रविवार, 24 जून 2012

अनुराग कश्यप का हिन्दी दर्शक-वर्ग को लेकर ब्लाइंड जनरलाइजेशन!

कल रात (दिनांक-२३/६/१२) साबरमती हॉस्टल में फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप आये थे. कार्यक्रम विगत कई कार्यक्रमों की भांति अविनाश दास- प्रकाश के.रे. की अगुवाई में हुआ. हॉस्टल मेस में. बातचीत प्रश्नोत्तर शैली में हुई. 

अनुराग कश्यप की इमेज एक ऐसे निर्देशक के रूप में बनी हुई है जिसने नई जमीन बनाने की कोशिश की हो. इस बात का सम्मान फिल्मों के गंभीर दर्शकों ने सदैव किया है. पर अफ़सोस कि अनुराग कश्यप से हम जिस उम्मीद के साथ मिलने गए थे वे उसपर खरे नहीं उतरे. उनकी बातें चौंकाने वाली लगीं. 

अनुराग जी हिन्दी समाज में फिल्मों का स्तर गिरा होने का कारण दर्शकों को मानते हैं. वे दो टूक कहते हैं कि फिल्म कैसी आयेगी, यह दर्शक डिसाइड करता है. यानी खराब फ़िल्में आ रही हैं तो उसकी वजह निर्देशन-परिवेश कतई नहीं बल्कि दर्शक-परिवेश है. अनुराग जी की इस बात का पचा पाना कठिन है. हमें देखना होगा कि इस दर्शक-समाज को बनाया किसने है. खराब फिल्मों में अपने को गुमाना क्या इस दर्शक-समाज  का मूल स्वभाव है या यह अब तक निर्देशकों द्वारा निर्मित की हुई दीर्घकालिक प्रक्रिया की पैदावार है. फिर यदि ऐसे ही यथास्थितिवादी तर्क/उत्तर हमें मिलने हैं तो हमारे लिए अनुराग कश्यप जैसों का क्या मूल्य/मतलब! अंततः आप उसी तर्क की ओर बढ़ रहे हैं जो बाजारू-निर्देशकों का होता है यानी नशा मांगे कोई तो उसे नशा परोसो, कमाओ. सवाल हो तो कहो कि यही दर्शकों की मांग है. ऐसी स्थिति में 'दबंग' का निर्देशक और 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' का निर्देशक यथास्थितिवादी तर्कों के सामान धरातल पर दिखते हैं. 

दर्शक क्या चाहता है? यह एक विचारणीय प्रश्न है. इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. लेकिन इस सवाल पर जैसा साधारणीकृत बयान अनुराग साहब दे रहे हैं वह ब्लाइंड किस्म का जनरलाइजेशन है. क्या पेज-थ्री, तारे जमीन पर आदि फिल्मों के लिए दर्शक-वर्ग गायब हो जाता है? हिन्दी दर्शक-वर्ग पर इस तरह एकतरफा निष्कर्ष नहीं रखा जा सकता कि वह अच्छी फिल्मों का विरोधी है. अनुराग कश्यप हिन्दी दर्शक-वर्ग से खासे निराश हैं, शायद इसीलिये दो-तीन दिन पहले दिए एक साक्षात्कार में वे अपनी फिल्मों के लिए हिन्दी दर्शक वर्ग से ज्यादा विदेशी दर्शक वर्ग को तरजीह देते दिखे, शायद इसीलिये वे 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' में विषय-निर्वाह और कहानी की कसावट को भाषा की छौंक-बघार से पूरा करने की कोशिश में दिखे, शायद इसीलिये वे बातचीत में कहते हैं कि 'मुझे कई बार लगता है कि मैं अपना बेस्ट दे चुका हूँ अब आगे आने वाली पीढी इसे बढ़ाए', शायद इसीलिये वे बाजारू तर्क-विन्यास में उलझते हुए दीखते हैं! यह तो एक पक्ष है, वहीं दूसरी ओर वे अपनी सिद्धान्त-निष्ठा का इजहार अक्सर इंटरव्यू में  करते रहते हैं, जैसे मैं समझौतापरस्त फ़िल्में न बनाने के कारण उधार में रहता हूँ, मेरा घर,गाड़ी भी नहीं ले पाता ...आदि-आदि. ये तमाम विरोधाभास क्यों! 

