शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

बलेसर की याद में ..

मेरी मातृभाषा अवधी है पर दो भोजपुरी गायक ऐसे हैं जो भोजपुरी भाषा के बाहर अवधी क्षेत्र में भी खासे लोकप्रिय रहे . पहली शारदा सिन्हा और दूसरे बलेसर . बलेसर के दिवंगत होने की दुखद जानकारी मुझे इसी महीने की १० तारीख को भोजपुरी साईट के माध्यम से मिली . बहुत कुछ इस साथ खिंचता हुआ दिखा , एक पूरा अनोखा दौर ! शारदा सिन्हा का गायन बहुत कसा है जिसपर कोई चूं नहीं बोल सकता वहीं बलेसर अपने खुलेपन , जो कि लोक का यथार्थ है , को लेकर विवादित रहे . यह प्रविष्टि बलेसर की याद में ..
बलेसर ? : बालेश्वर यादव उर्फ़ 'बलेसर' १९४२ में मऊ जिले के बदनपुर गाँव में जन्मे थे . शिक्षा-दीक्षा भी बहुत अधिक न थी , कमोबेश मिडिल क्लास तक ही . गायन का एक चाव ही था जो उन्हें बलेसर बना गया . लोक के निजी ढंग के अपने गायक थे इसलिए स्वयं में गुरुवई भी की होगी , कोई शास्त्रीय अनुशासन का क्षेत्र तो था नहीं . जनता की भाषा में गाते रहे . एक लोकगायक के तौर पर जितना खुशी दे सकते थे , अंत तक देते रहे . उनकी भी बात सुनी जो कहते थे 'बलेसर मुंहफुकना रे सजनी' , पर अपना काम करते रहे . उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें यश भारती सम्मान से सम्मानित किया . इसी माह की ९ तारीख को लखनऊ में इन्होंने अंतिम सांस ली . 
भाषा में परिवर्तनशीलता :  इतना तो याद है कि जब भी हमारे आसपास बलेसर का आर्केस्ट्रा हुआ , कोसों दूर दूर से लोग इकट्ठा होते और जिउ छोड़ के कार्यक्रम सुनते . रइ-रइ-रइ-रइ .. की उनकी ख़ास स्टाइल को लोग काफी समय तक जीभ पर स्वाद की तरह फिराते रहते , बात बात में उनके गानों की पंक्तियाँ आती रहतीं . रेंज का क्या कहें , बच्चों , जवानों से लेकर बूढों तक . दुआरे के चबैना से चौराहे की चाय तक . बलेसर इस दृष्टि से शारदा सिन्हा से ज्यादा व्यापे , यद्यपि शुद्धतावादियों से दुत्कारे गए . पर बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दशक तक की नौटंकी प्रेमी पब्लिक ने बलेसर को खूब गले लगाया/गाया . बलेसर अवधी और भोजपुरी के बीच पुरबिया बयार बहाते रहे , सेतु की तरह , जिसमें आप आरा-छपरा-मोतीहारी वाली भोजपुरी नहीं पायेंगे , उनमें आजमगढ़-जौनपुर-अम्बेडकरनगर वाली भोजपुरी मिलेगी . इनमें शारदा सिन्हा वाला भोजपुरी विन्यास नहीं है . बलेसर फैजाबाद-गोंडा-बस्ती-बहराइच-सुल्तानपुर .. आदि अवधी जिलों में खूब सराहे गए , स्वीकारे