गुरुवार, 5 जनवरी 2012

गुजरात हाई कोर्ट का निर्णय हिन्दी-दंभ पर स्वाभाविक प्रतिक्रिया है..!

गुजरात हाई कोर्ट, फोटो-साभार-नवभारत टाइम्स
गुजरात हाईकोर्ट की एक केस की सुनवाई में जज ने याचिकाकर्ता की दलील का निपटारा करते हुये कहा कि “याचिकाकर्ता जिस इलाके से आते हैं, वहां गुजराती प्रयोग में लाई जाती है। नोटिफिकेशन में प्रयोग की गई हिन्दी भाषा उनके लिए विदेशी भाषा है। आमतौर पर वहां हिन्दी नहीं गुजराती ही बोली जाती है। और, इसी तरह से स्टेट गर्वनमेंट के प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा भी गुजराती में ही दी जाती है”। बात है २००६ की, जब एक सूचना को हिन्दी में निकालकर एनएचएआई (नैशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया) ने 8डी नैशनल हाइवे की मौजूदा दो लेन को चौड़ा करके चार लेन में बदलने की योजना बनाई थी। इस सूचना को जूनागढ़ और राजकोट के किसान हिन्दी में होने के कारण नहीं समझ पाए थे, फिर एनएचएआई के इस नोटिफिकेसन की क्या वैधता, इसलिए उन्होंने अपनी इस जेनुइन माँग को लेकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

यहाँ बहुत संभव है कि कोई हिन्दी के साथ ‘विदेशी भाषा’ के शाब्दिक व्यवहार को ही भुनने लगे। गौरतब है कि जज ने ‘विदेशी‘ शब्द हिन्दी के वहाँ(गुजरात) की जमीन की न होने के कारण, संप्रेषित न होने के कारण, वहाँ की जनभाषा न होने के कारण कहा है। इतना ही है इस संदर्भ में विदेशी का अर्थ। यह तो सहजबोध का मामला है कि हिन्दी कोई योरप-फारस की भाषा नहीं है। 

न्यायालय के इस निर्णय में कुछ भी क्षोभ करने वाला नहीं है। निपट निरक्षर के सामने जाइये हिन्दी बोलिये गाँव में, वह पीठ पीछे कहेगा, ‘अंग्रेजी बूकत रहे’! सवाल हिन्दी विरोध का नहीं है, सवाल है कि हिन्दी के राष्ट्र-राजभाषी उन्माद में हम इन जीवित भाषाओं को क्यों मारने में लगे हैं। हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में स्वतः फैले तो मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन जबरिया एकैडमिक झूठ और साम्राज्यवादी दंभ में इसको थोपना अत्यन्त घातक है, यह अकारण नहीं है कि ब्रज-भोजपुरी-अवधी-मैथिली...आदि की गौरवशाली साहित्यिक परंपराएँ हिन्दी के आने के बाद गला घोट के मार डाली गयीं, मातृभाषियों को इतनी कीमत चुकानी पड़ी! आखिर क्यों? जब तक कोई गरियाये न, तमिल भाइयों जैसा विरोध न करे तब तक बात समझ में नहीं आ्ती? यह जूनागढ़ के किसानों की आवाज है, कोर्ट ने जो कहा सही कहा, हिन्दी विभाग के गद्दार प्रोफेसरों से अलग, थुलथुल हिन्दी राष्ट्रवाद से अलग, झूठे एकैडमिक दंभ से अलग! मैं गुजरात हाई कोर्ट के इस निर्णय का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। 

