बुधवार, 21 सितंबर 2011

यदि मै ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ भोजपुरी में लिखता तो यह उपन्यास अधिक प्रभावी होता. ~ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी



“भोजपुरी का आज अनेक स्तरों पर विकास हो रहा है दरअसल अमानवीयकरण के दौर में लोकभाषाओं की अभिव्यक्ति ही अधिक कारगर होती हैमेरे गुरुदेव पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी अक्सर कहते थे की यदि मै 'बाणभट्ट की आत्मकथाभोजपुरी में लिखता तो यह उपन्यास अधिक प्रभावी होता.”
- प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह (पटना में एक भोजपुरी काव्य पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर) / मार्च की ‘हंस’ पत्रिका में सूचना।

यह एक अनिवार्य संदर्भ की तरह हैजिससे कई बातें निकलती हैं::
१) लोकभाषाओं की ऊर्जा से सहमत तो ये बड़े लोग थेपर समय का गजब का दबाव था जो इनसे लोकभाषा में नहीं लिखा सका।
२) स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रवाद का दबाव कम हुआ थाइसलिये बाद के समय में स्व-भाषा को लेकर हिन्दी पट्टी से अलग लोगों में आंदोलनकारी चेतना आयी थीउसका भी कुछ प्रभाव देखा जा सकता है जिसमें कोई बड़ा यह बोलने का साहस’ किया नहीं तो हिन्दी पट्टी में बोले भी कितने लोग हैं!!

३) हाँ आज के लोलुप और भीरु बुद्धिजिवियों से द्विवेदी जी जैसे ज्यादा इमानदार थेजो राजभाषायी पोलिटिकली करेक्टनेस के शिकार न होकर महसूस किये को कह देते थे। 

४) गौरतलब है कि यह बात वाणभट्ट की आत्मकथा’ जैसे शास्त्रीय विषय के संदर्भ में कही जा रही हैमैला आँचल जैसे उपन्यास के लोक के विषय में नहीं! 
५) कारण क्या है इस शास्त्रीय विषय के संदर्भ में ऐसा कहने का? - तुलसी दास के संदर्भ से बात स्पष्ट करना चाहूँगा। तुलसी ने शास्त्रीय विषय को लियाभाषा भी शास्त्रीय रही उनकीपर उनकी लोकप्रियता का प्रधान आधार लोकभाषा का व्याकरण’ चुनना हैन कि संस्कृत के शास्त्रीय व्याकरण को। तुलसी ने पंडितों का बहुत विरोध सहा। पर शास्त्रीय को ढाला लोक के ही व्याकरण मेंअवधी मेंविषय का ही लोकी-करण नहीं किया बल्कि अन्य भाषाओं के शब्दों तक को अवधी की प्रकृति में ढाला। शास्त्र को लोक में ढालने का यह तुलसी का मौलिक कार्य था जिसे उन्होंने लोहे के चने चबाकर भी किया। दिवेदी जी की टीस का छोर भी वहीं जाता हैकाश की वाणभट्ट की आत्मकथा भोजपुरी लोकभाषा के ग्रामर में ढालकर लिखी जाती। क्योंकि आज लोकभाषा के लोक’ को ध्यान में रखकर कहूँ तो हिन्दी का व्याकरण भी संस्कृत के व्याकरण की ही तरह अ-लौकिक है। 

६) काश इन बातों से दंभ में जीने वाली हिन्दी लेखक जमात - जो लोकभाषा के संवैधानिक ओहदा दिये जाने का विरोध करती है - कुछ सीखतीअपनी आँखें खोलती। 

नोट: इस महत्वपूर्ण जानकारी को सूचित करने के लिये भाई दीपांकर मिश्र जी का आभारी हूँ। 

~ सादर / अमरेन्द्र अवधिया 

8 टिप्‍पणियां:

  1. अगर अवधी में बाण भट्ट की कथा लिखना इतना आसान होता अमरेन्द्र जी तो
    द्विवेदी जी कहाँ चूकते ...सबको तुलसी बाबा ने डरा दिया ......
    मैं खुद ही शायद इस कृति को अवधी में न पढता -जो अवधी बाबा की मुंह लगी वह और कहाँ?

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  2. लोकभाषा को लेकर अभी भी अस्पृश्यता का सा माहौल है.तुलसी का इस ओर उठाया गया कदम अभूतपूर्व रहा. इसी वज़ह ने वाल्मीकि -रामायण और तुलसी-रामचरित मानस में भारी अंतर पैदा किया . लोक भाषा के चलते ही मानस आज जन-जन की हो गई है !

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  3. कुछ ऐसे भी राज्यप्रमुख (मुख्यमंत्री) हुए जो भाषाई विभाजन पैदा करने का काम किए और अपने अंचल में इन भाषाओं बढ़ाने की जगह उन्हें स्कूल-कॉलेज से हटाने का काम किया।

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  4. बात जनमानस तक पहुँचाना एक महान कार्य है।

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  5. पाठक उतरोत्तर कम होते जाते हैं अंग्रेजी से हिंदी फिर अवधी तक... और शायद ये एक सबसे बड़ा कारण है.

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  6. मातृभाषा/लोकभाषा ह्रदय की भाषा है और जैसे पीड़ा के क्षणों में व्यक्ति माँ के ह्रदय से लग शांति पाता है...ऐसे ही ह्रदय की भाषा से जुड़ संबल पता है...

    कल्पना कर सकती हूँ कि वाणभट्ट की आत्मकथा लोकभाषा में लिखी गयी होती तो कैसी लगती....

    आभार इस सुन्दर आलेख के लिए...

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  7. भोजपुरी के त सब लेखक लोग हिन्दी के ह। हजारी प्रसाद द्विवेदी भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के दोसरका(सम्भवत:) अधिवेशन में कहले रहलन कि हिन्दी-भोजपुरी में कवनो में लिखीं, दूनू एके ह। …अपना नाम में अवधिया लगा के रउरा त एकदम अवधी के सेवा के मन में बनावल चाहतानी। आईं, अवधी खातिर कम्प्यूटर जगत में कुछ करीं। एक सब के बावजूद में हम हिन्दी के पक्षधर बानी आ रहेम। आपन भाषा आपने ह आ हिन्दी त आपन हइलहीं ह।

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  8. आचार्य जी का यह संस्मरण पढ़ा था। अच्छा लगा इसे फ़िर से देखना/पढ़ना!

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