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मंगलवार, 13 मार्च 2012

खुले में रचना / कविता-पाठ / ११-३-१२ / jnu / [२]

रिपोर्टिंग के पहले भाग के बाद यह दूसरा भाग प्रस्तुत है, जिसमें मुख्यतः अशोक वाजपेयी जी की कवितायेँ और उनके विचार हैं. पहले भाग में अरुण देव जी और सुमन केशरी जी की कवितायेँ एवं उसपर अशोक जी की टिप्पणी थी. कार्यक्रम में टिप्पणी देने के बाद अशोक जी ने अपनी कवितायेँ पढीं. उनहोंने कहा; 

'एक जमाने में मैं भाववाचक संज्ञाओं के प्रयोग का बहुत सख्त विरोधी था. मुझे लगता था की भाववाचक संज्ञाएँ बहुत गड़बड़ करतीं हैं. लकिन बाद में मुझे लगा की उनके बिना काम ही नहीं चलता. इधर मैंने सोचा की कुछ छोटी चीजें हमारी जिन्दगी से गायब हो रही हैं, हमारे ध्यान के भूगोल से. सोचा की कुछ नजर इधर रखी जाय, इसलिए यह कविता 'टोकनी'. 

'' एकाएक पता चला की टोकनी नहीं है 
पहले होती थी 
जिसमें कई दुःख और हरी भरी सब्जियां रखा करते थे 
अब नहीं है 
दुःख रखने की जगह भी 
धीरे धीरे कम और गायब हो रही है.'' 

कविता `छाता' 

'' छाते के बाहर ढेर सारी धूप थी 
छाता भर धूप सर पर आने से रोक रही थी 
तेज हवा को छाता अपने पर रोक पाता था 
बारिश में इतने सारे छाते थे कि लगता था लोग घर बैठे हैं 
और छाते ही चल रहे हैं 
अगर धूप, तेज हवा और बारिश न हो तो 
किसी को याद नहीं रहता कि 
छाते कहाँ दुबके पड़े हैं. '' 

कविता `पत्ती' 

'' जितना भर हो सकती थी उतना भर हो गयी पत्ती 
उससे अधिक हो पाना उसके वश में न था 
न ही वृक्ष के वश में 
जितना कांपी वह पत्ती उससे अधिक काँप सकती थी 
यह उसके वश में था 
होने और कांपने के बीच हिलती हुई वह एक पत्ती थी. '' 

कविता `सूटकेश' 

'' ऐनवक्त पर 
जब हम उसे बंद कर चुके होते हैं 
तब पाते हैं कि कुछ उसमें रखने से रह गया है 
कुछ भी 
कोई छोटा सा नोट 
सपने का कोई अधखाया टुकड़ा 
दर्द को मिटाने की कोई दवा 
उसमें जगह नहीं होती 
तह किये कपड़ों के बीच किसी तरह ठूस देते हैं 
अपने छोटे मोटे दुःख, अपनी निरुपायता 
कामचलाऊ सबकुछ अन्दर समा जाता है 
पर वे दुःख नहीं 
जिनके लिए जगह नहीं बचती 
भले उनके बिना हमारा काम नहीं चलता. '' 

कविता `मित्रहीन आकाश' 

'' धीरे धीरे सब मित्र छोड़ कर चले गए 
कुछ जल्दी जल्दी सूटकेश में चप्पलें रखना भूलकर 
कुछ अपनी नाराजगी और विफलताओं से त्रस्त होकर 
कुछ चकाचौंध की ओर जाने की हड़बडी में 
कुछ अलविदा के सटीक शब्द याद न कर पाने की झल्लाहट में 
सब चले गए 
कुछ इसलिए कि तुमने उनका ऐनवक्त पर साथ नहीं दिया 
कुछ इसलिए कि तुमने अपने और उनके बारे में सच बोलने की जुर्रत की 
कुछ इसलिए कि उन्हें अपनी दुष्टता के मुकाबले तुम्हारी दुष्टता ज्यादा असह्य लगी 
कुछ इसलिए कि उन्हें अब तुमसे कोई लाभ नहीं मिल सकता था 
कुछ इसलिए कि तुम्हारे साथ होना हानिकारक हो सकता था 
वे चले जाएंगे तो 
उनके साथ बिताए समय, बहसें, झगड़े 
साझे सुख और दुःख 
चिथड़े हुए सपने 
न काटे जा सके दुस्वप्न 
मिलकर की गयी घातें 
साथ मिलकर सहे गए आघात भी 
चले जाएंगे ? 
शायद 
शायद नहीं 
जो बचेगा मित्रहीन आकाश 
उसपर खिड़की बंद कर 
तुम बुदबुदाओगे अलविदा मित्रों 
और अपनी मटमैली मेज पर पड़े 
कुछ कागजों को सहेजोगे 
जिनपर कुछ लिखना बहुत दिनों तक मुमकिन नहीं होगा. '' 

