कार्यक्रम को शक्लो-सूरत देने में था। वहां हुई बातों का विवरण प्रश्नों के उत्तर के रूप में रख रहा हूं।

पिंजर ज्‍यादातर लोगों ने देखी है। अमृता प्रीतम की कहानी पर आधारित यह फिल्म देश के विभाजन की मार्मिक प्रस्तुति है। मेहनत और दूरदृष्टि से बनी यह फिल्म दर्शक के ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ती है। विद्यार्थियों ने इस फिल्म से जुड़े कई सवाल रखे। अलग अलग प्रश्नों के उत्तर में डॉ साहब का जवाब था…

 पिंजर की अंतर्वस्तु एक बड़े कैनवास की रही। इसलिए वैसा सेट भी बनाया गया। कदाचित यही वजह रही कि इसे श्रेष्ठ सेट के लिए फिल्म फेयर एवार्ड भी दिया गया और लोगों ने इसके निर्देशन को सराहा भी। परंतु व्यावसायिक चुनौती के सामने यह फिल्म असफल रही। अब हमें कथा के साथ साथ मनोरंजन का संतुलन भी रखना होगा। हम भारतीय दर्शक और बाजार की सीधे अनदेखी करके नहीं चल सकते। एकदम समझौता भी नहीं किया जा सकता। पिंजर में ही एक आइटम सांग रखने की बात हो गयी थी। हिरोइन भी तय हो गयी थी। गाना भी पूरा हो चुका था। लेकिन कथा की प्रकृति के विरुद्ध देखकर मैंने उस गाने को फिल्म से बाहर कर दिया था। यानी आज बाजार को समझना, कथा के स्वभाव को ताड़ना और फिर उसी हिसाब से संतुलन लेकर चलना सबसे जरूरी है।
चंद्र प्रकाश जी ने ‘चाणक्य’ धारावाहिक में न केवल निर्देशक के तौर पर काबिलियत का झंडा गाड़ा, बल्कि स्वयमेव ऐसा प्रभावोत्पादक अभिनय भी किया, जो इस महाधारावाहिक के सभी पात्रों पर भारी पड़ गया। साथ ही चाणक्य के चरित्र के क्लैसिक स्पर्श को बखूबी निभा गया। जिया गया अभिनय! इस धारावाहिक का भी सेट कमाल का है। अक्सर इतिहास या मिथक से जुड़ी बातों को कलारूप में रखने में एक जोखिम रहता है। यह जोखिम है किसी व्यक्ति पर पुनरुत्त्थानी होने का तमगा लग जाना। यह जोखिम चाणक्य के साथ भी रहा। प्रगतिशील लोग इस धारावाहिक में प्रस्तुतीकरण-अवधि के दौरान विकसित विचारधारा विशेष के राष्ट्रवादी आग्रहों को लक्षित करते रहे हैं। इसलिए जेएनयू में इस कोण से प्रश्न रखे गये, जिसके उत्तर में उन्होंने अपना इरादा और विचार स्पष्ट किया…
 चाणक्य की बातों को तत्कालीन राष्ट्रवाद से जोड़कर देखना बकवास की बात है। टोटल बकवास! यह हमारी समस्या है कि हम बातों को, अपने समय और समाज को बगैर खांचे में बांटे नहीं देख पाते। हमारे सांस्कृतिक चरित्रों/मिथकों को इतना पॉलिटिकल बना दिया है कि हम सांस्कृतिक चर्चा भी नहीं कर पाते, यह एक त्रासदी है। क्या गलती इतिहास की है, या मिथक की है? या हमारी है? हमें सोचना चाहिए कि अचानक क्या सब घटा कि लोग अब अपने बच्चों के नाम में ‘राम’ जोड़ना नहीं चाहते! समस्या कहां है? क्या चुनौती है? उसका कितना सामना किया जा रहा है? कैसे सामना किया जा रहा है? क्या यह संस्कृति के साथ बहुतेरे सरलीकरण नहीं थोपे जा रहे!
पुराण/इतिहास/मिथक में अपने विचरन को लेकर द्विवेदी जी प्रश्नविद्ध होते रहे हैं। हिंदी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद के अतीत प्रेम को लेकर बड़ी खींचातानी होती थी, जुमला फेंका जाता था कि प्रसाद बाबू तो अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ा करते हैं। ऐसे ही द्विवेदी जी को भी लोग कहते हैं कि इनकी अकाल कवलित आत्मा घूम फिर कर अतीत में ही विश्राम लेती है। एक सज्जन ने इसी बात को आगे रख प्रश्न किया, जिस पर उन्होंने उत्तर दिया…
 (किसी की बात को कोट करते हुए…) वर्तमान और भविष्य कुछ भी नहीं बचते, बचता है तो सिर्फ भूत! भूत से हमें सर्वाधिक अनुभव मिलता है, बीते से हम सबसे ढेर सीख सकते हैं।