गए . इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि बलेसर को रेडियो प्रस्तुतियों के लिए आकाशवाणी लखनऊ की ओर रुख करना पड़ा जहां अवधी की पूरी छाप है . भाषा भोजपुरी रही और कर्मभूमि के लिए अवध से ताल्लुक भी  . यद्यपि लोक के खुलेपन को वैसे ही रखते थे पर भाषा की दृष्टि से बलेसर परिवर्तनशील थे . यह भी देखा जा सकता है कि भाषा के विविध ट्रेंड को वे बड़े खांचे से पकड़ते थे . इसका एक प्रमाण यह भी है कि उनके कुछ गानों में खड़ी बोली का वाक्य विन्यास दिखेगा . भोजपुरी का 'चाहीं' , 'चाहिए' में बड़े आराम से बदलता दिखेगा आपको .
विषय-शैली : बलेसर अपनी शैली के गायक हैं , 'बिरहा' का उनका अपना अंदाज है .  कठिन है उनके पूर्वज की पहचान . संभवतः यह उनकी प्रयत्नसाध्य शैली है , रइ-रइ-रइ-रइ .. की तरह . लोक का यह गायक किसी शास्त्रीय घराने का मुखापेक्षी नहीं रहा . रोपनी-दौनी-लगौनी-निरवाही-झूमर-नकटा-कहरवा ने ही लोक-जिह्वा को चलना सिखाया होगा . आगे उनकी अपनी लगन , परिवेश द्वारा दिए गए अनुभव तो आने ही थे . इसलिए उनके यहाँ सामाजिक असमानता पर व्यंग्य भी मिलेगा . नेताओं , पुलिस , नई घट रही सामाजिक घटनाओं पर प्रतिक्रियाएं भी दिखेंगी - ' दलबदलू का कोई भरोसा नहीं ' / 'डाकू गुंडा का थोड़ा भरोसा करो , पुलिस वालों का कोई भरोसा नहीं' . लोक की गेय-परम्परा में चले आये विषय भी मिलेंगे जैसे बिरहन की दशा का चित्रण , मौसमों के असर पर गीतों की योजना , सूक्तियों को लेकर रचे गए गाने .. आदि आदि . उनमें लोक-सुलभ खुलापन रहा जिसको लेकर श्लीलता-प्रेमियों की नाक-भौं जहां तहां सिकुड़ती रही .
श्लीलता/अश्लीलता : बलेसर पर अश्लीलता के आरोप लगते रहे . ये आरोप शुद्धतावादी मनोवृत्ति की पैदावार ही कहे जायेंगे . लोक-सुलभ खुलेपन को बलेसर अपने गानों में रख रहे थे जो अश्लील कह कर नहीं खारिज किया जा सकता , इस बिना पर उनकी  भोजपुरी की सेवा करने के अवदान को अनदेखा नहीं कर सकते . कुछ लोग ऐसा कहते पाए जाते हैं कि भोजपुरी में अश्लीलता की शुरुआत बलेसर से हुई जैसे कि अश्लीलता बलेसर की निजी संपत्ति थी जिसे वे मुफ्त में छीट दिए हों . ऐसा कहने वालों को देखना चाहिए कि वे शब्द लोक के हैं , वे प्रयोग लोक के हैं , वे बिम्ब लोक के हैं और लोक में जाने कब से चले आ रहे हैं , लोक इनसे अछूता कब रहा ? और जो है उसे उन्होंने गाया तो इसमें अश्लील जैसा कहाँ से आ गया ! यह खुलापन बलेसर के गीतों का एक स्वर है इसके अतिरिक्त भी