इन कविताओं के अतिरिक्त भी अशोक जी ने कवितायेँ सुनाईं. इसके बात प्रश्नोत्तर का सिलसिला चला. इस दौरान जो विचार आये उन्हें भी  देखें;  

सर्वप्रथम संस्थापक-कविताकोश ललित जी ने टिप्पणी-रूप में अपनी जिज्ञासा रखी. उन्होंने कहा कि 'आजकल कविता पढ़ने के लिए लिखी जाती है सुनाने के लिए नहीं, जैसा आपने कहा, यह मुझे ठीक बात लगी, क्योंकि आप लोगों ने जो कवितायेँ सुनाईं उनमें - थोड़ा बेबाक होकर कहूँ तो - बोरियत आ जाती है. सुनते हुए याद आया कि हमने फैज़ को भी पढ़ा, ग़ालिब को पढ़ा, मीर को भी पढ़ा, गजल एक ऐसी विधा है जिसका हर एक सेप अपने आपमें मुकम्मल होता है लेकिन कविता की समस्या है कि वह ऊपर से नीचे तक एक ही सब्जेक्ट को फ़ालो करती है इस लिहाज से इस तरह की लम्बी कविता को अपने माइंड में प्रोसेस करना मुश्किल हो जाता है , ख़ास तौर पर तब जब कवि उसमें बहुत सारे क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल किया हो. मुझे लगता है कि कविता के अन्दर साहित्य और लोकप्रियता में जो फर्क है, जिसे आजकल मंचीय कविता कहते हैं, मेरे खयाल से मंचीय कविता को इतना ज्यादा गरियाने की जरूरत नहीं है. क्योंकि वाजपेयी जी ने कहा कि कविता का मकसद होता है 'ठिठकाना', जो कविता समझ में ही न आये वह सामने वाले को कभी नहीं ठिठका सकती. जाहिर है कि जो मंचीय कविता है, लोकप्रिय कविता है, उसपर हम विचार कर सकते हैं और उसको किसी तरह अपने जीवन में जोड़ कर रख सकते हैं, यह प्रश्न नहीं टिप्पणी है!'

ललित जी की बात पर वाजपेयी जी ने उत्तर दिया: 

'' मुझे लगता है कि दो-तीन बातें कहनी चाहिए. पहली बात, हमारी कविता की समझ को दो चीजों से बहुत प्रभावित हुई, खबर से और फ़िल्मी गीतों से. खबर का मतलब यह कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए, उस खबर का मुख्य सच तो यही है. फिर आगे इसके खुलासे हैं कि कैसे यह हुआ, मुलायम सिंह को मनाया गया..क्या क्या हुआ..आदि. दूसरी तरफ  फ़िल्मी गीत हैं जिन्हें हम आज तक सुनते आये हैं जैसे कोई प्रेमी-प्रेमिका कमरे में बंद हों चाबी खो गई है, फिर आगे तमाम बाते..उसमें मुख्य बात तो यह रहती कि प्रेमी-प्रेमिका एक कमरे में बंद हैं चाबी खो गयी है, बाकी गीत इसी का खुलासा भर करता था. कविता की समझ दुर्भाग्य से ऐसी नहीं है, नहीं हो सकती. वह अपना सच आपको समोसे की तरह गप्प से खा जाने के लिए तस्तरी पर पेश नहीं कर सकती. उसका सच शुरू में ही व्यक्त नहीं हो सकता. दूसरी बात, असल में तो कविता का सच अधूरा सच है. उसमें थोड़ा सा सच आपको मिलाना पड़ेगा, अपना! इसीलिये एक ही कविता के अनेक अर्थ या अनेक व्याख्याएं संभव हैं क्योंकि उसमें आप अपनी और से कुछ जोड़ते हैं. एक अरबी कहावत है जिसको अज्ञेय जी बहुत सुनाते थे कि अगर एक किताब और एक खोपड़ी टकराए और खन्न से आवाज निकले तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि किताब ही खाली है! 

