गुरुवार, 17 मार्च 2011

देश भाषाओं के निमित्त हुई एक बहस !

साहित्यकार उदय प्रकाश जी की फेसबुकीय वाल पर देश-भाषाओं के निमित्त बहस हुई थी, उसमें मैंने भी हिस्सेदारी ली थी| देश भाषा का प्रेमी होने के नाते कहीं स्वर में तिक्तता आयी होगी, इससे इनकार नहीं पर इस आधुनिक भारत में उत्तर भारत की इन अनेक जिंदा-जावेद उछाह पूरित लोक भाषाओं की उपेक्षा ( या कहिये गला घोंटन ) पर यह तिक्तता स्वाभाविक भी है| इस बहस को यहाँ रख दे रहा हूँ , ताकि सनद रहे के सोच के तहत| इस हेतु उदय जी ने अनुमति दी , इसके लिए आभारी हूँ! बहस प्रस्तुत है:

अब पचास फ़ीसद हिंदी को समझने के लिए संस्कृत की शास्त्री परीक्षा पास होना चाहिए और बकिया पचास फ़ीसद के लिए बाबू इंगलिश का थोड़ा-थोड़ा अभ्यास। हिंदी किसी की भी मातृ-भाषा नहीं, वह गरीबों की मातृ-भाषा अवधी, भोजपुरी, बैसवाड़ी वगैरह की जड़ों में मट्ठा डाल रही है।
लक्ष्मीधर मालवीय, 'जनसत्ता' में आज।
March 12 at 7:22am ·  · 
सादर;
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी 

11 टिप्‍पणियां:

  1. हिंदी को उसकी 'गत' बनाने का हाल हमने भी लक्ष्मीधर मालवीय के लिखे से जाना !इस पर साहित्य-प्रेमियों को ही कुछ रचनात्मक पहल करने की ज़रुरत है !

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  2. आपको और समस्त परिवार को होली की हार्दिक बधाई और मंगल कामनाएँ ....

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  3. क्या भाषा पहले अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है? हमें अपने भावों को अभिव्यक्त करना आना चाहिए, उसमें रास्ता और साहित्य तो बाद कि बातें हैं| सोचिये कि यदि मुझे अवधि नहीं आती और में उस पर लेख लिख रही हूँ तो जानकार लोग कितना मखौल उड़ायेंगे? अभिव्यक्ति साफ़ और सुलझी होनी चाहिए, बस!!!

    हमें उसे माध्यम बनाना चाहिए ज्ञान अर्जित करने का, ना कि सामाजिक दंगों का विषय...

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  4. @ kavita prasad
    भाषा प्राथमिक रूप से अभिव्यक्ति का माध्यम है। पर बाद में यह साहित्य और आइडेंटिटी आदि बहुत से आवश्यक रूपों से अनिवार्य रूप से जुड़ जाती है। इसलिये भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम तक सीमित नहीं रह जाती। वह भौगोलिकी और जातीयता की वाहिका बन जाती है। ऐसी स्थिति में वह जातीयता की माँग का हिस्सा भी बनती है।

    अवधी क्या , विश्व की कोई भी भाषा जिसका हमें ग्यान न हो वह अभिव्यक्ति का सही माध्यम नहीं बन पायेगा। पर उलट देखिये जिसकी प्राथमिक भाषा( मादरे-जुबान ) अवधी हो वह अवधी से इतर किसी और भाषा में सहज अभिव्यक्ति नहीं कर सकेगा।

    भारत में हिन्दी पट्टी में अनेकानेक मातृभाषाएँ हैं जिनमें आज लोगों को अभिव्यक्ति की सुविधा नहीं है और उनका विराट साहित्य उपेक्षित है, जिन्हें बोलियाँ कहकर दरकिनार कर दिया जाता है। प्रस्तुत पोस्ट की मुख्य माँग इन लोक-भाषाओं को उनके हक दिलाने से जुड़ा है।

    इस सन्दर्भ में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का यह उद्धरण गौर-तलब है:

    ”हमारे अहिंदी भाषी भाई समझते हैं कि उत्तर में एक ही हिंदी भाषा है, बाकी उसी की छोटी-छोटी बोलियां हैं। पर मैथिली, अवधी, ब्रजी और मारवाड़ी को कौन बोली कह सकता है, जिनका काव्य साहित्य हमारी हिंदी से कहीं अधिक पुराना और गुण तथा परिमाण में अधिक नहीं तो कम समृद्ध नहीं है। वस्तुतः वह बोलियां नहीं, साहित्यिक भाषाएं हैं।” [ ~ राहुल सांकृत्यायन ]

    और

    ”किसी भाषा को केवल इसीलिए बोली नहीं कहा जा सकता कि उसका साहित्य लिपिबद्ध नहीं हुआ।” [ ~ राहुल सांकृत्यायन ]

    आपने मेरे ब्लोग पर आयीं, प्रोत्साहन दिया, प्रश्न किया,इनके लिये आभारी हूँ। सादर..!