हिन्दी विभाग के प्रफेसरों के संबंध में गद्दार शब्द मैने किसी उद्धत स्वभाव के चलते नहीं कहा है। इसकी भी वजह है। एकेडमिक का मुख्य लक्ष्य होता है, सत्यानुसंधान। लेकिन भाषा के मसले में हिन्दी विभागों ने मिथ्या प्रचार शुरू से ही रोपा है, उसकी फसल काट रहे हैं। हिन्दी विभागों और हिन्दी एकेडमीशिया ने आरंभ से ही उत्तरभारत की अनेक स्वतंत्र भाषाओं को अपनी ‘बोली’ कह कर उनका स्वतंत्र विकास होने से रोक दिया। दो झूठे प्रचार खास तौर पर किये गये, १-हिन्दी राष्ट्रभाषा है, और २- हिन्दी पूरे उत्तर भारत की मातृभाषा है। परिणामतः उत्तर भारत की भाषिक समृद्धि और वैविध्य विनष्ट हुआ। कुछ भाषाएँ खत्म होने को हैं, कुछ जैसे तैसे बची हैं, और कुछ प्रतिरोध में आ रही हैं। हिन्दी विभागों में भाषाविज्ञान नहीं के बराबर पढ़ाया जाता, संभव है यह राजनीतिक निर्णय हो, इस वजह से यह गफलत आराम से ढोयी जाती है कि अवधी-ब्रज-भोजपुरी-राजस्थानी-छत्तीसगढी-मैथिली..आदि हिन्दी की बोलियाँ हैं। जबकि लिंग्विस्टिक्स इन्हें स्वतंत्र भाषाएँ मानता है। इस सत्य को आप परीक्षाओं में लिख दें तो नंबर काट लिया जायेगा। इंटर्ब्यू में बोलें तो आपका चयन नहीं होगा। एक तरफ तो इन सभी स्वतंत्र भाषाओं को हिन्दी की खेती कहेंगे दूसरी तरफ इनके ग्रामर, शब्दकोश, कवियों को हिन्दी में हेयता-हीनता का प्रमाण मानेंगे। जब हिन्दी में कुछ नहीं होता, जब हिन्दी के अतीत की झूठी रेखा खींचनी होती है, तो लोकभाषाओं के कवियों को अपना कह देते हैं और आधुनिक काल के इन्हीं भाषाओं के कवियों को दूध पर पड़ी मक्खी की तरह बाहर फेक देते हैं। हिन्दी में ‘जनवाद’ खूब झोंका जाता है, एलीट शौक की तरह, पर जनभाषा क्या होती है, यह भी आज तक नहीं समझ पाया गया। जिन विद्वानों ने हिन्दी से अलग राय रखी कि ये ‘बोलियाँ’ नहीं भाषा हैं, उनकी बात को हिन्दी विभाग पढ़ाता भी नहीं है। एक सतही भाववाद का लाभ लिये हिन्दी का लोकभाषाओं पर अकादमिक साम्राज्य स्थापित किया गया है। इन स्थितियों में कहीं विरोध के स्वर आयें और हिन्दी के लिये ‘विदेशी भाषा’ का उक्ति-योग जुड़ जाए तो आश्चर्य क्या भला! 

ऊपर मैने हिन्दी के अकादमिक तंत्र का जिक्र किया है। कारण है कि समाज की दिशा-दशा में इन ज्ञानीजनों के ज्ञान-तंत्र की और ज्ञान की अच्छी खासी भूमिका होती है। जो सत्य दिखाना चाहिये था, वह नहीं दिखाया गया, एक अलग ढर्रा अख्तियार की गयी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हिन्दी न तो कभी सबकी हो पायी और न ही बहुतेरी लोकभाषाएँ पनप सकीं। हिन्दी की जगह अंग्रेजी आने को है। अगर संपर्क भाषा का ही तर्क हो तो अंग्रेजी हिन्दी से भी अधिक बेहतर है, दक्षिण भारत और विश्व से संपर्क के लिहाज से। पर लोकभाषाएँ तो गरीब-गुर्बा मजदूर में हैं और रहेंगी। अनीति यही है कि इनकी इन भाषाओं को नोटिस न करना, इनमें नोटिफिकेशन न देना। 

विगत समय में हिंग्लिश की पैरोकारी हुई है। विदित हो कि यह हिंग्लिश भी लोकभाषियों की जुबान नहीं है, यह उसी संपन्न निर्णायक मध्यवर्ग की जुबान है जिसकी जुबान हिन्दी रही है और वर्तमान में हिंग्लिश है। संभव है भविष्य में इसकी जुबान अंग्रेजी हो और यह अंग्रेजी की पैरोकारी करे। यह हिन्दी-हिंग्लिश के नाम पर बवाल भले काटे लेकिन अपने बच्चे को अंग्रेजी में ही पढ़ाता है, इसका सुनहरा भविष्य अंग्रेजी आँखो से देखता है! इसके निर्णय जनमन नहीं बल्कि इसकी अपनी सुविधा के अनुसार रहे हैं, इसीलिये इसे कभी उत्तरभारतीय लोकभाषाओं का दर्द नहीं समझ में आया। उल्टे मजदूरों-गरीबों की बोली को गँवारू कह कर हीनता का भाव भरता रहा। राजस्थानी और भोजपुरी का अपनी सांवैधानिक पहचान के लिये आगे आना इस हीनता-बोध को अपने ढंग से जबाब दे रहा है। देर से ही सही पर सही पहल है यह। 

