बुधवार, 8 जून 2011

...... फिर याद आये ! ( कंठ : शोभा गुर्टू )

'' कदम कदम पे जिस दुनिया को छोड़ आया हूँ 
वो सरजमीने-तमन्ना मैं किस तरह भूलूँ ! '' [ शायर का नाम नहीं याद आ रहा :( ]
प्रस्तुत है शोभा गुर्टू की आवाज में ठुमरी ( मिस्र शिवरंजिनी ) ' ..... फिर याद आये ! ' 




9 टिप्‍पणियां:

  1. चैन नहीं फिर भी आनन्द है! संगीत में विरोधाभास कैसे छिपता है यह महसूस कर आश्चर्य होता है।

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  2. बड़ी कशिश है ...कोई किसी को याद कर रहा /रही है !

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  3. (टीवी पर ढ़िक-चिका, ढ़िक-चिका पर बारह महीनों में बारह तरीक़ों से प्यार चल रहा था, कि तभी आपकी इस पोस्ट पर नज़र पड़ी। टीवी को म्यूट कर इसे दो बार सुनने के बाद टिप्पणी लिखने बैठा हूं।)

    *** बहुत सुंदर!!

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  4. सुर और साज दोनों लाजवाब !

    आपका चयन हमेशा बेहतरीन होता है,आज की पीढ़ी को समझने में ज़रूर मुश्किल होगी !

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  5. इतना मधुर गीत सुनवाने का शुक्रिया

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  6. विरह के भी अपने रंग हैं....विद्यापति याद आ गये....मोहन मधुपुर गेल रे मोरा बिहरत छाती...

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  7. दो टिप्पणियाँ दूसरी जगहों से आयीं, बड़ी मोहक लगीं, उन्हें यहाँ रख दे रहा हूँ:

    Swami Analanand >> “ शोभा गुर्टू जी की आवाज़ में ठुमरी आलोक के अनंत को उदघाटित करती सी लगी | आलोक के अनंत का उदघाटन जैसी स्थिति को धार्मिक-आध्यात्मिक अनुभव की केन्द्रीय अंतर्वस्तु के रूप में भी देखा/पहचाना जाता है | लिहाज़ा यह उदघाटन यदि मुझे शोभा जी की आवाज़ में भी महसूस हुआ तो मैं समझता हूँ कि इसका कारण यही है कि उस उदघाटन का आलम्बन कोई वैयक्तिक ईश्वर है या कोई निर्वैयक्तिक सत्ता अथवा संपूर्णतः भौतिक जगत के अंतर्भूत एकत्व का बोध - इससे अनुभूति की गहराई में कोई फ़र्क नहीं पड़ता यदि वह कलाकार की अनुभूति है |”

    और..

    Mahesh Mishra Maral >> “ जी निस्संदेह ! यदि किसी अपुनरावर्ती स्थिति तक जा सकें तो..शोभा जी के गायन में अनायास उभरते स्वर कई बार देश-कालातीत करते से प्रतीत होते हैं | कदाचित इन्ही स्थितियों को लक्ष्य कर कहा गया है - "तालज्ञः अप्रयासेन वैकुण्ठमधिगच्छति" और फिर रस-दशा की अनिर्वचनीय स्थिति में आलम्बनादि का बोध कहाँ शेष रहता है | वस्तुतः यह जो यात्रा है -'अनुखन माधव-माधव सुमिरत सुन्दरि भेलि मधाई' की इसमें 'सुन्दरि' और 'मधाई' के बीच कोई चिह्नित विभाजक रेखा नहीं है, यह विलय की धीमी और सम्मोहक सी प्रक्रिया है 'अनुभवैकगम्य'....उद्घाटित आलोक में आलोक के सिवा और कुछ होता भी तो नहीं..आदित्यवर्णं तमस: परस्तात....”

    विद्वान-द्वय को आभार!!

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  8. फिर याद आये ..ठुमरी /गायन कमाल का और भावना को गहराई से से उद्घाटित करती हुवी.. कमाल

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