शनिवार, 7 जनवरी 2012

हिन्दी-दंभ और आलोचक रामविलास शर्मा की लोकभाषा विरोधी चेतना

गुजरात हाई कोर्ट के निर्णय को हिन्दी-दंभ पर स्वाभाविक प्रतिक्रिया कहते हुये एक लेख मैने लिखा था। यहाँ और बरगद साइट पर है वह। इस लेख पर लोगों की प्रतिक्रिया रही कि हिन्दी में कोई दंभ नहीं है, और हिन्दी की नीतियों का विरोध अंग्रेजी भक्ति से जुड़ जाता है। इस तरह मैं अग्रेजी-भक्त कहा गया। मित्रों ने मुझे कहा कि इस संदर्भ में मै रामविलास शर्मा का अध्ययन करूँ, उनसे ज्ञान लूँ, और चुपचाप उनकी हिन्दी-जातीयता का कायल हो जाऊँ। यही शातिर व्यावहारिक राह हिन्दी-दंभ के लिये सटीक बैठती है। इसलिये ज्यादा तो नहीं लेकिन कुछेक प्रमाणों से यह कहना उचित समझता हूँ कि जिन रामविलास शर्मा की हिन्दी जातीयता की ‘पोलिटिकल राइटिंग’ का सिक्का पूरे हिन्दी अकादमिकी तंत्र में चलता है, वही शर्मा जी मूलतः हिन्दी-दंभी और लोकभाषा विरोधी चेतना से भरे हुये थे। 

सर्वप्रथम तो स्पष्ट कर दूँ कि हिन्दी-दंभ से मेरा आशय क्या है? हिन्दी/उर्दू की चाल एक है, ग्रामर(खड़ी बोली का) एक है, बस शैलियाँ अलग हैं। हिन्दी/उर्दू भाषा आरंभ में भारत में संपर्क भाषा के रूप में प्रभु वर्गों की भाषा बनी, औरों तक भी गयी, पर हर क्षेत्र की अपनी अलग व स्वतंत्र भाषा रही। आजादी के आंदोलन में प्रभु वर्ग की संपर्क भाषा होने के कारण यह भाषा व्यवहृत हुई यद्यपि अन्य भाषाएँ भी जागृत और कमतर नहीं रहीं जैसे १८५७ पर लोकभाषाओं में लोकगीत मिलेंगे और हिन्दी में इस रूप नहीं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में गद्य की भाषा के रूप में यह खड़ी बोली फैली। पर लोकभाषाएँ अपनी-अपनी जमीनों पर कायम रहीं। बीसवीं शताब्दी में हिन्दी अकादमिकी द्वारा पूरे उत्तर-भारत के हिन्दी प्रदेशों में थोपने की कोशिश इस रूप में हुई कि ये सारी स्वतंत्र भाषाएँ हिन्दी की ‘बोलियाँ’ हैं। यह एक सांस्कृतिक सत्य नहीं बल्कि सियासी आयोजन था। चूँकि इसी समय खड़ी बोली को राष्ट्रवादी आधार मिला, उर्दू विरोध का हिन्दूवादी आधार मिला(सरहद पार उर्दू के संदर्भ में उर्दू को गैर-हिन्दूवादी आधार), हिन्दी प्रदेशों में पहचान को लेकर जागरुकता के अभाव का आधार मिला, फलतः खड़ी बोली का एक साम्राज्य स्थापित हो गया। इस साम्राज्य में आरंभ से की ज्ञान के लपेट में ‘पावर-बैलेंस’ रहा है इसलिये एक किस्म का एरोगेंस आया। अन्य भाषाओं के प्रति यह एरोगेंस दिखा/दिखाया गया जिसका विरोध भी हुआ, तमिलादि जगहों पर मुखर रूप में। (इस एरोगेंस को हिदी-दंभ के अंतर्गत समझिये) इधर हिन्दी अकादमिकी ने हिन्दी को लेकर सर्वसमावेशी फतवे किये, जिसमें कई उत्तरभारतीय स्वतंत्र लोकभाषाओं को हिन्दी की ‘बोलियाँ’ कहकर उनके स्वाभाविक विकास का गला घोटना प्रमुख रहा। इस पूरे स्थूल और सूक्ष्म, अकादमिक और गैर-अकादमिक आयोजन में जो मानसिकता रही, उसी को मैं हिन्दी-दंभ कह रहा हूँ। 

