शुक्रवार, 6 मई 2011

मेरे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है..

painting by Chen Wenze from here

मेरे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है..

‘संसार दुखमय है’ यह किसी डिप्रेशन के रोगी ने नहीं बल्कि महात्मा बुद्ध ने कहा था। ऐसा कहने में क्या सिर्फ नैसर्गिक परिवर्तनशीलता से उत्पन्न भाव थे या इस मानवी दुनिया के अनुभव भी थे! मेरा मन नहीं मानता कि बुद्ध सिर्फ ‘जरामरणजं भयम्‌’ से ही क्लान्त हुये थे। वे मानव स्वभाव से भी काफी दो-चार हुए रहे होंगे। इसकी भी टीस रही होगी इस बुद्ध वाक्य में। नहीं तो उनके सिद्धांतों में दया और करुणा की ऐसी लोकोपकारक अवतारणा(अवधारणा भी) प्रस्तुत न होती। इस तरह के अनुभवों ने परेशान किया उन्हें और ‘सोच’ का स्तर बनने में भूमिका दी। यानी दुनिया खराब होने के साथ साथ सकर्मकता की हेतु भी बनी। समानांतर अच्छी दुनिया का स्वप्न उन्होंने देखा भले ही वैसी दुनिया ‘आदर्श’ का सच बन के रह गयी हो, यथार्थ का नहीं। पर मानव संतोष-धन की पोटली ले आदर्श की पगदण्डियों से जीवन जीता आया है। समाज में भोगे कटु अनुभव गाँधी जी के भी साथ थे, जिन्होंने उन्हें कर्मयोगी/धर्मयोगी बनाया। अतः ‘संसार दुखमय है’ यह एक चुनौती बन कर आता है, यही इसका मजा भी है शायद! दुखमय पृष्ठभूमि पर सुख-स्वप्नों को देखना और उधर प्रेरित होना
“ दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
खराब होके भी ये जिंदगी खराब नहीं। ”[ ~ फ़िराक़ गोरखपुरी ] 
जन्म से आज तक विषमताओं, अनरीतियों, असंगतियों और विवशताओं से करीबी साब्का रहा है। मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे गाँव के तमाम लोग हैं ( मुल्क के भी )। इन स्थितियों में जैसे मैं दिल्ली में हूँ वैसे वे भी बंबई-लुधियाना-सूरत और जाने कहाँ कहाँ कर्मरत हैं। बिना कुछ चिल्लाए/चोकरे अपना काम किये जा रहे हैं, अपने मन-चातक को समझाए हुए:
“रे रे चातक ! सावधान-मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्
    अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वे तु नैतादृशाः ।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद वृथा 
                         यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥ [ नीतिशतकम्‌ ] 
इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद मेरे गुरु आचार्य अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी जी – जिनसे मैंने संस्कृत -शिक्षा और आरंभिक साहित्यिक बोध अर्जित किया है – ने इस प्रकार किया है: “ रे मित्र चातक! सुन जरा तू सावधानी राखि मन में / होते नहीं हैं एक से घन दीखते जितने गगन में, / कुछ गरजते हैं व्यर्थ कुछ ही आर्द्र करते वसुधरा को / देखो जिसे ही सामने उससे कहो मत निज व्यथा को। ”
       जीवन चलता रहता है, इन विषमताओं, अनरीतियों, असंगतियों और विवशताओं में भी। जिजीविषा जीतती रहती है, साँस-दर-साँस! सुत-दारा-जननी-जन्मभूमि के सुख से वंचित हो व्यक्ति का पल पल होम होता रहता है। इसे जिजीविषा न कहूं तो क्या कहूँ! परिवेश हर पल कचोट देता रहता है:
“ पाखंडी रहैं छाँव मा, घामे मा जरी हम !/?
जलपान करैं नेता, भुगतान करी हम !/?
भारत के किसानन कै दुरभाग तनी देखौ,
गल्ला का धरै दिल्ली, भूसा का धरी हम !/? ” 
               [ ~ रफीक सादानी, अवधी कवि ]
इन स्थितियों में अभावग्रस्तों का जीवन धारा के विपरीत नाव खेना ही तो है।