फिलहाल बातचीत से यह समझने में आया कि सारी जद्दोजहद फन्ने-खाँ  बन पाने  तक ही है. ये (कला माध्यमों की) क्रांतिकारिता/परिवर्तनकामना ख़ास पायदान तक के पहले का मंगलाचरण हुआ करती है. उसके बाद तो बदलाव आता ही है. निर्देशक का व्याकरण/खेल-नियम बदल जाता है. इससे क्या इंकार कि  प्रकाश झा भी कभी अनुराग कश्यप जैसा महसूस किये हों कि मैं 'दामुल' में अपना बेस्ट दे चुका हूँ अब आगे आने वाली पीढी इसे बढ़ाए! यह बदलाव उन्हें भले शोहरत और बड़ा दर्शक-वर्ग दे देता हो लेकिन बनती हुई नयी जमीन को, वैकल्पिक जमीन को बंजर जरूर बना देता है. अगली पीढी के लिए बढ़ाने की संभावना को बड़ी रुकावट यही डाल दी जाती है. एक दर्शक-वर्ग, जो संख्या में भले कम हो लेकिन होता है उतना ही समर्पित, इससे छला हुआ महसूस करता है. यह हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि अपना व्याकरण/खेल-नियम बदलकर छलने वाले   निर्देशक बहुतेरे हुए हैं. यहाँ सार्थक बदलाव, परिवर्तन-कामना कभी भी मुख्यधारा का सत्य नहीं बन सकी, अकाल मौत पाती रही. मुझे लगता है कि गंभीर-सार्थक सिनेमा का बड़ा दर्शक वर्ग न होने का असली कारण यही  है जिसे चालाक निर्देशकों द्वारा दर्शक-वर्ग की ख़ामी बताकर पेश किया जाता है. 


अपडेट: इस पोस्ट का संपादित-संशोधित रूप आज २८-६-२०१२ के ’जनसत्ता’ अखबार में। (साभार http://blogsinmedia.com )

21 टिप्‍पणियां:

  1. but jo hai anurag dada ne films na nya dour start kiya hai,,,samaj,, darshak,,,,film nirmaan,, or cretivitey sab baate alag alag hai,,sabko ek saaath jodna accha nhi hai,,,film kar ka kaam hai acchi film bnana jo kamm anurag dada kar rhe hai,,,

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  2. फिल्म की तारीफ़ बहुत सुन चुके, लेकिन अपना इम्प्रेशन तो ठीक नहीं है| कुछ दिन पहले मेट्रो स्टेशन पर इस फिल्म का विज्ञापन बोर्ड देखा था, लिखा था 'कहके लूंगा तेरी' शायद कोई गाना भी है ऐसा और जिसे बहुत कर्णप्रिय भी बताया जा रहा है| बिकना और बेचना ही मूलमंत्र है तो हमारी तरफ से उन्हें ही मुबारक| ये सब न देखा होता तो समीक्षा के आधार पर फिल्म देखते जरूर|

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  3. yaar tum jo bhi ho jisne ye article likha hai.........bhai pehle khud kutch to karo fir bolo doosron ko, ek to banda tumhare hostel aaya, tum peeche hi pad gaye

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    1. बेनामी जी, मैं आम दर्शक हूँ, मैं इन फिल्मों को देखने के लिए पैसा और समय देने का 'काम' ईमानदारी से करता हूँ. सब लोग सभी काम को नहीं करते/कर सकते. इसका यह अर्थ कभी भी नहीं होता कि वे अपनी बात/आलोचना न रखें!

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    2. ये ऊपर जिस बेनामी गधे ने जो कहा है कि "पहले खुद कुछ करो फिर बोलो," लगभग इसी भाषा के एक्सटेंशन के तौर पर अनुराग कश्यप ने अपने ऊपर सवाल उठाने वालों को कभी कहा था कि "जिसकी गांड में दम है कि वो मैदान में कूदे, हालातों को बदले, सिनेमा बदले, मैं झुक कर उसे सलाम करूंगा… और उसके पीछे आऊंगा।"
      http://mohallalive.com/2010/07/02/anurag-kashyap-reaction-on-bahastalab-debate/
      हैसियत का अहंकार इसी भाषा में बात करता है। बस, किसी तरह जुगाड़ बाजी करके हासिल की गई सत्ता हो, फिर अपने सब कुकर्मों को जनता की इच्छा बता दो। भूख से मरने वाली जनता दरअसल भूख से मर जाने की इच्छा रखती है। इसलिए सत्ता भुखमरी की व्यवस्था करती है। दुर्घटना में मारा जाने वाला कोई व्यक्ति दरअसल चाहता है कि उसे कोई बीएमडब्ल्यू वाला कुचल कर चला जाए। इसलिए कार वाला उसे कुचल कर चला जाता है। अनुराग कश्यप इससे अलग क्या कह रहे हैं? वे जो कह रहे हैं, उनके चेले-चपाटी और अंधभक्त उससे अलग क्या कहेंगे?
      राजेश सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय

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  4. ye sale shukla, Tripathi, jha sab Anurag ke peeche hi pad gaye

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  5. बेनामी जी, बहस कीजिए प्लीज..इसमें जाति कहाँ घुस गई..

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  6. दर्शक के बारे में सब जानने के बाद भी उसे कुछ नया दिया जाये, हर बार गुणवत्ता से भरा कुछ नया।

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  7. ...अगर सब कुछ "मॉस-अवाम' को ध्यान में रखते हुए फ़िल्में बनायीं जानें लगेंगी तो लोग चोरी-छिपे ब्लू-फिल्म देखना बंद कर देंगे !

    ...कई बार समाज के लिए जो अच्छा और आदर्श होता है,उसकी बाज़ार-कीमत कम होती है पर इससे उस 'आदर्श' या नैतिकता को तो हम ताक पर नहीं रख सकते.ज़ाहिर है,अनुराग की ज़रूरतें बाजारवाद पूरी करता है न कि आदर्शवाद !

