शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

नारी-निन्दा और तुलसीदास : फादर डॉ. कामिल बुल्के

नारी-निन्दा और तुलसीदास
~ फादर डॉ. कामिल बुल्के

''रामचरित मानस के विभिन्न पात्रों और स्वयं तुलसी की भी ऐसी बहुसंख्यक उक्तियाँ पढ़ने को मिलती हैं, जिनमें नारी के स्वभाव, उसकी शारीरिक दुर्बलता और विवेकहीनता की निंदा की गयी है। किसी भी नारी पात्र से भूल हो जाने पर सम्पूर्ण मातृ-जाति की भर्त्सना की जाती है और रावण की कामुकता के सन्दर्भ में यह कभी नहीं कहा जाता की सभी पुरुष ऐसे ही हैं। 

कुछ लोग रामचरित मानस में नारी-निंदा विषयक उक्तियों का अनोखा अर्थ लगाकर तुलसी को निर्दोष साबित करने का प्रयत्न करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि तुलसी ने नारी को मुख्यतया कामिनी के रूप में देख कर उसे वासना का प्रतीक बना दिया और साधक होने के नाते उसे साधना में बाधा मानकर उसकी ओर स्वयं सतर्क रहे और दूसरे साधकों को भी सावधान करना चाहा। किन्तु रामचरित मानस गृहस्थों के लिए लिखा गया है और तुलसी की साधना इतनी अपरिपक्व नहीं थी कि उन्हें विचलित होने का डर था।  

वास्तव में रामचरित मानस की कटूक्तियां तुलसी की अपनी न होकर संस्कृत नीति-काव्यों के अनुवाद हैं*। मातृ-जाति के विषय में उनकी अनुदारता उनकी व्यक्तिगत न होकर तत्कालीन विचारधारा(लोकमत) का प्रतिबिम्ब मात्र है, जो शताब्दियों से चली आ रही थी। यदि तुलसी को दोष देना है, तो समस्त भारतीय परंपरा को दोषी ठहराना चाहिए और समस्त विश्व साहित्य को भी, क्योंकि दुनिया भर के साहित्य में मातृ-जाति विषयक निंदात्मक उक्तियाँ पाई जाती हैं। भगवतगीता में भी स्त्री को पापयोनि कहा गया है: येऽपि स्युः पापयोनयः स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः (९,३२)

फिर भी मन में एक प्रश्न उठता है। तुलसी जैसे महात्मा ने उन उक्तियों को क्यों दुहराया? मेरी धारणा यह है कि इसका वास्तविक कारण मनोवैज्ञानिक है। तुलसी बचपन से ही अनाथ थे। यदि बालक तुलसी को एक साध्वी माता का लाड़-प्यार मिला होता, तो उन्होंने मातृ-जाति विषयक कटूक्तियों को अपनी रचना में स्थान नहीं दिया होता।''

(सन्दर्भ : रामकथा और तुलसीदास, हिन्दुस्तानी अकादमी, पृ.-६१-६३)
* वाली बात वही है जो चित्र में है। 

-- Amrendra Nath Tripathi./ Patna / 18.4.2020

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