आपने जो मंचीय कविता का जिक्र किया, पहले एक ज़माना था.. और यह हिन्दी में ही हुआ उर्दू में नहीं हुआ, उर्दू में अभी भी मुशायरे में सफल होना शायर की स्वाभाविक आकांक्षा का अंग माना जाता है. लेकिन हिन्दी में पिछले लगभग तीस-चालीस वर्ष में ऐसा विकास हुआ कि लोकप्रियता और महत्व के बीच एक बड़ी खाई बन गयी. जो महत्वपूर्ण है वह लोकप्रिय नहीं है और जो लोकप्रिय है वह महत्वपूर्ण नहीं है. अब इसके कारणों में जाने का अभी अवसर नहीं है. लेकिन ऐसा है. हमने मध्य प्रदेश में एक प्रयोग किया था शब्दों के हिसाब से.. और कविता में कुछ भी क्लिष्ट नहीं होता, या तो सटीक होता है या अ-सटीक होता है. निराला की शक्तिपूजा में शुरुआती पंक्तियाँ समस्त पद में हैं, संस्कृत का कोश  देखिये तब समझ में आयेंगी. इसलिए वह कविता न हो! क्लिष्ट है! थोड़ी-बहुत मेहनत तो आपको करनी पड़ेगी! 

यह जो हमने प्रयोग किया कवियों को लेकर .. कि लगभग १०० आयोजन किये होंगे, भोपाल में, इंदौर में, ग्वालियर में, जबलपुर में, सागर में, और हमने पाया कि अगर इस तरह की कविता ठीक से पढने वाले कवि जुटाए जाएं! बहुत सारे कवि तो अपनी कविता अच्छी नहीं पढ़ते, मसलन मुक्तिबोध अपनी कविता अच्छी नहीं पढ़ते थे. शमशेर और अज्ञेय अच्छा पढ़ते थे. इसलिए पढने का भी इन कवियों को थोड़ा अभ्यास करने की जरूरत है कि क्या चाहिए, एक श्रोत्र समुदाय को अपने को संप्रेषित करने के लिए. दिक्कत कवि के साथ क्या होती है कि उसे लगता है कि लाओ लगे हाथ इसे भी  सुना दे. यह लगे हाथ नहीं चलता. जैसे कुमार गन्धर्व अपने गाने का एक नक्सा बनाते थे, कागज़ पर लिखते थे, तय कर लिया कि आज तिलककामोद सुनाना है तो कोई परिवर्तन नहीं करते थे(सिर्फ मैं ही उनसे परिवर्तन करा सकता था). यह, अपने श्रोत्र-समुदाय के प्रति आदर का भाव भी होना चाहिए..जैसे मैं मानता हूँ कि पंक्तियों को दुहराना अनावश्यक है. कई बार कारण नहीं समझ में आता क्यों दुहराव है. ये सब बातें हैं! '' 

आगे श्रोताओं की तरफ से सवाल हुए कि कविता हमें पूरी यात्रा तक क्यों नहीं पहुंचाती. अधूरे रास्ते पर जैसे छोड़ देती है. इसी के आगे एक सवाल आया था कि सामाजिक सरोकार का ऐसा क्या महत्व कि जिसके अभाव में किसी को श्रेष्ठ कवि की परिधि से खारिज कर दिया जाता है, विषय चयन से दूर तक यह सामाजिक सरोकार की अनिवार्य आवश्यकता का क्या सम्बन्ध है! इन बातों पर अशोक जी ने कहा: 

'' हमारे तो एक बड़े कवि के बारे में यह लगभग रूढ़ है, मुक्तिबोध, जिन्होंने अपने बारे में लिखा है कि ख़त्म नहीं होती, ख़त्म नहीं होती हमारी कविता. तो इसका उत्तर यह है कि कविता से आपकी तवक्को क्या है, आप क्या चाह रहे हैं. कविता का काम आपको रास्ता दिखाना नहीं है. कम-से-कम मैं कवि के तौर पर जो देखता हूँ. मेरा काम आपको रास्ते की संभावना की तरफ सजग करना है. जो बना-बनाया रास्ता है वही रास्ता नहीं है, रचने-गढ़ने के कई विकल्प संभव हैं, उनमें से कौन सा आपको ठीक लगता है यह आप पर है. क्योंकि आपकी परिस्थितियों का तो मुझे पता नहीं!

मेरे जो ८-९ वीं के अध्यापक थे, अद्भुत अध्यापक थे, उन्हीं दिनों मैंने सार्वजनिक वक्तव्य देना शुरू किया था, वाद-विवाद आदि. उनहोंने जो मुझे कई सीखें दीं उनमें से एक सीख यह थी कि अपने श्रोताओं को प्यासा छोड़ना जरूरी है. उनके ऊपर सारा बोझ मत डाल दो, जितना वो सम्हाल न सकें. इसलिए कविता भी एक जगह ले जाकर आपको छोडती हैं, यही उसके लिए ठीक है. आपको रस्ते पर बहुत आगे तक ले जाय, ऐसी कविता होती होगी, लेकिन बहुत अच्छी कविता नहीं होती. 