      सबसे दुखद होता है अयोग्यताओं को फलते-फूलते हुये देखना, अनरीतियों को महिमामंडित होते हुए देखना, पाखंडियों को जन-मत मिलना। वहीं सत्य-शिवत्व का पनही के नीचे रौंदा जाना। इस तरह खल-प्रवृत्तियों का हुलास निराश करता है, ज्ञान भी देता है;
“ सीदत साधु , साधुता सोचति
                          खल बिलसति हुलसति खलई है। ” [ ~ तुलसीदास ]
खल-प्रवृत्तियों के हुलास और इनकी व्यापक स्वीकृति के पीछे कई कारण होते हैं। किसी बात को बहुमत मिलने की कई वजहें होती हैं, अज्ञान(सामूहिक), सत्ता-शक्ति का समर्थन, स्वार्थ(किसी समूह का) आदि-आदि। बहुमत बहुत समय तक चाँद को भगवान मानता रहा, अज्ञान ही तो था। बहुमत सुकरात के विषपान के विरुद्ध न गया, यह राजसत्ता और शक्ति का प्रभाव ही था। इसीतरह किसी समूह को लालच देकर उसे अपने साथ लिये रहना या उसका किसी अनरीति का पक्षधर्मी हो जाना भी इतिहास में खूब दिखेगा।
      कभी कभी खल-प्रवृत्तियाँ असत्य की प्रतिष्ठा का कार्य बड़े प्रभावी ढंग से भी कर लेती हैं, बहुमत को अपने पक्ष में ले लेती हैं। सत्य निरुपाय होते दिखता है। राहु-ग्रास का शिकार होते हुये।
       तो क्या दुखी हो जाया जाय? काहे का दुख! गलत को मिलने वाला संख्यात्मक बल गलत को सही नहीं करा सकता पर इसी समय एक डर भी लगता है और कानों में हिटलर के प्रचार-मंत्री ( प्रोपोगैंडा मिनिस्टर ) गोयबेल्स के सिद्धांत सुनाई देते हैं:
१-   किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है।
२-   यदि झूठ ही बोलना है तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे लगेगा कि बात भले पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर।
      एक डर लगता है, मिथ्याचार की सफलता का। अब तक देखता भी आया हूँ मिथ्याचारियों को सफल होते हुए। वे संसद में हैं, चुनाव जीते हैं, अकादमियों में हैं, अफसरशाही में हैं, और भी जगह-जगह।
     शायद ईश्वर का विश्वास है जो हम जैसों को यहाँ संतुलित किये रहता है। लगता है – ईश्वर हमारी जरूरत है। हमने अपने जीने के लिये उसे जिलाया है। जिलाये रखना है। यह वैकल्पिक व्यवस्था है, वैकल्पिक दुनिया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्द देखने योग्य हैं:
ठगा भी गया हूँ, धोखा भी खाया है, परन्तु बहुत कम स्थानों पर विश्वासघात नाम की चीज मिली है। केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखूँ जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कष्टकर हो जायेगा। परन्तु ऐसी घटनाएँ बहुत कम नहीं हैं जहाँ लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाढस दिया है और हिम्मत बँधाई है। कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर ने अपने एक प्रार्थनागीत में भगवान से प्रार्थना की थी कि ‘संसार में केवल नुकसान ही उठाना पड़े, धोखा खाना ही पड़े तो ऐसे अवसरों पर भी हे प्रभो! ऐसी शक्ति दो कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ!’
संसारेते लभिले क्षति, पाइले सुधु वंचना
तोमाके      जेन     ना     करि     संशय।
    मनुष्य की बनायी विधियाँ गलत नतीजे पर पहुँच रही हैं तो उन्हें बदलना होगा। वस्तुतः आए दिन उन्हें बदला ही जा रहा है। लेकिन अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है, बनी रहेगी।
मेरे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है।
सादर;
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी

