शनिवार, 30 अप्रैल 2011

आलोचक के प्रति कवि मन के उद्गार..


आलोचक के प्रति कवि मन के उद्गार..

गुणदोष कथन को लोगों द्वारा आलोचना कहा गया है। यह प्रक्रिया एक निर्ममता माँगती है, इसलिये आलोचक का निर्मम होना उसकी मजबूरी हो जाती है। पर उसका प्रयोजन सत्व-पूर्ण होता है। अभी ब्लोगबुड में एक ब्लोग पर कविता पर आलोचना को लेकर बहस-नुमा चीजें दिखीं। आज पढ़ते कुछ चीजें मिलीं तो सोचा यहाँ साझा करूँ ताकि लोग ब्लोगबुड में भी गुणदोष कथन करने वाले को इतनी वक्र दृष्टि से न देखें। यह प्रसंग है अपने समय के महान कवि निराला का आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रति व्यक्त उद्गार! एक आलोचक को , उसकी सार्थकता को , देखने का एक कवि का नजरिया। असहमति के बाद भी सकारात्मकता को लक्षित करने के प्रति एक कवि की एक आलोचक के लिये काव्यात्मक अभिव्यक्ति। प्रस्तुत है “आचार्य रामचंद्र शुक्ल : आलोचना के नये मानदंड ( लेखक – भवदेव पांडेय ) ” पुस्तक का कुछ अंश :
....... जिस निराला ने शुक्ल की पुस्तक ‘काव्य में रहस्यवाद’ ( १९२९ ) प्रकाशित होने पर लिखा था, ‘पंडित रामचंद्र शुक्ल की ‘काव्य में रहस्यवाद’ उनकी आलोचना से पहले उनके अहंकार, हठ, मिथ्याभिमान, गुरुडम तथा ‘रहस्यवादी छायावादी’ कवि कहलाने वालों के प्रति उनकी अपार घृणा सूचित करती है। ऐसे दुर्वासा समालोचक कभी भी किसी कृति-शकुंतला का कुछ बिगाड़ नहीं सके, अपने शाप से उसे और चमका दिया।’ ( माधुरी : दिसंबर, १९३० ) उसी निराला ने शुक्ल जी के दिवंगत होने पर ‘श्रद्धांजलि’ कविता में लिखा:
अमानिशा थी समालोचना के अंबर पर
उदित हुए जब तुम हिन्दी के दिव्य कलाधर।
दीप्ति द्वितीया हुई लीन खिलने से पहले
किन्तु निशाचर संध्या के अंतर में दहले।
स्पष्ट तृतीया, खिंची दृष्टि लोगों की सहसा
छिड़ी सिद्ध साहित्यिक से तुमसे जब वचसा।
मुक्त चतुर्थी, समालोचना वधू ब्याहकर
लाए तुम, पंचमी काव्यवाणी अपने घर।
षष्ठी, छः ऐश्वर्य प्रदर्शित कोष प्राण में;
शिक्षण की सप्तमी महार्णव सप्तग्यान में।
दिए अष्टमी आठों बसु टीकाओं में भर
नवमी शान्ति ग्रहों की, दशमी विजित दिगम्बर।
एकादशी रूद्रता, रामा कला द्वादशी,
त्रयोदशी-प्रदोष-गत, चतुर्दशी-रत्न शशी।
                                     ( ‘अणिमा’ में संकलित )
     पूरे विश्व साहित्य में शायद इतनी बड़ी श्रद्धांजलि कविता नहीं लिखी गयी थी। निराला की कविता में रामचन्द्र शुक्ल के जन्म और मृत्यु का संस्मरण मात्र नहीं था, बल्कि शुक्ल जी के व्यक्तित्व, कृतित्व, सैद्धांतिक स्थापनाओं की अभिनवता, उनकी समालोचना के प्रकाश में अस्त हुए तब तक के अन्य आलोचक, हिन्दी समालोचना को शुक्ल जी की विवाहिता बधू के रूप में स्वीकृति, हिन्दी कोश-रचना में शुक्ल जी द्वारा शब्दों की प्राण-शक्ति का ऊर्जस्व, शिक्षण में सप्तमी-सिद्धांत यानी अधिकरण दृष्टि का प्रयोग, सात महासागरों से अनुबाधित विश्व-ग्यान की प्राप्ति, ‘धरो ध्रुवश्च, सोमश्च, अहश्चैवानिलोsनलः प्रत्यूषश्च, प्रभासश्च’ इन आठ गुणों से युक्त काव्य-टीका की प्रस्तुति क्षमता और दिक और काल को अपनी प्रतिभा से जीतने में सक्षम आचार्य शुक्ल की महागाथा भी थी। अगर विस्तार दिया जाए तो १४ पंक्तियों की श्रद्धांजलि-कविता को पूरा महाकाव्य बनाया जा सकता है। शुक्ल जी आश्विन शुक्ल १४ के उपरांत शशि-काल में पैदा हुये थे। निराला ने ‘शशी’ पद द्वारा इसका अर्थ खींचा है। ‘चतुर्दशी-रत्न शशी’ का सम्यक्‍ अर्थ कोई ग्यान-संपन्न ज्योतिषी कर सकता है। अगर ‘चतुर्दशी-रत्न-शशी’ लिख दिया गया होता तो पूर्ण पदत्व दोष आ गया होता। रामचंद्र शुक्ल की पूर्णता की व्यंजना निराला-प्रयोग द्वारा ही संभव था। ”  
[  साभार : “आचार्य रामचंद्र शुक्ल : आलोचना के नये मानदंड ( लेखक – भवदेव पांडेय )” पृ. ९०-९१  ] 
सादर;
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी 