देखो ये सामाजिक यथार्थ, सामाजिक सरोकार आदि नए चोचले हैं. और इनका कोई विशेष अर्थ नहीं है. किसी भी समय में बहु-संख्यक कवि खराब होते हैं, थोड़े ही अच्छे होते हैं. छायावाद के समय संभवतः साढ़े चार हजार कवि रहे होंगे लेकिन बचे साढ़े चार. आधे में राम कुमार वर्मा आदि को रख दो. बाकी सब का क्या हुआ! दो तरह के कवि होते हैं, एक तो अच्छे कवि, जिनका पूरा विकास होता है जैसे मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, निराला आदि. दूसरे वो होते हैं जो (कोई)एक अच्छी कविता लिखते हैं. बाकी सब उनके बस का नहीं. नेमि जी ने एक बार मृत्युंजय उपाध्याय नाम के कवि को बताया, उनकी एक कविता थी  कि एक आदमी की नौकरी छूट गयी और वह भाग आया, कविता है; 

बगल से गुजरती लछमिनिया को देखा नहीं 
... 
ढिबरी जलाई नहीं 
चूल्हा सुलगाया नहीं 
छूट गयी नौकरी 
किसी को बताया नहीं! 

यह एक दृश्य है जिसमें एक व्यक्ति नौकरी छूट जाने के बाद अपनी झोपड़पट्टी में लौट आया है. यह एक अच्छी कविता है. हिन्दी में दुर्भाग्य से खोजकर लाने-दिखाने की परम्परा नहीं है. अंगरेजी में इसकी परम्परा है. मैं अभी एक किताब खरीद कर लाया जिसमें एक नन है जिसको कविता पढ़ने का शौक है. इस नन ने अपनी रूचि से सौ कवितायेँ चुनी है. उसमें ऐसी कवितायेँ हैं, कवि हैं जिनके मैंने नाम ही नहीं सुने. मैं अंगरेजी साहित्य का वैध विद्यार्थी हूँ, हिन्दी का तो अवैध हूँ, मैं खुद ही पढ़ के चौक गया उन अच्छी कविताओं को! हमारे यहाँ इस तरह से अच्छी कविताओं को बचाने का प्रयास नहीं है. इसलिए ऐसे कवि भी हैं जो संभवतः अच्छे कवि न हों लेकिन अच्छी कवितायेँ लिखे होते हैं. '' 

सामाजिक सरोकार वाले मुद्दे पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने भी अपना मत रखा, जो इस तरह है; 

'' ये जो सामाजिक सरोकार वाली बात है, पहली बात यह की भाषा स्वयं एक सामाजिक सरोकार है. आप भाषा का प्रयोग करते हैं तो आप एक सामाजिक कर्म कर रहे होते हैं. इसलिए मैं कवि से यह उम्मीद नहीं करता की वह मेरे प्रिय सामाजिक सरोकारों पर कुछ कह रहा है या नहीं कह रहा है, लेकिन उसकी भाषा में सामाजिक तत्व होता ही है. दूसरी बात जब आप मनुष्य हैं और समाज में हैं तो आपकी चिंताओं के बीच में ऐसा साफ़-सुथरा विभाजन संभव नहीं है कि कहाँ आंतरिक जगत समात्प होता है और कहाँ बाह्य जगत आरम्भ होता है, अगर आप संवेदनशील व्यक्ति हैं तब! तीसरी बात यह है और यह कुछ विवादास्पद हो सकती है कि जो लोग सामाजिकता को आस्तीन पर चिपकाए फिरते हैं उनकी सामाजिकता हमें हमेशा संदिग्ध लगती है. कहीं न कहीं यह एक प्रचलित बाजारवाद का रूप है कि डिमांड किस चीज की है, वैसी कविता हम प्रस्तुत करें! हिन्दी के एक बहुत महत्वपूर्ण महान कवि थे जो पहले छायावादी थे, फिर प्रगतिशील हुए, फिर अध्यात्मवादी हुए, फिर अरविन्दवादी हुए, पुनः प्रगतिशील हुए और पुनः अध्यात्मवादी हुए! इसमें कोई हरज नहीं है अगर यह विकास आंतरिक दबावों और आतंरिक चिंताओं का परिणाम हो. मार्केट के दबाव में न हो. दुर्भाग्य से हिन्दी की बहुत सारी कवितायेँ बाजार की मांग के मुताबिक़ लिखी जा रही हैं. जैसे वाजपेयी जी ने `टोकनी' पर कविता लिखी, महत्वपूर्ण यह की हम सोचें, हमारी भाषा से टोकनी का गायब हो जाना, मेरे बच्चों की भाषा से टोकनी का गायब हो जाना, यह सामाजिक चिंता का विषय है या नहीं? अगर यह सामाजिक चिंता का विषय है तो कैसे वह कविता सामाजिक सरोकार की कविता नहीं है! '' 