35 टिप्‍पणियां:

  1. केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखूँ जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कष्टकर हो जायेगा। परन्तु ऐसी घटनाएँ बहुत कम नहीं हैं जहाँ लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाढस दिया है और हिम्मत बँधाई है।

    बस ये कभी नहीं भूलना है....और मन दुखी क्यूँ करना?...संसार को दुखमय क्यूँ मानना?
    अगर गलत लोग मिल भी गए...तो उन्हें और उनके दिए दुख को कपड़ों पर पड़ी धूल की तरह साफ़ कर चलते जाना है...शुभकामनाएं

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  2. बहुत अच्छा।
    ** चाहे कोई आपकी निन्‍दा या अपमान करता है फिर भी उस पर मुस्‍कान व शुभकामनाओं के पुष्‍पों की वर्षा करें।
    *** आपकी विशेषताओं का दूसरों पर प्रभाव पड़ता है, अत: इनका प्रयोग जिस सर्वोत्‍तम विधि से आप कर सकते हों, कीजिए।

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  3. बीच पानी में दिशा नहीं दीखती है, तलहटी में पहुँचने के बाद ही ऊपर आने की गति तीव्रतम हो पाती है।

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  4. एक सुन्दर सा निबंध -बात आपने महात्मा बुद्ध से शुरू की -उनका मौन भी बहुत मुखर रहा है ...
    मुझे लगता है गुड टू फारगिव ,बेस्ट टू फारगेट का फार्मूला और इसी के साथ ही बेतर टू फ़ोर्गो जोड़ दिया जाय
    तो यह और भी समीचीन हो जाएगा -और रुचिकर बात यह भी कि एक और हलके लहजे में कहा जाना वाला जुमला और है
    फ* एंड फारगेट ..कुछ पहलू जीवन के ऐसे ही होते हैं -ये फार्मूले इन्ही अवसरों के लिए बनाए गए हैं -जितना जल्दी हो इस फार्मूले को अपना लेना चाहिए -शुभस्य शीघ्रम !
    इस निबंध को पढ़कर एक संतृप्ति सा अनुभव कर रहा हूं !

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  5. मनोज जी की टिप्पणी गौर करने लायक है.

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  6. वाह भाई जी जबरदस्त लेख प्रस्तुत किया है ...किन किन रास्तों पर जीवन जी रहा है और क्या क्या उसको जीने के लिए इन्सान हत्कंडे आपना रहा है पर कही न कही आशा की किरण अभी भी कुछ गया नहीं है इस जीवन और दुनिया/देश से सही में ..... अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है, बनी रहेगी।.....मेरे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है। ...गोरखपुरी....नीतिशतकम्‌...रफीक सादानी...और तुलसी दासजी तक की बैटन का जबरदस्त समावेश किया अपनी बात को साबित करता हुआ सुंदर सकारात्मक सोच का आलेख !!!!!!!!!Nirmal Paneri

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  7. भाई !!बहुत दिनों बाद एक गहन चिंतनशील,तार्किक,आलेख पढने को मिला ......बुद्ध से शुरू होते हुए ठाकुर रविन्द्र के उद्धरण की समाप्ति तक लयात्मकता ,रोचकता ,समान बनी रही ...साधुवाद आपको !!
    "केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखूँ जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कष्टकर हो जायेगा। "सत्य कहा आपने बलके मै तो कहूँगी कि
    जीवन में मिले छल, और विश्वासघात
    और उनसे मिलती असहनीय दुःख व पीड़ा
    अच्छे हैं ....
    उन सारे मूल्यों,आदर्शों,व विश्वासों,से
    जिन्होंने मुझे जीवन के कटु सच्चाइयों से परे रखा"
    saroj

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  8. bahut achchha lekh .. buddh ne jivan ke anubhavon ko baanta aur apne-apne anubhavon se jivan ko sikhne ki kala ka jaise prasaar kiya ..
    rochak lekh. badhai!

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  9. वो रुलाकर हँस न पाया देर तक,
    जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक !


    गुनगुनाता जा रहा था इक फकीर,
    धूप रहती है न साया देर तक !

    "रे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है।"

    सोलह आने सच....

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  10. अमरेन्द्र ..महत्वपूर्ण बात है इन चीजों को व्योव्हार में उतारना ..सच तो ये है के सामान्य मनुष्य में ये गुण इश्वर ने दिए थे.....पर अब सामान्य रहना ही कठिन है दोस्त...हम जिस तरह के समज में रह रहे है उसमे राजा ओर कलमाड़ी जैसे लोगो तक पहुँचने में सरकार की इच्छा शक्ति लगभग न के बराबर रहती है ... ओर विनायक सेन जैसे लोग अपनी देश भक्ति का ठप्पा सुप्रीम कोर्ट से लगवाने के लिए कई साल इंतज़ार करते है ....

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  11. बहुत सटीक सा लगा. चिंतन करने लायक. कुछ पंक्तियाँ लिख कर रखूँगा इसमें से.