25 टिप्‍पणियां:

  1. यह हुई न एक प्रखर ,भाषा के धनी विद्वान् की लेखनी से संपूरित एक काव्यांजलि!
    मन आकंठ तृप्त हुआ!

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  2. @आज पढ़ते कुछ चीजें मिलीं तो सोचा यहाँ साझा करूँ ताकि लोग ब्लोगबुड में भी गुणदोष कथन करने वाले को इतनी वक्र दृष्टि से न देखें


    ऐसे प्रसंग मात्र विद्वान जन ही साँझा कर सकते है.... आपने किया.

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    1. बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी शेयर करने के लिये धन्यवाद 🙏 🙏

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  3. आलोचक का निर्मम होना उसकी मजबूरी हो जाती है। पर उसका प्रयोजन सत्व-पूर्ण होता है।

    jai baba banaras......

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  4. सच्चे अर्थ में निराला जी निराले ही हैं....
    सुन्दर लेख...!!

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  5. अमरेंदर ....भाई(????)


    आलोचक अगर सहृदयता से विश्लेषण करने लगे तो आलोचना स्तरहीन हो जाएगी..
    आप तो शोधार्थी है मगर मुझे नहीं लगता की कोई साहित्यिक प्रतिद्वंदिता के भाव रहे होंगे इस आलोचना में..
    जानकारी सुन्दर दी आप ने..और हम जैसे कवि ह्रदय को एक कविता पढने को मिल गयी..
    आभार ...

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  6. निराला का निराला काव्य ...
    आलोचना और आलोचक निर्मम होता है ... सच ही तो है ....

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  7. इस विषय पर एक बार आपसे कुछ बातें हुई थी।
    आज आपने यह आलेख लिखा तो कुछ अपनी बातें रख रहा हूं। हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूं। इसलिए बहस में नहीं पड़ूंगा। अपनी बात कह कर चला जाऊंगा। आपने सि आलेख में जिस आलोचना का ज़िक्र किया था, उस पर पहले भी नज़र पड़ी थी। इतने सारे विचार थे वहां पर इसलिए वहां कुछ नहीं रख पाया। आपसे तो इतनी धृष्टता कर सकता हूं।