कविता के लिए प्रतिमान, उनका दायरा, उनमें विमर्श, भविष्य में वे कैसी हों, इन बातों आधारित प्रश्न के जबाब में अशोक जी ने अपना मत रखा; 

'' इस सवाल का जवाब बहुत लंबा होगा .. कुछ साल पहले मैंने एक इसपर एक टिप्पणी लिखी थी  कि  हमारे साहित्यिक जीवन से, साहित्यिक कृतियों से उदात्त का भाव इतना गायब क्यों है! बल्कि उदात्त शब्द का ही प्रयोग नहीं के बराबर, हिन्दी साहित्य वाले लोंजाइनस के सिलसिले में पढ़ते होंगे और मानते होंगे कुछ रहा होगा उदात्त होना इत्यादि. अब कोई उदात्त होना नहीं चाहता. जैसे  कि  उदात्त होना कोई पिछडापन है. जैसे कोई कृतग्य नहीं होना चाहता, वह भी उदात्तता का ही एक रूप है. जैसे कोई विराट को छूने की आकांक्षा नहीं करना चाहता. क्योंकि यह आध्यात्मिकता के खाते में है. कभी भी कोई कविता बड़ी कविता नहीं हो सकती अगर वह इन स्तरों से  किसी न किसी रूप में जुड़ती न हो! हो सकता है आप उदात्त को अपना उद्देश्य घोषित न करें, जैसे मैंने एक कविता सुनाई `अपने हाथों से उठाओ पृथ्वी', उसमें आप कहें तो थोड़ा सा उदात्त होने की चेष्टा है. लेकिन इसीलिए कई बार उदात्त होता भी है तो उसे अनदेखा कर दिया जाता है. क्योंकि हमारे देखने की आँख में उदात्त शामिल नहीं है. जैसे शमशेर की कविता है, `प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे...' यह अद्भुत बिम्ब है, पूरा ब्रह्माण्ड! यह उदात्त है. `असाध्य वीणा` की कल्पना बिना उदात्तता के कैसे कर सकते हैं आप! दूसरे  स्तर पर `अँधेरे में' भी वह तत्व है जिसमें  वह आदमी भाग रहा है जिसके सामने प्रश्न है  कि  दिल्ली जाऊं या उज्जैन, उसको गांधी मिल जाते हैं, उसको तोल्स्तोय मिल जाते हैं. ये उदात्त चरित्र हैं! सीधे सीधे उदात्त नहीं! कई बार सीधे सीधे कुछ भी कहना गड्ढे में डालता है, अन्तःसलिल होना कविता में, अन्तर्ध्वनित होना, ज्यादा अच्छा है बजाय उसके बारे में मुखर होने के! .. पहचाने जाने की तुरंत की चिंता से बेहतर है की आप सोचें  कि  भाषा में जो आप करना चाह रहे हैं, क्या वह कर पा रहे हैं! बाकी की चिंता न करे, भवभूति जैसे कवि ने कहा था  कि   मैं दोनों भुजा उठा के कह रहा हूँ  कि  कभी-न-कभी तो होगा कोई सामान धर्मा, पृथ्वी विपुल है और काल निरवधि है!! ऐसे बहुत से कवि हुए हैं जिनकी सराहना तो क्या, हमारे यहाँ मुक्तिबोध हुए हैं जिनके जीते-जी पहला कविता संग्रह ही नहीं आया था. सत्य और सपने के बीच वही विडम्बना देखते रहिये, कोई सच बिना सपने के होता ही नहीं है!! '' 

इस तरह यह दूसरा भाग पूर्ण होता है. तीसरे भाग की प्रकृति अलग है, यूं कहें तो औपचारिक रूप में रिपोर्टिंग पूर्ण. (क्रमशः) 

रविवार, 11 मार्च 2012

खुले में रचना / कविता-पाठ / ११-३-१२ / jnu / [१]

अभी कुछ घंटों पहले जे.एन.यू.-एस.एल. के कमिटी रूम में आयोजित ‘खुले में रचना -१’ से लौटा हूँ। मैंने पूरा कार्यक्रम सुना। इसपर अपनी ओर से रपट और अंततः अपनी बात रखना चाहता हूँ। एक पोस्ट में यह संभव न हो सकेगा इसलिये तीन हिस्सों में बाँट दे रहा हूँ, १- आमंत्रित कवयित्री सुमन केसरी और अरुण देव का काव्यपाठ और उसपर साहित्यकार अशोक वाजपेयी की टिप्पणी। २- अशोक वाजपेयी की कविताएँ, और उनके विचार(जो प्रश्नोत्तर आदि के क्रम में आए)। ३- अशोक वाजपेयी की बातों पर कुछ अपनी बात(खास करके कविता, गुणवत्ता और लोकप्रियता से ताल्लुक)। फिलहाल यह पहला हिस्सा प्रस्तुत है: 