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  12. .निसँदेह यह एक उत्तम निबन्ध है ।
    भारतीय दर्शन में जीवन के ताने बाने में दुःख को ही प्राथमिकता दी गयी है । इतना कि पग पग उसका स्मरण कराया गया है.. मेरी व्यक्तिगत धारणा यह है कि कष्ट को याद रखा जाये, पर कष्ट के कारक को भूलना ही उचित है, उससे दूरी बनाये रहना ही व्यवहारिक है । काँटा चुभने की टीस को स्मरण कर काँटे से बच कर निकलना ही सुख का सार है ।
    काहै के ताना काहै के भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया
    दास कबीर जतन से ओढ़िन ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया

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  13. संवेदनशील लोग ऐसी परिस्थितियों से दो-चार होते रहते हैं. मनमौजी लोग इसे बर्दाश्त कर लेते हैं, पर भावुक लोग कुछ समय तक आहत रहते हैं.
    मेरे ख्याल से ज़िंदगी में खाई गयी हर ठोकर, हर धोखा हमें कुछ सीख ही देता है, इसलिए उसे सकारात्मक ढंग से देखते हुए एक अवसर ही मानना चाहिए.
    दुःख और अवसाद के क्षणों में हम अपने सबसे करीब होते हैं और हमारी रचनात्मकता चरम पर होती है. खुशी में आदमी बहिर्मुखी हो जाता है, पर दुःख में अंतर्मुखी हो जाता है. इसलिए ऐसी अवस्था में व्यक्ति का सर्वोत्तम बाहर आता है.
    अब इस निबंध को ही लो :-) the best example :-)

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  14. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की इन पंक्तियों को बहुत पहले आत्मसात कर लिया था...निराशा के पलों में मन को शक्ति मिलती है....निश्चित तौर पर निराश मन को हिम्मत मिलेगी... शुभकामनाएँ

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  15. बहुमत सुकरात के विषपान के विरुद्ध न गया, kya aisa nahin lagta ki bahumat suvidha ke saath hi jata hai ? asuvidhaen Sukrat ke hi hisse aati hain ! Sukrat ka Sukrat hona asuvidhaon ke saath khade hone se juda hai ? suvidha ka arth asaan raste se hai.

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  16. सुन्दर आलेख! विकल्प हैं, चुनना तो हमारे ऊपर है।
    1. कितना खोया कितना पाया
    उसका क्या हिस्साब करें हम
    दर्पण जो धूल जमा है
    उसको कैसे साफ करें हम
    2. कुछ लेना न देना मगन रहना ...

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  17. संसार में केवल नुकसान ही उठाना पड़े, धोखा खाना ही पड़े तो ऐसे अवसरों पर भी हे प्रभो! ऐसी शक्ति दो कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ वाह खूबसूरती से संकलित किया आपने तथ्यो को साधुवाद आपको

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  18. अमरेन्द्र जी आपका लेख बहुत अच्छा लगा.

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  19. @"... से दुखद होता है अयोग्यताओं को फलते-फूलते हुये देखना, अनरीतियों को महिमामंडित होते हुए देखना, पाखंडियों को जन-मत मिलना। वहीं सत्य-शिवत्व का पनही के नीचे रौंदा जाना।"

    आज के समय में बदकिस्मती से अच्छे लोगों को सम्मान नहीं मिल पाता है जबकि दुर्जन सम्मान को हथियाने की कोशिश में लगे रहते हैं और कमजोर और कायरों की इस बस्ती में, अक्सर कामयाब भी हो जाते हैं !

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  20. हमारे एक ही जीवन में हम विभिन्न स्वभाव और चरित्र वाले लोगों से टकराते हैं ...संवेदनशील भावुक लोगों के लिए धोखे से उबरना थोडा मुश्किल होता है , मगर नामुमकिन बिलकुल नहीं !
    अच्छे लोगों को धन्यवाद और बुरे लोगों से सबक सीखना बस यही है जो हम कर सकते हैं ..
    बुरा हुआ , उसे भूले और आगे बढ़ें और याद रखें बड़े भाग्य से ये मनुष्य जीवन मिला है ...किसी और की वजह से बर्बाद करने के लिए नहीं ...किसी भी व्यक्ति से की गयी नफरत स्वयं को अधिक नुकसान पहुंचाती है !

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  21. इतना भाषण दे दिया , पोस्ट पर कुछ लिखा नहीं जबकि पोस्ट का शीर्षक ही है ,"मेरे मन , निराश होने की जरुरत नहीं "!
    सार्थक और सकारात्मक लेखन !