हिंदी सिनेमा में बाजार और कला दोनों को साधना एक बड़ी चुनौती है। अक्सर कला छोड़ कर बाजार साधा जाता है। बाजारूपन या बाजारू मनोवृत्ति के रूप में। वहीं दूसरी ओर कला साधने वाले बाजार को अछूत समझे रहते हैं, जिससे भौतिक सच्चाई के कारण एक समय के बाद उनकी रीढ़ टूट जाती है और बंबइया नगरी में सिर्फ बाजार ही रह जाता है। गौरतलब है कि चंद्र प्रकाश जी एक संतुलन बिंदु की वकालत करते हैं। कहीं किसी साक्षात्कार में द्विवेदी जी ने कहा था कि ‘हमें एकता कपूर से भी कुछ सीखना चाहिए।’ इस संदर्भ में प्रश्न हुआ तो द्विवेदी जी ने अपना पक्ष रखा…
 एकता कपूर पर कही गयी हमारी बात को व्यंग्य के रूप में लिया जाए। लेकिन एकता कपूर की सफलता से यह सीखने योग्य है कि व्यावसायिक चुनौती को कैसे स्वीकार किया जाए! हम पैसे के तर्क को खारिज करके नहीं चल सकते। चाणक्य ने कहा है कि जब राजा की राजस्व-व्यवस्था में आर्थिक-डांवाडोल आ जाए तो उसे देवी-देवताओं की तस्वीरों को भी बनवा कर/बेच कर अपनी हालत सुधारनी चाहिए। इस तरह सकारात्मक ओढर के तईं इमेज बेचने की बात बहुत पहले से स्वीकारी गयी है। हिंदी सिनेमा बनाने वालों को इन परिस्थितियों में एक जोखिम लेना होगा, उसे एक टाइप बन कर नहीं रहना होगा। श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों के साथ एक टाइप वाली बात बहुत हद तक सही है। आज बाजारू फिल्मकार अच्छा लिखने वालों की स्क्रिप्ट नहीं लेना चाहते, इनकी कोशिश येन-केन-प्रकारेण धन कमाने की होती है। हमें इन जैसा नहीं चलना है, पर थोड़ा सामंजस्य अवश्य बैठाना पड़ेगा। कॉमर्शियल फिल्मों से सीखना भी होगा कुछ। मैं खुद दोस्त अजय ब्रह्मात्‍मज के साथ ‘दबंग’ फिल्म देखने गया था, लेकिन वहां वही दिक्कत है कि दिमाग घर पर छोड़ कर जाना पड़ता है!
बहुत जल्द ही कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर फिल्म आने वाली है। इसका निर्देशन डॉ चंद्र प्रकाश द्विवेदी ही कर रहे हैं। पिंजर बनाने के बाद द्विवेदी जी ने एक लंबा अंतराल लिया है। इस आने वाली फिल्म में बाजार के साथ एक संतुलन बिठाने की कोशिश की गयी है। यह संतुलन कैसे बैठा है, यह आने वाला समय बतायेगा। इसमें सनी देवल और रवि किशन (भोजपुरी) जैसे लोकप्रिय अभिनय-कर्मियों से अभिनय कराया गया है, इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि एक कलात्मक-साहित्यिक रचना के साथ पूर्व कथित संतुलन कैसे साधा गया है। इस फिल्म से जुड़े प्रश्नों से रू-ब-रू होते हुए द्विवेदी जी कहते हैं …
 इंडिया टुडे मैगजीन में ‘काशी का अस्सी’ की एक कहानी का जिक्र था। पहली बार उसी पर मेरी नजर गयी थी। फिर मैंने पूरी कहानी का पता किया और पढ़ा। फिर उपन्यास तक गया। काशी नाथ जी से संपर्क भी किया। कई बार उपन्यास पढ़ा। फिल्म बनाने में मैंने स्क्रिप्ट के तौर पर उपन्यास में काफी परिवर्तन भी किया है। उपन्यास के आखिरी चैप्टर को छोड़ दिया है। इसलिए आप सभी को उपन्यास और फिल्म में कुछ फर्क भी दिखेगा। एक फिल्म निर्देशक के तौर पर हमें फिल्म में बहुत कुछ जोड़ना-घटाना भी पड़ता है। भाषा के स्वरूप को बचाये रखने की भरपूर कोशिश की गयी है, जिसे अश्लील कहकर सेंसर की तरफ से कोई समस्या तो नहीं होनी चाहिए लेकिन अगर हुई तो कोर्ट-कचेहरी तक भी जाने के लिए तैयार हूं। सनी देवल को उनकी लोकप्रियता के मद्देनजर चुना, किंतु निर्देशन और मेहनत के कारण इस फिल्म में सनी देवल को आप काफी बदले हुए रूप में पाएंगे, अलग रूप में! …आज ही काशी नाथ जी से बात हुई है, जिसमें उनका आग्रह रहा कि पूरा ध्यान इस बात का रखा जाए कि फिल्म आर्ट फिल्म बनकर ही न रह जाए। …कुछ शूटिंग बनारस में की गयी है और काफी कुछ के लिए सेट बनाने की जरूरत महसूस हुई क्योंकि कथा में जो बनारस है, वह पिछले दशकों में बहुत कुछ बदल गया है। सेट इस वजह से बनाना जरूरी लगा ताकि कथा के बनारस में आज का बनारस फांक न डाले। लोग उस समय की कथा को उसी समय के देश-काल-परिस्थिति में देखें। दूसरी बात, सेट रखने से कैनवास मन-मुआफिक बड़ा रखने में आसानी होती है। अक्टूबर तक यह फिल्म आप सभी के सामने आ जाएगी।