गुजरात हाईकोर्ट के इस फैसले में हिन्दी-तंत्र की उस सर्वग्रासी मानसिकता का प्रत्युत्तर भी है जिसने देशभर में हिन्दी संस्थान बनाये लेकिन यह नहीं देखा कि उन जगहों की भी भाषा है कोई, उसकी भी पहचान होनी चाहिये। हिन्दी वाले चाहे कि हिन्दी सुदूर दक्षिण पूरा भारत पढ़े-बोले लेकिन खुद उन भाषाओं से कभी स्नेह नहीं किया। यही वजह है कि गोपालाचारी जो कभी हिन्दी हित में लगे थे वे हिन्दी से हट तमिल की वकालत में गये। उन्होंने उचित ही किया। इसी समय हिन्दी की तरफ से अपना यशोगान करते हुये और यह दिखाते हुये कि हिन्दी कितनी महान भाषा है, दुनिया भर की छद्म घोषणाएँ हुईं। यथार्थ छद्म घोषणाओं से नहीं बदलता। विसंगतियाँ भविष्य में और भी दिखेंगी ही। 

~सादर/अमरेन्द्र अवधिया 

13 टिप्‍पणियां:

  1. ठीक कहते हो अमरेन्द्र भाई ...ख्वामखाह ...की भारत, हिन्दुस्तान लगा रखी है ..इस भूखंड की २५०० बोलियां हैं यहाँ तो २५०० राज्य होने चाहिए थे...

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  2. भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। अभिव्यक्त करने वाला चाहता है कि वह जो बात कहना चाहता है वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे। शायद इसीलिए आपने इस लेख को अवधि के बजाय हिंदी में ही लिखा! वैसे ही राज्य सरकार को भी चाहिये था कि किसानों को उसकी भाषा में समुचित जानकारी उपलब्ध कराती। जिस पर संदेश अभिव्यक्त होना है वह तो समझ ही नहीं पाया। इस दृष्टिकोण से माननीय जज साहब ने ऐसा फैसला सुनाया। प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र परिवेश मिलना चाहिए। कोई भी भाषा किसी पर जबरी लादना ठीक नहीं। मगर सवाल है रोटी का। भाषा का विकास तभी होता है जब वह रोटी से जुड़ती है। पेट की भूख को तृप्त कर सकती है। संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा भी रोटी से कटने के कारण आज उपेक्षित पड़ी है। भारतीय लोक भाषाओं की उपेक्षा का तो कहना ही क्या। अंग्रेजी अपने बच्चों को कोई अंग्रेजी प्रेम के कारण पढ़ाना चाहता हो ऐसा नहीं है। वह जानता है कि मेरा बेटा यदि अंग्रेजी नहीं सीखेगा तो आगे कुछ नहीं कर पायेगा। हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने मात्र से या लोक भाषाओं को हिंदी है, कह देने मात्र से हिंदी का विकास नहीं होगा। हिंदी तभी विकसित होगी जब यह सीधे तौर पर रोजी-रोटी से जुड़ेगी। सरकारी काम काज के अलावा प्रश्न पत्रों और न्यायालयों की भाषा भी बनेगी। हिंदी की समृद्धि के लिए भी लोक भाषाओं का सरंक्षण आवश्यक है। राज्यों को इस पर ध्यान देना चाहिए।
    ..आपका लेख विचारोत्तेजक है। शीर्षक आकर्षित करता है।

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  3. भाषायी संदर्भ में इस घटना का एक रोचक पहलू यह भी है कि क्या जज साहब ने अपना फैसला गुजराती में सुनाया? नहीं न..! वह तो अंग्रेजी में होगा। अंग्रेजी का अनुवाद गुजराती में करके वकील साहब किसान को समझायेंगे। मतलब दलील भी वकील साहब ने विदेशी भाषा में रखी। फैसला भी विदेशी भाषा में आया और जीती लोकभाषा! यह कैसे मान लिया जाय? दरअसल हुआ यह कि जीती वकील साहब की बुद्धि और अंग्रेजी भाषा।

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  4. काफी अच्छा और विचारोतेजक लिखा है आपने लेकिन अगर आपको हिन्दी से इतनी ही समस्या है तो फिर आपने अपने लेख को लिखने के लिए हिन्दी को ही क्यूँ चुना गुजराती को चुनना चाहिए था। माना की हमारे देश की कुछ भाषाएँ हैं जो कहीं गुम हो गई हैं। लेकिन उसकी जिम्मेदार हिन्दी है ऐसा मैं नहीं मानती। मैं अपने आपको हिन्दुस्तानी मानती हूँ और हिन्दी मेरी मात्र भाषा है। मेरी क्या सभी हिंदुस्तानियों की मात्र भाषा हिन्दी ही है। बाकी तो देवेन्द्र जी ने जो भी लिखा मैं उस सबसे पूरी तरह सहमत हूँ।

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  5. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी की टिप्पणी, जो तकनीकी दिक्कत से नहीं आ सकी, यह है:

    “हिंदी को रोजी-रोटी से जोड़े बिना इसका महत्व नहीं बढ़ सकता। केवल साहित्यिक जुगाली करने के लिए हिंदी अपनायी जाएगी तो बाकी भाषाएँ क्यों नही जिनका साहित्य हिंदी से कहीं अधिक पुराना और क्लासिक है। अवधी, भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला आदि को पीछे कर हिंदी को आगे बढ़ाने का क्या तर्क है?”