कई स्वर हैं और पुष्ट रूप में हैं जोकि इस स्वर विशेष से कहीं दबे हुए नहीं दीखते . शुद्धतावादी ऐसे ही तर्क काशीनाथ सिंह की 'काशी का अस्सी' की भाषा पर भी देते हैं . यह सीमा शुद्धतावादियों की है न कि इन फनकारों की , जोकि एक प्रभु मानसिकता के साथ इस यथार्थ को बरबस अनदेखा करते हैं . श्लील/अश्लील के इस विभाजन से आस्वाद ही बंटता है , एक अनपेक्षित दूरी पैदा होती है . बहुत कुछ तो व्याख्या का फेर है , आदिवासियों की संस्कृति में उन्हें नंगई दिखती है और 'नग्नता' नापने के उनके निजी पैमाने होते हैं . अकारण नहीं है कि तथाकथित शिष्ट शास्त्रीय विवेचन में ग्राम्यता को एक 'दोष' माना गया है . नागर नार को ग्राम्य-नार ( गंवार-नार ) से ज्यादा पसंद किया जाता है . इस तरह अधिकतर श्लीलता/अश्लीलता के पीछे किसी प्रभु विचारधारा/संस्कृति की स्वेच्छाचारी व्याख्या भी होती है . बलेसर को अश्लील गायक कहना एक सभ्य(?) किस्म का दुराग्रह ही कहा जाएगा . कुछ शुद्धतावादियों को 'पिपली लाइव' जैसी फिल्मों की यथार्थ जगत की भाषा भी नहीं पच रही !
    कुछ लोग 'मुन्नी बदनाम हुई' या 'निरहुआ' आदि गायकों की तुलना में बलेसर का बचाव करते हुए दिखते हैं . इस तरह की विवेचन-वृत्ति अनुपयोगी लगती है . बलेसर की विशिष्टता में महज अश्लील जैसा नहीं है , उनमें तमाम स्वर हैं और तथाकथित अश्लील एक अकुंठ लौकिक स्वर है . निरहू आदि फ़िल्मी चाल पर गाने रचते/गाते दिखेंगे , जैसे आज के भक्ति गीत भी उस ट्रेंड पर बनते हैं , इनका पथ बलेसर का मौलिक पथ नहीं है . जहां तक मैंने बलेसर को सुना है ( सुनने की सीमा के साथ कह रहा हूँ ) उनके प्रयोग सिनेमाई चाल की नक़ल करते हुए नहीं दिखे . यह भी एक वजह हो सकती है कि वे अपने दौर में लोक-रूचि में फ़िल्मी गीतों के समान्तर एक विकल्प सा बने रहे .
    एक श्रोता के तौर पर लोक गायकों का गायन मुझे ज्यादा लुभाता है जिसमें अकृत्रिम साफगोई दिखेगी , सहज संगीत दिखेगा , सीधे भाव दिखेंगे , सहज तृप्ति मिलेगी . ये सारी चीजें बलेसर के गायन में मुझे मिलती हैं . एक विशिष्ट दौर तक भोजपुरी का परचम देश-विदेश तक बुलंद रखने के अप्रितिम योगदान के लिए बलेसर सदैव याद किये जायेंगे !   
-------------------(चित्र:साभार गूगल)------------------------ 
जाते जाते बलेसर का यह गाना आपके सामने है - ' दुनिया वाले हमके कहेला बिहारी मितवा ' ! गाने के अंत में चंद्रलोक तक भोजपुरी पहुचाने का जीवट सराहनीय है !
                  