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  22. अमरेन्द्र जी ,

    आज की पोस्ट पढने और गुनने लायक है ...पढ़ कर कहीं मन के कोने में सुकून सा महसूस हुआ ...जब मन में निराशा छाई हो और ऐसा कुछ पढने को मिल जाये तो कितनी तृप्ति मिलती है शायद आप अंदाजा लगा सकते हैं ...आभार

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  23. मैं इन दिनों कुछ ऐसे दौर से गुजर रहा हूँ कि आपके इस लेख से मुझे भी थोड़ा बल मिला है.
    और क्या कहूँ.

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  24. .
    .
    .
    मेरे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है।

    मेरे मन, तू निराश होने के लिये बना ही नहीं है, अगर निराश होता है तू मेरा मन है ही नहीं !


    ...

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  25. beautiful.

    your work for the article is being reflected. kudos to you. bookmarked for reading time and again.

    thanks brother!

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  26. लगता है इस लेख को माँ सरस्वती का वरदान प्राप्त है, तभी इतना समृद्ध हो पाया है।
    ..मेरे विचार से जिसने दुःख दिया उसे क्षमा करना ही दुःख दूर करने का सबसे सरल उपाय है। जानता हूँ कि कहना आसान है, करना कठिन मगर यही एक स्थाई मार्ग है।

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  27. जिस दिन पोस्ट हुआ था उसी दिन पढ़ा था यह लेख। अच्छा लेख है लेकिन पढ़कर मन उदास हो गया। शायद इसलिये कि इस लेख के लिखे जाने के पीछे के कारण का मुझे एहसास है।

    मैं तो यही सलाह दूंगा कि अपने प्रति अन्याय बन्द करो। मस्त रहो। दुनिया में न जाने क्या-क्या कह जाते हैं लोग दूसरों के बारे में। जैसा नन्दन जी ने इस कविता में लिखा था:
    जो मैं कभी नहीं था
    वह भी
    दुनिया ने पढ़ डाला
    जिस सूरज को अर्घ्य चढ़ाए
    वह भी निकला काला
    हाथ लगीं- टूटी तस्वीरें
    बिखरे हुए सपन!


    मस्त रहा जाये। मंगलकामनायें।

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  28. आस विश्वास का संचार करती जीवन को सुन्दर सकारात्मक दिशा देती बहुत ही सुन्दर पोस्ट...

    अतिशय आनंद आया पढ़कर...

    बहुत बहुत आभार आपका...

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  29. आपकी भी संभावनाएं दिख रही है.अंतिम उद्धरण को बीज-मंत्र के रूप में कार्यान्वित करें.शुभकामना..

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  30. अभी कुछ दिन पूर्व ही एक पोस्‍ट लगायी थी - मत सुनिए निराशा के स्‍वर। यह दुनिया है यहाँ सभी तरह के लोग हैं, कबतक भागते रहेंगे, दुनिया में जीना है तो सामना करना ही पड़ेगा। अच्‍छी पोस्‍ट, शुभकामनाएं।

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  31. नीतिशतकम्‌ के मनभावन श्लोक का आचार्य अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी जी द्वारा किये हिन्दी अनुवाद “ रे मित्र चातक! सुन जरा तू सावधानी राखि मन में / होते नहीं हैं एक से घन दीखते जितने गगन में, / कुछ गरजते हैं व्यर्थ कुछ ही आर्द्र करते वसुधरा को / देखो
    नीतिशतकम्‌ के मनभावन श्लोक का आचार्य अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी जी द्वारा किये हिन्दी अनुवाद “ रे मित्र चातक! सुन जरा तू सावधानी राखि मन में / होते नहीं हैं एक से घन दीखते जितने गगन में, / कुछ गरजते हैं व्यर्थ कुछ ही आर्द्र करते वसुधरा को / देखो जिसे ही सामने उससे कहो मत निज व्यथा को ” को पढ़ कर मन आद्र हो गया. इस प्रस्तुति का आरम्भ से अंत तक पढने की जिजीविषा बनी रही ऐसी विचारशील रचनाएँ ब्लोग्स पर कम ही पढने देखने को मिलती हैं. भाई अमरेन्द्र जी जिस प्रभाव शाली ढंग से ये आलेख प्रस्तुत किया गया है...... आपको बारम्बार धन्यवाद कहने का दिल कर रहा है. देर से आने की माफ़ी चाहूँगा.

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  32. फ़िर से पढ़ा और फ़िर कह रहे हैं- मस्त रहा जाये। मंगलकामनायें। :)

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  33. फिर पढ़ा । बहुमत को स्वीकार्य होना भर सत्य होने का साक्ष्य नहीं हो सकता । फुरसतिया जी की बात दुहराऊंगा.......मस्त रहिए :)

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