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  5. नवसंवत्सर 2068 की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  6. अविनाश त्रिपाठी6 मई 2011 को 5:49 am बजे

    अमरेन्द्रजी, आपके विचारों ने उद्वेलित अवश्य किया, पर सहमत नहीं हो सका। अपनी बात बताउं तो मैं एक भोजपुरीभाषी क्षेत्र से हूँ; घर पर भोजपुरी ही बोली जाती है, शुरु की पढाई भी गाँव में ही हुई; पर तथाकथित हिन्दी सीखने के लिये कभी व्याकरण पढा हो ऐसा याद नहीं पडता, इसलिये जो भेद आप बता रहें हैं वह गले नहीं उतरता। रही बात बोलियों के साहित्यिक महत्व की तो इस पर अनधिकार टिप्पणी नहीं करुंगा। पर विषय के दुसरे आयाम भी है, भाषा केवल साहित्य के बल पर नहीं चलती। बिहार से लेकर राजस्थान तक करोडो लोग पहली बार साक्षर हो रहे हैं: उन्हे केवल साहित्य ही कि नहीं बल्कि विज्ञान, तकनीकी, अर्थशास्त्र और भी अनेक विषयों की जानकारी की अपेक्षा होगी। क्या हम ये सब सारी बोलियों में उपलब्ध करा सकते हैं? मुझे नहीं लगता। हिन्दी सीखने कि सहजता और जिसे हम अर्थशास्त्र में 'Economies of agglomeration' कहते हैं, उसके बीच का स्वर्णिम माध्य है। सबसे ज्यादा कष्ट आपकी इस टिप्पणी से हुआ कि हिन्दी साम्राज्यवादी भाषा है। भाई साहब हिन्दी के पक्ष में एक लेख भगत सिंह ने भी लिखा है, बोस ने अपना सबसे महत्वपुर्ण भाषण हिन्दी में दिया था, और हिन्दी के समर्थक गाँधी जी भी थे: इनमें कोइ साम्राज्यवादी था ऐसा मुझे नहीं लगता। ऐसे नारे वास्तविकता को ढकते ज्यादा हैं| वैसे आप ब्लाग पर हैं पहली बार देखा।

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  7. अविनाश त्रिपाठी6 मई 2011 को 5:49 am बजे

    अमरेन्द्रजी, आपके विचारों ने उद्वेलित अवश्य किया, पर सहमत नहीं हो सका। अपनी बात बताउं तो मैं एक भोजपुरीभाषी क्षेत्र से हूँ; घर पर भोजपुरी ही बोली जाती है, शुरु की पढाई भी गाँव में ही हुई; पर तथाकथित हिन्दी सीखने के लिये कभी व्याकरण पढा हो ऐसा याद नहीं पडता, इसलिये जो भेद आप बता रहें हैं वह गले नहीं उतरता। रही बात बोलियों के साहित्यिक महत्व की तो इस पर अनधिकार टिप्पणी नहीं करुंगा। पर विषय के दुसरे आयाम भी है, भाषा केवल साहित्य के बल पर नहीं चलती। बिहार से लेकर राजस्थान तक करोडो लोग पहली बार साक्षर हो रहे हैं: उन्हे केवल साहित्य ही कि नहीं बल्कि विज्ञान, तकनीकी, अर्थशास्त्र और भी अनेक विषयों की जानकारी की अपेक्षा होगी। क्या हम ये सब सारी बोलियों में उपलब्ध करा सकते हैं? मुझे नहीं लगता। हिन्दी सीखने कि सहजता और जिसे हम अर्थशास्त्र में 'Economies of agglomeration' कहते हैं, उसके बीच का स्वर्णिम माध्य है। सबसे ज्यादा कष्ट आपकी इस टिप्पणी से हुआ कि हिन्दी साम्राज्यवादी भाषा है। भाई साहब हिन्दी के पक्ष में एक लेख भगत सिंह ने भी लिखा है, बोस ने अपना सबसे महत्वपुर्ण भाषण हिन्दी में दिया था, और हिन्दी के समर्थक गाँधी जी भी थे: इनमें कोइ साम्राज्यवादी था ऐसा मुझे नहीं लगता। ऐसे नारे वास्तविकता को ढकते ज्यादा हैं| वैसे आप ब्लाग पर हैं पहली बार देखा।

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  8. लीजिए पढ़ लिया। बोलियों जो भाषाएँ हैं, का प्रबल पक्षधर तो मैं भी हूँ लेकिन अधिक कहने पर बहस का डर है, इसलिए चलता हूँ। यहाँ कूदते-फाँदते आ गया था। भोजपुरी भाषी बानी हम, ईहो इयाद रखेम जी।

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  9. दिव्या वाली वह कहानी यहँ तक ले आई। आज उसका जिक्र आया तो देखा। आपकी उस कहानी में मुझे कुछ भी गलत नहीं लगा। धन्यवाद! मनोवैज्ञानिक कहानी।

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