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  8. काव्‍य शास्‍त्र की परंपरा काफी पहले से चली आ रही है। पर आलोचना का एक शास्‍त्र के रूप में उद्भव और विकास काफी बाद में हुआ, बल्कि यूँ कहें कि आलोचना साहित्य का शास्‍त्र न होकर साहित्‍य सृजन का वह जीवन है जो बार बार सृजित किया जाता है- ज्‍यादा उपयुक्‍त होगा। काव्‍यशास्‍त्र तो सिद्धांतों और प्रतिमानों का निरूपण होता है। आलोचना में उन्‍हीं सिद्धांतों के प्रकाश में रचना की परख और मूल्‍यांकन किया जाता है। कुछ सृजन, जिसे “नया” भी कह सकते हैं, आलोचना के स्‍थापित या स्‍वीकृत प्रतिमानों को चुनौती देता है। तब आलोचना करनेवाले इस नए सृजन के मूल्‍यांकन के लिए नए प्रतिमानों की तलाश करता है। यह एक व्‍यावहारिक प्रक्रिया है, जो चलती रहती है- सिद्धांतों और सृजन बीच। यही प्रक्रिया तो सिद्धांतों और सृजन के संबंधों में बदलाव के चक्र को गतिमान रखती है। आलोचना की टकराहट शास्‍त्र से कम, नवीन सृजन, नवीन विचारधाराओं से और वैचारिक सरोकारों से अधिक रही है।

    *** मेरा अपना मानना है कि आलोचना में गुण के साथ दोष की भी चर्चा हो (आज के दिनों में, जब आधुनिक कविता के प्रति वह उत्साह लोगों में नहीं रहा ... कारण आप जानते ही हैं)ज़रूरी नहीं। कारण पर आता हूं।

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  9. परिवेश और युग की प्रेरणा से सृजनात्‍मक मानसिकता में परिवर्तन आते हैं। इसका प्रभाव साहित्य की विधाओं पर भी पड़ता है। हर युग की मानसिकता विभिन्‍न विधाओं में प्रकट होती है।
    *** आज के भौतिकवादी युग में किसी कवि को पक्षियों के कलरव में सप्तम सुर नज़र आए ... तो उसको प्राचीन ग्रंथों के सिद्धांतों से नकारना कहां तक उचित है? एक प्रश्न है कल से मेरे मन में, उत्तर नहीं मिला इसलिए वहां कुछ नहीं लिखा था।

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  10. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है, “कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है।” यानी व्यक्ति धर्म के स्थान पर लोक-धर्म श्रेयस्कर है। मतलब साहित्य में जीवन और जीवन में साहित्य प्रतिष्ठित हो। इस तरह से जो समीक्षा होती है वह व्यावहारिक समीक्षा है। ‘भाव’ मन की वेगयुक्त अवस्था-विशेष है। भाव में बोध, अनुभूति और प्रवृत्ति तीनों मौज़ूद हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार, ‘प्रत्यय बोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गूढ संश्लेषण का नाम भाव है।’ यही वह आधार है जिसपर आचार्य शुक्ल काव्य में लोक-मंगल के आदर्श की प्रतिष्ठा करते हैं।
    ***

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  11. शुक्लजी ने समीक्षा-सिद्धांत रचनाओं के आधार पर स्थापित किए हैं। अतः उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक समीक्षा में संगति है। वे व्यवहार से सिद्धांत पर पहुंचते हैं। वे आधुनिक और वैज्ञानिक समीक्षक हैं। समीक्षक के लिए सहृदय होना बहुत ज़रूरी है। समीक्षक को आलोच्य रचना या कृति के उत्कृष्ट स्थल की पहचान कर उसको प्रमुखता देना चाहिए। साथ ही वह रचना की युगानुकूल व्याख्या करे।

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  12. @ गुणदोष कथन को लोगों द्वारा आलोचना कहा गया है। यह प्रक्रिया एक निर्ममता माँगती है, इसलिये आलोचक का निर्मम होना उसकी मजबूरी हो जाती है
    *** समकालीन आलोचक वास्तविक मूल्यांकन की कूंजी आलोच्य कृति के भीतर तलाशते हैं। उनके अनुसार रचना से रचनाकर तक पहुंचना समीक्षक का लक्ष्य होना चाहिए। इस दौर में एक तरफ़ ‘निर्मम तटस्थता’ है तो दूसरी ओर ‘सर्जनात्मक समीक्षा’ है। वर्तमान हिंदी आलोचना अनेक प्रकार की विसंगतियों से घिर गई है।