कार्यक्रम निर्धारित समय से कुछ विलंब से शुरू हुआ। संचालन सईद साहिब कर रहे थे। उन्होंने शुरुआत में अरुण जी को कविता पढ़ने के लिये आमंत्रित किया। अरुण जी ने इस तरह अपनी कविताएँ और बातें रखी: (बीच बीच में ईडिट कर कुछ ‘बातें’ भी सिंगल इन्वर्टेड  कॉमा  के साथ रख रहा हूँ) 

‘जे.एन.यू. में पढ़ा हूँ, यहाँ से बहुत कुछ सीखा है, यहाँ आना और कविता सुनाना घर में आने जैसा है। आँगन में आने पर जैसा लगता है! यह आप लोगों का स्नेह है जो आपने इतना मान दिया। कुछ कविताएँ सुना रहा हूँ, कि जिससे कवि का भावबोध आ जाय! पहिली कविता जो आपको सुनाना चाहता हूँ उसका शीर्षक है ‘लालटेन’।’ 

“अभी भी वह बची है
इसी धरती पर

अँधेरे के पास विनम्र बैठी
बतिया रही हो धीरे–धीरे

सयंम की आग में जैसे कोई युवा भिक्षुणी

कांच के पीछे उसकी लौ मुस्काती
बाहर हँसता रहता उसका प्रकाश
जरूरत भर की नैतिकता से बंधा

ओस की बूंदों में जैसे चमक रहा हो
नक्षत्रों से झरता आलोक

अक्सर अँधेरे को अँधेरे के बाहर कहा गया
अँधेरे का सम्मान कोई लालटेन से सीखे
अगर मंद न कर दिया जाए उसे थोड़ी देर में
वह ढक लेती खुद को अपनी ही राख से

सिर्फ चाहने भर से वह रौशन न होती
थोड़ी तैयारी है उसकी
शाम से ही संवरती
भौंए तराशी जातीं
धुल-पुछ कर साफ होना होता है
कि तन में मन भी चमके

और जब तक दोनों में एका न हो
उजाला हँसता नहीं
कुछ घुटता है और चिनक जाता है कहीं
भभक कर बुझ जाती है लौ!” 

इसके बाद उन्होंने ‘शास्त्रार्थ’ , ‘अयोध्या’ , ‘पत्नी के लिए’ ‘सिरहाने मीर के’ आदि कविताएँ सुनायी। ‘पत्नी के लिये’ कविता पर उनका कहना रहा कि यह फेसबुक पर बड़ी विवादास्पद कविता रही है। इस कविता को यहाँ रखना चाहूँगा: 

“वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा 

तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को 

बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज

तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम

कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में 

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ

तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा!” 

अरुण जी के उपरांत सुमन केसरी जी को काव्यपाठ के लिये आमंत्रित किया गया जिनके संदर्भ में सईद साहिब ने कहा कि ‘सुमन जी की कविताओं को केदार नाथ सिंह जी संवादधर्मी गंभीर कविता कहते हैं।’ सुमन जी ने कहा: 

‘कवितापाठ पहले किया है लेकिन आज आप लोगों के बीच हूँ तो जैसे पहली बार पढ़ने जैसा हो। मेरी मनोकामना थी कि कभी अशोक वाजपेयी जी के समक्ष कविता पढ़ूं, आज बड़ा अच्छा लग रहा है कि इतने सारे कवि नैजवान के साथ पढ़ रही हूँ। जैसा कि बताया गया कि मैं मिथकों-पौराणिक चरित्रों पर कविताएँ लिखती हूँ, उन चरित्रों को आज की दृष्टि से देखती हूँ, लेकिन मैं ऐसा भी नहीं कर सकती कि वे अपनी भूमि से अलग हो जाएँ। उनके मूल को देखते हुये उनके विकास की कल्पना करती हूँ, इस तरह से मैं अपने मिथकीय चरित्रों को उठाती हूँ। पहले मैं आपको ‘स्त्री होकर सवाल करती है’ संग्रह की कविता ‘दौपदी’ को पढ़ती हूँ कि मुझे लगता है कि पूरे संग्रह के शीर्षक में इसकी थोड़ी सी अनुगूँज है।’ 

इस कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं: 

“ क्या परिचय दूं मैं अपना 
दौपदी... पांचाली... कृष्णा... याज्ञसेनी... 
सभी संज्ञाएँ वस्तुतः विशेषण हैं या संबंधसूचक 
कभी गौर किया है तुमने 
मेरा कोई नाम नहीं।” 

सुमन जी ने फिर ‘कृष्णा’ कविता सुनायी: 

“मैं पांचाली-पुंश्चली
आज स्वयं को कृष्णा कहती हूँ
डंके की चोट !