अपडेट : आज संयोग से वह स्क्रीन शॉट मिला, जिसे गिरिजेश जी के सौजन्य से लगाना सम्भव हो पा रहा है (क्योंकि इस स्क्रीन शॉट को उन्होंने ही ई-मेल भेजा था)। बलेसर जी पर लिखे मेरे उक्त लेख की चर्चा प्रिय पत्रकार रवीश कुमार जी ने हिन्दुस्तान अखबार में की थी। दिनांक १९\१\२०११ को। यह रही चर्चा (इस स्क्रीन शॉट पर क्लिक करके बड़ा करके आप पढ़ सकते हैं):

29 टिप्‍पणियां:

  1. बलेसर जी से मिलवाने के लिए आपका आभार

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  2. कुछ गीत सुने थे पर जाना पहली बार।

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  3. बलेसर जी के बारे में विस्तृत जानकारी मिली।
    उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

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  4. सार्थक आलेख...

    दुनिया वाले हमके कहेला बिहारी मितवा...
    बहुत अच्छा गीत है...

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  5. बलेसर को बचपन में खूब सुना. मेरे पिताजी भी उनकी प्रशंसा इसी बात के लिए करते थे कि उन्होंने गैरफिल्मी लोक-संगीत को लोकप्रिय बनाया, हालांकि आलोचना भी करते थे. चौपाल कार्यक्रम में प्रस्तुत उनके गीत अश्लील नहीं होते थे, कम से कम मुझे तो कभी नहीं लगे.
    आपकी इस बात से सहमत हूँ कि बलेसर की खूबी उनकी मौलिकता थी.

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  6. हमने बलेसर को नहीं सुना। उनका नाम जानते भर थे। पिछले कुछ दिनों में उन पर जो कुछ लिखा गया उसी से पता चला कि उनकी महिमा क्या थी।

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  7. .
    .
    .
    बलेसर के बारे में कई लोगों से सुना था... आज आपके आलेख से उनके महत्व को जाना...
    उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।


    ...

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  8. बलेसर जी के बारे में जानकारी मिली।
    उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि

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  9. वाह रे बलेसर गाड़ दिया भोजपुरी झंडा चाँद पर ....
    श्रद्धांजलि

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  10. अमरेन्द्र भाई, नवाजिश करम शुक्रिया मेहरबानी इस पोस्ट के लिये। बलेसर हमारे इलाके {मिथिलांचल} में भी खासे लोकप्रिय थे। लोग कुछ भी तोहमत लगाते रहे उनपर अश्लीलता और वगैरह-वगैरह के....हम तो अब भी जब-तब "मारे रे बलेसरा के तका धिन धक्का" पर ठुमके लगा लेते हैं। जब भी मैं छुट्टियों में दोस्तों के संग बलेसर की कैसेट को फुल वौल्युम पर सुनता हूँ। हमारी माताश्री नाक-भौं सिकोड़ती रह्ती हैं। कहाँ मैथिली की नजाकत और कहाँ बलेसर का ठेठपन....लेकिन हम उस नजाकत में इस ठेठपन की जगह बना ही लेते थे...हैं।

    संग्रहणीय पोस्ट अपने प्रिय गवैये को लेकर। उन्हें श्रद्धांजलि और मन कर रहा है कि जोर-जोर से गाऊँ..."माल कच-कच्चा बनी है गोल-गप्पा" !

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  11. bachpan me unke gaye geet samaj me bahutere sune the....aapne unke bare
    kafi jankari di...aur khud apni moulik post ke sakriye hue.....anandam....anandam.

    sadar

    @col. g.r....
    bhai apka 'nanihal' kahan hai....hum apke nanihal se hain....aisa apne kahin kaha tha...socha pooch loon...


    pranam.

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  12. नाम तो हमने भी खूब सुना है ! आपने कहा कि जाते जाते बलेसर का ये गाना आपके सामने है पर वो गाना हमें दिखाई नहीं दी रहा ! पता नहीं क्या समस्या है ?

    क्या उनके गाने सुनवाए जा सकते हैं ?

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  13. जियत रहीं अमरेन्द्र जी. बिरहा में विरह और बिरही (व्यंग्य) दोनों का समावेश है. बलेसर के गानों में जो भदेस है उसे प्रायः अश्लीलता के दायरे में रखा गया पर वह भदेस ही उनका USP है. भदेस और देशज कभी-कभी पर्यायवाची भी होते हैं. एक ज़माना वह भी था कि हम लोग बलेसर का बिरहा बुजुर्गों कि उपस्थिति में सुनने से डरते थे. लोकगीतों के जातिगत विभाजन में बिरहा और लोरकी आभीरों के खित्ते में गिने गए हैं , बिरहा के बड़े नाम आये भी इसी जाति से हैं.

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  14. मेरी पोस्ट पर आकार उत्साहवर्धन के लिये आपका आभार...बलेसर जी पर आपकी ये पोस्ट बहुत ही विश्लेषित और सार गर्भित है. बहुत ही सुंदर विवेचन किया है आपने बालेसर जी के गानों का . सच बलेसर जी के रूप में एक बहुत ही बड़ी क्षति हुई है. उनको नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि.