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  8. समाज में दर्शक वर्ग दो भागों में बंटा हुआ है, क्योंकि एक तरफ डर्टी पिक्चर जैसी फ़िल्में हिट होती हैं तो दूसरी तरफ 3 IDIOTs जैसी फ़िल्में भी सुपर हिट जाती हैं...
    अवार्ड समारोहों में जब डर्टी पिक्चर जैसी फिल्मों की झोली भरेगी, तो निर्देशक भागेगा ही ऐसी फिल्मों की ओर... बाद में ठीकरा फोड़ दो दर्शकों के सर... एक कहावत है.... " समाज में बुराइयाँ तभी फैलती हैं जब समझदार और बुद्धिमान लोग खामोश बैठे रहते हैं..."
    लगता है पुनः भारतीय संस्कृति की अलख जगाने का वक्त आ गया है....
    बहुत अच्छे विचार व्यक्त किये अमरेन्द्र जी... शुक्रिया...

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. i am a great fan of Anurag Kashyap.however, i have always paid heed to ur views amrendra ji due to your independent and sincere thoughts. i must confess that i am forced to reconsider my views on Anurag Kashyap 'School' after reading this post.I am not in position to agree or disagree here but would always be enthusiastic to talk on this issue with you over a cup of tea in JNU.I must say that its courageous to write such a post in such a simple manner when everyone seems to be united in one voice about the greatness of GOW.I would like here to end on a note of caution that lines like "सारी जद्दोजहद फन्ने-खाँ बन पाने तक ही है" may be articulated in a soft and more decent tone.But as a able critique you have all the rights to use words of your choice.Thanks for the post and I hope we are meeting soon (jaise hi aapki akaadmic vyastata kum ho jaaye). :)

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    1. सुशांत जी, अनुराग कश्यप को पसंद मैं भी करता रहा हूँ, इसीलिये GOW के पहले दिन के पहले शो के लिए ज्यादा रूपये खर्च करके भी गया, पर वही है कि उनकी बातें कहीं ज्यादा स्तब्ध करने वाली भी लगीं.

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  11. A nice read. and i agree with you to the most extent.
    I want to say a simple thing. WE, the darshak, want simply a GOOD cinema. directors, award functions, market, confused us with masala cinema and real cinema. in this case 3 idiots, Munnabhai and tare zamin par etc falls under which category???
    its not WE who want what we are provided. Its their incapacity to make GOOD cinema and excuse us with this nonsense logic.
    Regarding Anurag kashyap, i like his subject and treatment, but i think he himself start dominating the subject after a time. may be cinema for him is his catharsis release but i am not sure as i dont know him personally.
    Thanx Amrendra ji for the article.

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  12. जो लेख में यह पंक्तियां हैं : "क्रांतिकारिता/परिवर्तनकामना ख़ास पायदान तक के पहले का मंगलाचरण हुआ करती है..." यही सार है। देख कर आया हूं फिल्म, प्रशंसा के योग्य भी है, लेकिन अपूर्व, अद्वितीय या क्रांतिकारी जैसा कुछ नहीं है। तकनीकी और शोध दूसरों से अच्छा है।

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  13. और दर्शक जो चाहता है वही होता है यह कहना कहने के लिए है। जो चाहता वही होता तो इनकी फिल्मों को वह सम्मान न मिलता जो मिला है। बौरा गए हैं लगता है।

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  14. ये समस्या केवल अनुराग कश्यप के साथ नहीं है ! महेश भट्ट (अरे--जिस्म वाले ...सारांश वाले कब के सुपुर्दगे खाक हो चले ) भी ऐसा ही ज्ञान बघारते हैं ! दरअसल शुरुवात में एक-आध गंभीर फिल्म बना के ऐसे लोग अपनी ब्रांड वैल्यू स्थापित करते हैं फिर उतर आते हैं शुद्ध धंधे में! सामाजिक सरोकार और कला को तिलांजलि दे दिया जाता है ! जबकि इन्हें बखूबी पता है की सामाजिक सरोकारों वाली फ़िल्में भी सफल होती हैं और भीड़ बटोरती हैं !

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    1. गैंग्स ऑफ शंघाई का नॉस्टेल्जिया है वासेपुर
      http://gangadhaba.blogspot.in/2012/06/blog-post.html

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  15. अच्छा लिखा। सिनेमा चाहे जैसा बनाते हों लेकिन इसतरह की बयानबाजी पर यह प्रतिक्रिया सटीक है:
    "क्रांतिकारिता/परिवर्तनकामना ख़ास पायदान तक के पहले का मंगलाचरण हुआ करती है..."

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  16. गुंडई के महाकाव्य की चर्चा यहां देखी जाये
    http://chitthacharcha.blogspot.in/2012/06/blog-post_27.html

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  17. गैंग्स ऑफ शंघाई का नॉस्टेल्जिया है वासेपुर

    http://gangadhaba.blogspot.in/2012/06/blog-post.html

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