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  13. आज की आलोचना स्थापित-विस्थापित करने की नीयत से अतिरंजित शब्दावलि लिए प्रशंशा-निंदा के आगे कम ही बढते हैं। इसलिए विश्वसनीयता कम होती जा रही है। कुछ हद तक सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता के समान आज की आलोचना हो गई है। न उन्हें रचनात्मक साहित्य की चिंता है, न रचनाकारों को उनकी परवाह।

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  14. आज देश में जैसा परिदृश्य है हिंदी साहित्य में भी उसी के अनुरूप परिवर्तन आया है। सत्ता की उठापटक, आर्थिक संकट, भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद आदि से संस्कृति, कला और साहित्य भी प्रभावित हैं।

    पाठक का विकल्प आलोचक नहीं हैं। जागरूक पाठक अपना विमर्श खुद तैयार कर लेता है।

    जहां एक ओर सृजन के नाम पर सतही रचनाएं आ रहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आलोचना के नाम पर या तो दलबंदी हो रही है या पत्थरबाज़ी।

    आलोचना में वक्तव्यबाज़ी अधिक हो रही है, इस परिस्थिति में रचना को बोलने का अवसर ही नहीं मिल रहा है।

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  15. @ आदरणीय मनोज कुमार जी ,
    १- काफी विस्तार से आपने अपनी बातों को रखा है। जिसमें तर्क-रीति भी है प्रीति भी। ब्लोग जगत में आपका मुखर होना माध्यम की अगम्भीरता को पाट देता है। इस हेतु भूरि भूरि धन्यवाद!
    २- निस्संदेह आज वही आलोचना नहीं है जो शुक्ल जी के आचरण में रही, पर हमारी प्रवृत्ति का प्रश्न है कि वह किधर हो? , लिखा ही मैने इसलिये कि नुक्ता-नवीस शुक्ल से प्रेरित हों और सर्जक निराला से।
    ३- काव्यशास्त्र में भी काव्य-दोश देखा जाता था, जिसकी भी सीमाएँ थीं, जैसे ग्राम्यता को दोष मानना जिसका एक प्रभाव यह पड़ा कि अवहट्ट श्रेणी की रचनाएँ मुखधारा में रखकर मूल्यांकित न हुईं। बावजूद कि जनधारा में छाई रही हों। एतदर्थ काव्य-दोषों का दोष-पूर्ण होना भी सिद्ध होता है। पर इनकी कतिपय उपलब्धियाँ भी रही हैं, निस्संदेह। इसलिये आलोचना की भी आलोचना का तुक है। कल , आज और कल।
    ४- आपकी इस बात से सहमत कि आज की आलोचना में प्रयोजन की सात्विकता सर्वाधिक क्षीण है। मुख्यधारा की वामपंथी आलोचनाएँ, और जहाँ-तहाँ अहं भरी आलोचनाएँ इसका बड़ा प्रमाण हैं।