मुझे कभी न भूलेगी कुरुसभा की अपनी कातर पुकार
और तुम्हारी उत्कंठा
मुझे आवृत्त कर लेने की

ओह! वे क्षण
बदल गई मैं
सुनो कृष्ण ! मैंने तुम्हीं से प्रेम किया है
दोस्ती की है

तुमने कहा-
“अर्जुन मेरा मित्र, मेरा हमरूप, मेरा भक्त है
तुम इसकी हो जाओ
मैं उसकी हो गई”

तुमने कहा-
“माँ ने बाट दिया है तुमको अपने पाँचों बेटो के बीच
तुम बँट जाओ
मैं बँट गई

तुमने कहा-
सुभद्रा अर्जुन प्रिया है
स्वीकार लो उसे
और मैंने उसे स्वीकार लिया

प्रिय ! यह सब इसलिए
कि तुम मेरे सखा हो
और प्रेम में तो यह होता ही है !

सब कहते हैं-
अर्जुन के मोह ने
हिमदंश दिया मुझे
किन्तु मैं जानती हूँ
कि तुम्हीं ने रोक लिए थे मेरे क़दम
मैं आज भी वहीं पड़ी हूँ, प्रिय
मुझे केवल तुम्हारी वंशी की तान
सुनाई पड़ती है
अनहद नाद-सी ।” 

इनकी कविता ‘बा और बापू’ इस तरह रही: 

“चलते चलते आख़िर थक ही गई
इशारे भर से रोक लिया उसे भी
उस ढलती शाम को
जो जाने कब से तो चल रहा था
प्रश्नो की कँटीली राह पर
नंगे पाँव

नियम तोड़ रुक गया वह
भीग गई आत्मा
लहलहाई
कोरों पर चमकी
यह जानते हुए भी
कि देह भर रुकी है उसकी
शय्या के पास
मन तो भटक ही रहा है
किरिच भरी राहों पर
उन प्रश्नों के समाधान ढ़ूँढ़ता
जो अब तक पूछे ही न गए थे...” 

सुमन जी का रचना-कर्म महज स्त्री-विमर्श की हदों में बंधा नहीं है, उन्होंने कविता के अलग रूप-रंग भी दिखाया। 

इसके उपरांत दोनों कवियों पर अशोक वाजपेयी जी ने अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की। अशोक जी ने कहा: 

‘‘मित्रों! कविताओं को सुनना और उसके बाद उसपर टिप्पणी करना कोई उत्साहजनक कार्यवाही नहीं है। .. मैं दो-तीन बातें कहना चाहता हूँ। एक तो यह सही है कि हमारी ज्यादातर कविता पढ़ी जाने के लिये लिखी गयी है। वह सुनाने के लिये नहीं लिखी गयी है। एक जमाना था जब सुनाने के लिये लिखी जाती थी। लेकिन अब बुनियादी संस्कार में फर्क आया है। जब हम किसी कवि से कविता सुनते हैं तो दूसरा फर्क पड़ता है, उसकी उपस्थिति का फर्क पड़ता है। उसके बलाघात का फर्क पड़ता है। जिसे हम पढ़ते समय नहीं देख पाते। तो..! 

दोनों अपने-अपने ढ़ंग के अलग-अलग रंग के कवि हैं। दोनों में एक बात समान है। जिसका जिक्र सुमन जी ने किया है। कि हमें हिन्दी समाज में व्याप्ति लाना है तो उसकी एक जातीय स्मृति होती है। उस जातीय स्मृति का संबंध मिथक पुराण या इतिहास ग्रंथ से ही नहीं है, हर भाषा की एक जातीय स्मृति होती है। वह कवि का लोक होता है। कविता का एक काम हमको भूलने से रोकना है। कविता का दूसरा काम वो है जिसे हम अधीरता में, जल्दबाजी में, - हालाकि मैं नहीं समझ पाता कि लोगों को इतनी जल्दबाजी काहे की है – नहीं ध्यान देते, ठहराव लाना है। इस अनावश्यक-अनर्थक तेजी के बीच कविता का एक काम ठिठकाना है। वह रूपों, बिंबों, प्रतीकों, शब्दों से ठिठकाती है। 