पूरी बातचीत के दौरान द्विवेदी जी के भीतर की एक हूक सामने आती रही कि वह भारतीय सिनेमा में किसी ‘भारतीय’ तत्व को शिद्दत से देखना चाहते हैं। कृतियों के जरिये और फिल्मों के जरिये वे इसकी खोज में लगे हैं। वे चाहते हैं कि कोई ऐसी विशेषता उभर कर सामने आये, जिसे कहा जा सके कि यह ‘भारतीय सिनेमा’ है। इस संदर्भ में उन्होंने बताया…
 अगर आप पूछेंगे कि मैं विदेशी फिल्म देखता हूं, तो मेरा जवाब होगा कि नहीं। विदेशी किताब भी नहीं पढ़ता। लेकिन यदि आप पूछेंगे कि आपने प्रेमचंद को पढ़ा है, तो कहूंगा कि हां कई बार पढ़ा है। भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूपों से रूबरू होते हुए भारतीयता खोजने की मेरी कोशिश रहती है। इन्हीं को फिल्मों के जरिये देखने की इच्छा भी है। भारतीयता की एक तस्वीर खोजने की जुगत लिये भारतीय भाषाओं में लिखी बहुतेरी कृतियों से गुजरता रहता हूं। भारतीय कृतियों में जहां कहीं सिनेमा दिखता है, उसकी गुंजाइश दिखती है, उसी को गुनने की कोशिश करता हूं। मेरा ज्यादातर समय इसी प्रयास में बीतता है।
हिंदी सिनेमा के आज के परिदृश्य पर बात की गयी तो द्विवेदी जी बचने की कोशिश करते हुए दिखे। किसी पर टीका-टीप करना उन्हें जमा नहीं। इससे यह लगा कि वे आज के इस सिनेमाई परिदृश्य से खुश नहीं हैं। उम्मीद है कि इस असंतोष भरी धारा से हटे और समय की मांग पर डटे निर्देशक की भूमिका द्विवेदी जी निभाएंगे। पूरी बात में उन्होंने वर्तमान परिस्थिति में एक बीच के रास्ते – मध्यम मार्ग – की जरूरत पर खासा जोर दिया। इस प्रयास को वह स्वयं कैसे अंजाम देते हैं, इसे देखना अहम होगा। संभावना यह भी बनती है कि कोई निर्देशक इस प्रयास में प्रकाश झा की राह का अनुगमन न कर डाले क्योंकि कमोबेश ऐसे ही प्रयास में प्रकाश झा ‘दामुल’ का मूल भूलकर बाजारूपन की ‘राजनीति’ के अखाड़े में उलझकर रह गये हैं। द्विवेदी जी से बेहतर की सहज मांग है।
द्विवेदी जी के साथ मैं..
डॉक्‍टर साहब के जाने के बाद हम लोगों के बीच पधारे अजय ब्रह्मात्मज और अजीत राय जी से काफी देर तक बात हुई। अजय जी की चिंता बारंबार रही कि हिंदी सिनेमा में बंबइया प्रभुत्व (हीजेमनी) टूटना चाहिए। बनाने के स्तर पर सिनेमा अन्य दूर-दूर के केंद्रों पर भी बने, विस्तार ले। तब विविधता भी अधिक आएगी। इससे बंबइया सिनेमा की निरंकुशता और नीरसता दोनों टूटेगी। विविध क्षेत्रीय भाषाओं में भी सिनेमा बने और सामने आये। अजय जी फिल्मों पर किसी भी तरह का अंकुश लगाने के तरफदार नहीं हैं। वहीं अजीत राय जी की चिंता रही कि एक मानकीकरण जरूरी है, नहीं तो इस तरह अल्ल-क-बल्ल सिनेमा बनना सिनेमा के भविष्‍य के लिए अच्छा नहीं। लेकिन मानकीकरण कैसे? यह लाख टके का सवाल है। विवादों से भरा। अजीत जी की चिंता थी कि विश्व सिनेमा के सामने हिंदी सिनेमा बहुत पीछे है, इसलिए अंतर्वस्तु के स्तर पर सुधार आवश्यक है, ताकि गलत ट्रेंड खत्म हो।
प्रकाश, समर, विवेक, धनंजय, सरवन, मुंतजिर… आदि छात्र-छात्राओं के सहयोग से वार्ता का एक बढ़िया सिलसिला चला। काफी बातें हुईं। देर रात के बाद सभी अपने-अपने ठौरे-ठिकाने गये।
~ सादर / अमरेन्द्र अवधिया / २४-०९-२०११ 