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  6. मनोज कुमार जी की टिप्पणी जो तकनीकी दिक्कत से नहीं आ सकी, वह यह है:

    “अमरेन्द्र भाई ... बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने। हमारे अधकचरे सोच ने ही इन समृद्ध भाषाओं के विकास की गति को अवरुद्ध कर दिया है। हमारी जब शादी हुई तो हमे न सिर्फ़ एक मैथिली भाषी पत्नी मिलीं बल्कि उनके पास उस भाषा की डिग्रियां भी थीं, बाद में प्रांत के कुछ राजनीतिज्ञों ने उसे विश्वविद्यालय के कोर्स से ही हटा दिया।
    गुजरात का यह मामला सीख लेने वाला है।”

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  7. @भाषायी संदर्भ में इस घटना का एक रोचक पहलू यह भी है कि क्या जज साहब ने अपना फैसला गुजराती में सुनाया? ....................

    devendra bhai ke vichar se sahmati


    sadar.

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  8. देवेंद्र जी और अन्य मित्रों! हिन्दी का विरोध नहीं है, संपर्क भाषा के तौर पर हिन्दी की शक्ति से इंकार कब है, पर हिन्दी-तंत्र के झूठ के विरोध का प्रश्न है। उन्हीं में कुछ झूठ है हिन्दी राष्ट्रभाषा और सबकी मातृ्भाषा है, जो भाषाएँ हिन्दी के आने के भी सैंकड़ों वर्ष पहले से हैं वे भाषा नहीं हिन्दी की ‘बोली’ हैं। भाषा का मुख्य निर्धारक तत्व ग्रामर है, हिन्दी व उर्दू दोनों का ग्रामर एक है, इसके बाद भी दोनों अलग-अलग भाषाएँ स्वीकृत हैं। सिर्फ हिन्दी व उर्दू के ईगो के चलते। इन अवधारणात्मक झूठों ने सर्वाधिक विसंगति खड़ी की है, ऐसे न्यायालयी निर्णय इनके ही दुष्परिणाम हैं। भाविष्य में हिन्दी-दंभ पर कुछ अन्य बातें रखूँगा।

    @भाषायी संदर्भ में इस घटना का एक रोचक पहलू यह भी है कि क्या जज साहब ने अपना फैसला गुजराती में सुनाया?

    - जो अदालत के अंग्रेजी फैसले का ओढ़र लेकर बात कर रहे हैं उनके लिये यह कहना चाहूँगा कि यह सवाल यह सवाल आप हिन्दी-उठाओ-तंत्र से लीजिये कि वह अंग्रेजी की जगह हिन्दी क्यों नहीं ला पाया? यह तो देश की भाषा है! अंग्रेजी की जगह आये तो खुशी होगी पर वही कहूँगा कि यह भी एक छलावा है कि हिन्दी हित चिंतक वर्ग अपनी पूरी भावी पीढ़ी को अंग्रेजी में पढ़ाती है और गँवार जनता को इस झूठ में रखती है कि उसकी भाषा गँवारू है और हिन्दी ही उसके लिये होनी चाहिये। मेरा सीधा विरोध है कि किसानों को नोटीफिकेसन गुजराती में देना था, यह न्यायालय ने सत्य कहा है। और आजाद भारत के साठ साल से अधिक के हिन्दी हित चिंतन/चिंतकों की सीमा और भारत की जटिलता दोनों अखिल भारतीय तौर पर हिन्दी से अधिक अंग्रेजी में सुभीता खोज ले रही है। क्या कहा जाय! सादर..!

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  9. दवेंद्र भाई के टिप्पणी से मैं सहमत हुँ.

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  10. टिप्पणी, जो तकनीकी दिक्कत से नहीं आ सकी!

    कारण यह तो नहीं
    http://www.blogmanch.com/viewtopic.php?f=7&t=25

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  11. पाबला जी, इस सुझाव को अमल पर ले आया हूँ, शुक्रिया!

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  12. 'जबरिया एकैडमिक झूठ और साम्राज्यवादी दंभ में इसको थोपना अत्यन्त घातक है'

    क्या अंग्रेजी जबरिया और साम्राज्यवादी नहीं थी ? वह सवाल भी याद आता है कि भारत देश जो रियासतों को मिलाकर बना, वह साम्राज्यवादी काम नहीं हुआ ?

    आदत की लाचारी से कुछ बोल गया, माफ करेंगे। आगे मौन ही ठीक होगा!

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