कविता प्रत्याशित को – जैसे सबको पता है कि ऐसा हुआ, ऐसा होना है – अप्रत्याशित में बदलती है। मसलन सुमन जी की कविता में दौपदी कृष्ण से अपने प्रेम को स्वीकार करती है। ऐसे ही पहले भी महाभारत के चरित्र के साथ उड़िया के साहित्यकार ने प्रयोग किया है। दृष्य है कि कर्ण से मिलने द्रौपदी जाती है, तब जब वह वहां जाती है तो पहले भीष्म पितामह का शिविर पड़ता है, अब वह जायेगी तो जूते कहां रखेगी, यहां पर कृष्ण ने कहा कि तुम जाओ मैं तुम्हारे जूते की रखवाली करता हूं। अब यह अप्रत्याशित है। महाभारत ने इसे नहीं कहा लेकिन आगे के कवियों को महाभारत ने इसे कहने से रोका भी नहीं। महाकाव्य वह है जो आगे आने वाले कवियों को भी पूरी छूट देता है, मुक्ति देता है। महाकाव्य बाइबिल-कुरान-वेद नहीं है, जिसमें आप फेर-बदल न कर सकें। इसलिये धर्मग्रंथ पूज्य होते हुये भी इस अर्थ में कविता नहीं होते। अरुण जी की ‘लालटेन’ कविता सुनते हुये दो बातें याद आयीं। एक लालटेन पर एक लंबी कविता विष्णु खरे की है। एक दूसरी ‘पहाड़ पर लालटेन’ मंगलेश डबराल की। लेकिन इन्होंने जैसे लालटेन को देखा वैसा हम लोगों में से कितनों ने देखा है! अब तो लालटेन भी कितने देखते हैं! किसे याद है कि एक जमाने में हम अंग्रेजी के शब्द को पालतू बनाने के लिये उसके साथ क्या कर सकते थे। ‘लैटर्न’ को हमने लालटेन में बदल दिया। किसको अब लैटर्न-लालटेन याद! रेणु की कहानियों में दिखे, या कहीं फिर और.. 

एक और बात यह लगी कि सुमन जी की कविताओं में पौराणिक चरित्र बहुत सारे आये हैं और मेरी यह धारणा है कि चरित्रों से अपने आप कविता पैदा होती है। आप कुछ न कहें। कविता अपने आप आ जायेगी, ये सब चरित्र भी तो कविताजन्य चरित्र हैं। कविता ने इन्हें इतनी सघनता एवं जटिलता से रचा कि जो सचमुच ऐतिहासिक चरित्र रहे होंगे, उनसे ज्यादा सच हो गये! जैसे इन्होंने मीर का चरित्र लिया, अयोध्या पर अपनी बात कही। अयोध्या पर आम तौर पर जो कविता लिखते हैं, बहुत बने बनाये ढ़ंग से, जैसे हमारे मित्र कुंवरनाराण ने अयोध्या पर एक खराब सी कविता लिख दी है, ‘अब के जंगल वे जंगल नहीं रहे..’ ऐसे ही। अरुण की अयोध्या कविता में जो बेगम अख्तर आती है..आखिर वो कौन अयोध्या है जो बनी थी और वह कैसे खंडित हुई! यह ज्यादा  मार्मिक बात है। इनकी, जैसे मीर वाली कविता है, मुझे लग रहा है कि अब कविता में नास्टेल्जिया वापस आ रहा है, यह अच्छी बात है। अब समय में इतनी व्यस्तता की हम तुम्हे ऐसा बना देंगे कि तुम दुख देखने की भी फुरसत न रखोगे, भूल जाओ कि क्या है! कविता का एक काम जब सब लोग बहुत सुखी दिखाई दे रहे हों, सफल दिखाई दे रहे हों, तब वह दूसरी ओर ध्यान दिलाये! कई बार विफलता अधिक सार्थक होती है, सफलता की तुलना में। कई बार मैने कहा है कि हिन्दी के दो बड़े कवि बहुत विफल कवि रहे हैं, मुक्तिबोध और शमशेर। वह अज्ञेय की तरह सफल कवि नहीं हैं। उनमें संप्रेषण की बहुत कठिनाइयां हैं! इसी वजह से उनकी सार्थकता है। बहरहाल..! 

मुझे यह लगा कि सुमन जी की कविता में कभी कभी ज्यादा विश्लेषणपरकता आ जाती है। अरुण जी की कविता में यह कम है। कविता स्वयं में विश्लेषण हो, कविता का काम संश्लेषण है न कि विश्लेषण। बहुत ऐसे ऊबड़-खाबड़ तत्वों को आपस में मिला देना और उनसे एक नया रचाव पैदा करना। यह अप्रत्याशित भी हो सकता है। अक्सर अप्रत्याशित होता है। ..” 

.. जारी। (अगले अंक में अशोक वाजपेयी की कविताएँ एवं उनके बिचार)