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपके पोस्ट पर पहली बार आया हूँ । पोस्ट अच्छा लगा । धन्यवाद ।

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  2. चाणक्य के किरदार को पूर्ण रूप से निभाया है।

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  3. बधाई हो अमरेन्द्र! तुम तो वाकई सेलिब्रिटि हो गये! चाणक्य के दिनों से द्विवेदी जी का फ़ैन रहा हूँ, उनके बारे में फिर से पढ़ना अच्छा लगा।

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  4. द्विवेदीजी से आपका साक्षात्कार पहले भी पढ़ चुका हूँ.अब खड़ी-बोली में 'रिठेल' कर कई लोगों के लिए सहजता कर दी है !

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  5. प्रबुद्ध लोगों से मिलना सार्थक ही होता है। हम उस समय की इंतज़ार में हैं जब ऐसी ही किसी पोस्ट में तस्वीर के नीचे कैप्शन लगा होगा, ’अमरेन्द्र जी के साथ मैं।’

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  6. द्विवेदीजी एक कुशल निर्देशक के साथ-साथ एक कुशल अभिनेता भी हैं..आज भी "चन्द्रगुप्त" सीरियल में उनकी "चाणक्य" जैसी कुशलता दिखाई देती है...ऐसा कलाकार न हल्का सोचता है,न बोलता है..उसका किसी बात पर मौन रह जाना काफी कुछ कह जाता है...जो व्यक्ति "चाणक्य" जैसे चरित्र को जी चुका हो उसकी अपनी विषयवस्तु की परिपक्वता उसके स्वयं के बारे में बहुत कुछ कह जाती है....!
    ऐसे इंसान का थोड़ी देर का सानिध्य भी काफी कुछ दे जाता है...!!

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  7. भारतीयता की प्रतिमूर्ति है द्विवेदी जी -आपकी यह पोस्ट भी यादगार है!चित्र स्मारिका तो बस कुछ न पूछिए !

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