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  15. बलेसर जी के बारें जानकारी बिल्कुल नहीं थी मुझे। यह लेख पढ़कर जाना उनके बारे में।

    अच्छा लिखा है। बलेसर जी को विनम्र श्रद्धांजलि!

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  16. baleshar ji ki gayaki 3 dimensional hai .ab jisko jo dimension dikhe ,wo use hi such mane .great loss.

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  17. आप प्रसंशा के पात्र हैं... मैं उन्हें जानता थक नहीं था, ना ही नाम सुना था ना ही कभी गायन सुना था.. दो दिन से मुक्ति और आपको उनपर बोलता/लिखता (बोलती/लिखती) देखा तो दिलचस्पी जगी.. यहाँ जो गीत आपने लगाया है वो सुन कर मज़ा आ गया.. अफ़सोस की मैं उन्हें देर से जान पाया और मेरे पास उनके गाये गानों की लिस्ट की घोर कमी है... उनके जाने के बाद उनको जानना बड़ा अजीब सा लग रहा है,. आपका धन्यवाद और बलेसर जी .....

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  18. इनके लोकगीत शायद सुने हों पहले पर इनके बारे में पता नहीं था.. इतनी जानकारी देने के लिए आपका आभार... बलेसर जी को नमन....

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  19. हाँ.. परिवार के साथ बलेसर को सुनने में समस्या तो आती ही थी, परंतु फिर भी

    "दुस्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार ना मिले,
    हिटलरसाही मीले, चमचों का दरबार ना मिले"

    खूब झूम के सुनती हूँ....!

    और गारी

    "रामलखन जब अईलें जनकपुर, देवई सखि सब गारी,
    हाँ सीता राम से बनी...."

    और

    "बरतिये जीया जीया.."

    जैसे वो गीत भी हैं, जो सुनकर उनके योगदान को आँका जा सकता है।

    कुल मिला कर मैं उनके अच्छे गीतों की प्रशंसक हूँ।

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  20. समाचार पत्र में पढ़ा था इनके देहावसान का,पर आपके पोस्ट से बहुत कुछ जानने का अवसर मिला..

    आभार...

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  21. अच्छी जानकारी शुक्रिया दोस्त !

    उनको भावभिनी श्रद्धांजलि !

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  22. बलेसर जी को कभी सुना तो नहीं पर जिस अंदाज़ से आपने लिखा है कुछ तो कमाल है ... आपने जो गीत लगाया है उसका आनंद तो ले रहा हूँ ....कभी मौका मिला तो बिरहा जरूर सुनूंगा ...
    उनकी मृत्यु लोक गीत के क्षेत्र में एक क्षति है ...

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  23. बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।

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  24. very deep information about "baleshwar ji"
    really we will miss his place .

    you write at my blog that "असंगति की झलक है यहाँ !"
    kya humne kuch galat likhaa hai . ager haan to please hame sudhaar bhee bata dejiy .
    thanks

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  25. @ comment on my blog
    amarendra ji thanks , actually me not knowinh hindi letraure , thus i feel k kya mene grammatically kuch in correct to nahi ker diya . likha humne wahi soch ker ha jaisa aapne pada.

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  26. पहली भी मैंने यह पोस्ट पढ़ी थी ..और गीत सुनती रह गयी.. टिपण्णी नहीं कर पाई ..
    भोजपूरी के गानों की कुछ ऐसी खासियत है जो हरफनमोला जैसे कुछ.. अभिव्यक्त नहीं कर पा रही हूँ... कुछ राजस्थानी गाने भी वही पुट लिए हुवे होते है... बहुत अच्छे लगते है..
    और बलेसर जी के बारे में जानकारी मिली धन्यवाद

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  27. लेसर जी को जानना अच्छा लगा ! शुभकामनायें अमरेन्द्र !

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