    ..........जारी

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  16. ५- सहमत हूँ आपकी बात से , जिसे मैं अपने शब्दों में कहूँ तो आलोचना का कार्य रचना के ‘जीवनदायी केन्द्र’ की तलाश भी है, ऐसा तो शुक्ल जी ने किया भी है, जैसे विरोधी होने के बाद भी कवि केशव की रचना की विशिष्टता उसकी संवाद-प्रियता को कहा। आज भी जीवनदायी केन्द्र की तलाश लक्ष्य होना चाहिये। इसे ही अंतः प्रवृत्तियों की छानबीन भी कहिये।
    ६- @.....उसको प्राचीन ग्रंथों के सिद्धांतों से नकारना कहां तक उचित है? >> प्रश्न यही आता है कि कवि विशेष में ‘व्युत्पत्ति’ के अभाव को क्या फिर संकेतित न किया जाए?? कहने वाला तो संकेत करता है, इसके आगे रचने वाले की मर्जी माने या न माने। कोई जबरदस्ती नहीं। फिर ‘चलने’ के तर्क से तो ग्रामर के गलत नियम भी चलाये जाने लगेंगे। इसलिये ‘सीमा’ शब्द के अस्तित्व से इंकार नहीं कर सकता। सीमा बताने वाला संभव है सुधार की कामना से ही कहता हो,इससे रचना/रचनाकार ही निखरेगा , यह तो सत्य है। अगर बहस होगी तो उससे भी कुछ सकारातमक ही निकलेगा। ये प्रयोजन अहं-रहित होना चाहिये। उठाओ-गिराओ भावना से हटकर।
    ७- @...पाठक का विकल्प आलोचक नहीं हैं। जागरूक पाठक अपना विमर्श खुद तैयार कर लेता है। >> निस्संदेह। पर आलोचक का विकल्प पाठक भी नहीं। पाठक की मर्जी सिर्फ अपनी पसंद नापसंद तक, जबकि आलोचक स्वयं के प्रति भी कठोर बनता है, निर्मम बनता है, अपने से ज्यादा वस्तुनिष्ठता से प्यार करना चाहता है। इसलिये उसका महत्व भी है, क्योंकि इस क्रिया-विशेष की उपयोगिता असिद्ध नहीं है। अगर ‘परिवेश’ खराब दिख रहा तो इसका तात्पर्य नहीं कि किसी विधा का सिद्धांत-पक्ष भी विकार-युक्त है। हमें इस विधा (या किसी भी विधा) के अविकारी पक्ष को लाने की प्रवृत्ति से युक्त होना चाहिये।
    ८- अंतिम बात के तौर पर कहना चाहता हूँ कि पहले रचना है फिर आलोचना। इसलिये आलोचना की मुँहदेखी करके रचना चले, यक युक्ति-युक्त भी नहीं है। आलोचना अपने कार्य को करेगी, करती रहेगी, पर कभी भी रचना से दो फलांग आगे जाकर नहीं। इसलिये रचनाकारों को कभी आलोचकों से भयभीत नहीं होना चाहिये। रचनाकार बड़ी चीज हैं। ब्लोगबुड में भी रचनाकार को आलोचना-कर्मी को इतनी ज्यादा वक्र दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। अगर रचनाकार आलोचक से इतना ज्यादा और अकारण रोष करेगा तो यह उसकी रचना के प्रति उसकी निष्ठा और जिजीविषा की कमी का प्रमाण भी होगा।

    आपसे संवाद करने से बड़ा तोष मिला। बारंबार आभार!!

    ...........समाप्त।

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  17. तोषदायक संवाद -
    आलोचकों की प्रतिमाएं नहीं बनती,सर्वपूज्य नहीं होते ..
    मगर उनके अवदान की सानी नहीं किसी विधा को निखारने में
    वह कबीर का 'नियरे निंदक' है तो वह कुम्हार भी जो घड़े को बड़ी सावधानी से सुघड़ बना देता है
    मीठी तनिक दर्दीली थपकियों से ,
    बढियां रही यह पोस्ट !

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  18. रविवारीय अच्छी खुराक मिल गई आज तो। ब्लॉग जगत, स्तरीय विमर्श के लिए आपको भी याद करेगा।

    आलोचना और निंदा में एक बारीक सा फर्क होता है। कवि और आलोचक दोनो को इसका मर्म समझना चाहिए। आलोचक एक समृद्ध पाठक होता है। आलोचना करना काव्य सृजन से भी कठिन कार्य है। अपनी बात को कह कर निकल जाना और कही बात को गलत सिद्ध करने के लिए उसका छिद्रा अन्वेषण करना दोनो में बहुत फर्क है।

    वर्तमान ब्लॉग जगत की कविताओं और हो रही आलोचना को निराला-शुक्ल का आईना दिखाने के लिए आपकी जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।

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  19. धन्य हुए एक और कमाल की पोस्ट पढ़कर !

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  20. आलोचक का निर्मम होना उसकी मजबूरी हो जाती है। पर उसका प्रयोजन सत्व-पूर्ण होता है।

    सत्य है...निर्ममता के साथ सहजता भी उसका गुण है...
    अच्छा लगा पढ़कर....
    आप भी आइए...

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  21. सार्थक उदहारण द्वारा करणीय सम्मुख रखा है आपने...
    सत्य बात है...समालोचना बिना कृति पूर्णता नहीं पाती और धैर्य गाम्भीर्य तथा विद्वता बिना समालोचना...

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल और महाकवि निराला का स्मरण मात्र नतमस्तक कर देता है....
    आपका ह्रदय से आभार यह उद्दरण पढवाने के लिए...

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  22. आपको पढ़ना अच्छा लग रहा है.

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