रविवार, 13 अक्तूबर 2019

पल्ला झाड़ने से बेहतर है कि आत्मसमीक्षा करें


PC - Praveen Khanna 

सनाउल हक़ के मारे जाने की पुष्टि अफगानी स्रोत एनडीएस से हुई है। परसों। वह अफगान सरकार और अमेरिका की संयुक्त आतंकवाद विरोधी लड़ाई में मारा गया। यह आतंकी अलक़ायदा की भारतीय(उपमहाद्वीपीय) कार्रवाई का सर्वेसर्वा था। यह 2014 में अलकायदा प्रमुख अल जवाहिरी द्वारा एक्यूआईएस कर्ताधर्ता बनाया गया। उस समय इसका नाम जो चनल में था, वह था - मौलाना आसिम उमर। 2015 में इसके दो-तीन भारतीय दहशतगर्द संपर्कों को भी पकड़ा गया था। यकीनन इसके मारे जाने से भारत में होने वाली दहशतगर्द कार्रवाइयों को संचालित करने वाले एक शैतान का खात्मा हुआ।

सनाउल सम्भल, उत्तर प्रदेश के दीपा सराय नामक जगह का रहने वाला था। नब्बे के दशक में इसे जिहादी जूनून चढ़ा, अपने घर से अनबन हुई, और सऊदी व पाकिस्तान से होते हुए अफगानी दहशतगर्द इलाकों में सक्रिय हो गया। यह भारत के दारुल उलूम देवबंद में पढ़ा था। पाकिस्तान जाने के बाद वहाँ के दारुल उलूम में पढ़ाई की। उसी जगह से जहां से मौलाना अजहर मसूद जैसे अनेक दहशतगर्द निकले। सना केवल बन्दूक से ही नहीं, लिखने-पढ़ने के स्तर पर भी जेहादी सोच को आगे बढ़ा रहा था। उसने इसके लिए किताबें भी लिखीं। पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर आसिम उमर (यानी सनाउल हक़) से अपनी मुलाकात का जिक्र करते हुए बताते हैं कि उसने अपनी किताब उन्हें भेंट की जो अभी भी उनके पास है।

काफिर खात्मे के साथ-साथ सना का लक्ष्य था कि कितनी जल्दी डेमोक्रेसी ख़त्म हो। लोकतंत्र का अंत हर आतंकी सोच का लक्ष्य होता है। वह कहता था कि डेमोक्रेसी ईविल है, इसके चारों खम्भों को तोड़ना जरूरी है। इस काम में यह आख़िरी सांस तक लगा रहा। मजहबी दहशतगर्दी और गैर-मजहबी दहशतगर्दी को क्या एक तराजू पर तौला जा सकता है। अवश्य नहीं। यह विचारधाराई दहशतगर्दी है। जिसमें कई शताब्दियों की चेतना और अवचेतना काम करती है। इसमें संस्थान-बद्धता भी होती है। इससे साफ़-साफ़ और दोटूक होकर भिड़ना चाहिए। नहीं तो सनाउल हक़ भले मरे, उसकी सोच और उसे ईंधन देने वाली मानसिक व्यवस्था नहीं ख़त्म होने वाली।

यह मानसिक व्यवस्था बनाने में दारुल उलूम देवबंद जैसे इदारों की क्या कोई भूमिका नहीं है! दारुल उलूम देवबंद को अपनी समीक्षा करनी चाहिए। लेकिन ऐसा करने के बजाय वह एक चालाक कोशिश करते दिखता है। सना के सम्बन्ध में कौन सी चालाक कोशिश? यही कि सना के घर वाले उसे दारुल उलूम से स्नातक बताते हैं जबकि दारुल उलूम इससे इंकार करता है। दारुल उलूम कहता है कि उसके यहां किसी भी रिकार्ड में सनाउल हक़ नहीं है। यही पल्ला झाड़ना है। ऐसा ही दूसरे मौकों पर भी करता है। जैसे नुसरत जहां वाले केस में देखिये। पहले वहीं का एक मौलाना नुसरत पर फतवा देता है और फिर जब मीडिया में बात उछलती है तो वहीं का कोई दूसरा मौलाना कहता है कि इससे उनका कोई वास्ता नहीं, उस मौलाना की वह निजी राय होगी।

कुछ महीने पहले 'द वायर' पर नेता और इस्लामी अध्येता आरिफ मोहम्मद खान और पत्रकार आरिफा खानम शेरवानी की बातचीत पेश हुई थी। इस बातचीत में आरिफ मोहम्मद खान, जो फिलवक्त केरल के राज्यपाल हैं, दारुल उलूम देवबंद के बारे में बताते हैं कि वह किस तरह मुस्लिम तालिबे-इल्म में दूसरे मजहबों से दूरी, घृणा, आक्रामकता और अपनी दीनी श्रेष्ठता सिखाते हैं जो हर विद्यार्थी में गलत मानसिक व्यवस्था बनाती है। खान साहब की चिंता यह भी है कि इसी तालीम से पढ़े देवबंदी मौलानों की अक्सरियत मस्जिदों के मिंबरों पर काबिज है। जाहिर है, गलत और हानिकारक मानसिक सोच इस तरह फैल रही है।

इन बातों के मद्देनजर क्या दारुल उलूम देवबंद को चेतना नहीं चाहिए? अपनी पढ़ाई-लिखाई पर विचार नहीं करना चाहिए? इस तरह की कट्टर सोच निरंतर आगे बढ़ती रही तो क्या वह दूसरे मजहबों में कट्टरता की सोच का तर्क नहीं पैदा करेगी? दारुल उलूम देवबंद को डेढ़ सौ साल से अधिक हुए तालीम का ठिकाना बने हुए, जिसका इतिहास मुस्लिम लीग और आरएसएस से भी पुराना है, क्या उसे अपनी इदाराई भूमिका की आत्मसमीक्षा नहीं करनी चाहिए? स्पष्ट है कि किसी चालाक कोशिश से, या अपना पल्ला झाड़ने से, यह मुमकिन नहीं। नहीं तो मजहबी कट्टरता, और कट्टरता की मजहबी जुगलबंदी, को बल मिलता रहेगा। इससे आधुनिकता, लोकतंत्र और सामाजिक सौहार्द को खतरा लगातार पहुंचता रहेगा।

-- अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी

(तस्वीर प्रवीण खन्ना की खींची है जिसमें स्क्रीन पर आसिम उमर है और कुर्सी पर बैठे, बात करते हुए, उसका भाई रिज़वान हैं।)

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