इस विषय पर हिन्दी विभाग के लोगों से बातचीत के दौरान हिन्दी-दंभ में रामविलास शर्मा की हिन्दी-जातीयता की सियासी अवधारणा की घनघोर तरफदारी होती है। अन्य मुद्दों पर रामविलास शर्मा को भले कोई गरियाये लेकिन इस मुद्दे पर शर्मा जी की पूजा होती रही है। इससे इतर ग्रियर्सन, सुनीति कुमार चाटुर्ज्या, उदय नारायण तिवारी, शिवदान सिंह चौहान(हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष) आदि की अवधारणा-धारा को तार्किक होने के बाद भी उपेक्षित, अलक्षित और थूथू-कृत किया जाता है, क्योंकि इन लोगों की बातों में यह कहा गया है कि हिन्दी जिन भाषाओं को अपनी खेती कहकर ‘बोलियाँ’ बताती है वे सब स्वतंत्र भाषाएँ हैं। इससे उलट रामविलास शर्मा की अवधारणा हिन्दी-दंभ पर सेट बैठती है जिसे हिन्दी विभाग परीक्षा-पाठ्यक्रम-चयन-अध्यापन आदि सारे रूपों में पूजता रहता है। 

रामविलास जी की हिन्दी जाति की अवधारणा रूसी लंबरदार स्टालिन की जातीयता की अवधारणा से आयातित है, कुछ इस तरह कि कोई किसी का कुर्ता ले आये और फिर किसी और व्यक्ति को पहनाया जाय, जब लगे कि कहीं कहीं छोटा-बड़ा हो रहा है तो कभी इधर कैंची मार दी जाय तो कभी उधर कैंची मार दी जाय। गौरतलब है कि संपर्कभाषा के रूप में हिन्दी सहज ही बढ़े तो उसका भारत में शायद ही कोई विरोध करे लेकिन जब वह इसी के लिये तमाम झूठ का सहारा लेती है तो विरोध का आधार बनने लगता है। सिनेमा ने हिन्दी को स्वतः फैलाया, उसका कभी किसी ने विरोध नहीं किया उल्टे दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बहुत सारे लोगों ने संपर्क भाषा के तौर हिन्दी ग्रहण भी किया। पर जब यही हिन्दी भाषायी वरीयता-वर्चस्व के दावे के साथ आने लगे, हिन्दी-दंभ के साथ आने लगे, तब विरोध होने लगता है। सच्चाई भी हिन्दी वालों को स्वीकार नहीं होती, आखिर गुजराती किसानों के द्वारा हिन्दी न समझ पाना और संप्रेषण के लिहाज से कोर्ट द्वारा ‘विदेशी’ कहा जाना तो एक सच्चाई ही है। 

बहरहाल हिन्दी ने जब उत्तर भारत की अवधी, भोजपुरी जैसी तमाम लोकभाषाओं को अपनी खेती कहा तो जरूरी था कि 

१- लोकभाषा की रचनाशीलता को हतोत्साहित किया जाय, 

२- हिन्दी आने के बाद की लोकभाषाओं की रचनाशीलता को हासिये पर डाल दिया, 

३- सम्मान/पुरस्कार आदि से लोकभाषाओं को ध्यान देकर छाँटा जाय, 

४- मातृभाषा के तौर पर हिन्दी को प्रोत्साहित किया जाय, 

५- लोकभाषाओं को मातृभाषा के रूप में बढ़ने की स्थिति पर उसे अपरिमार्जित-अशुद्ध-गँवार आदि का टैग दिया जाय, 

इस तरह की लोकभाषा-विरोधी चेतना का दर्शन रामविलास शर्मा के लेखन में काफी मिलेगा। प्रमाण बहुतेरे हैं लेकिन यहाँ शर्मा जी की इन बातों पर निगाह डाली जाय: 
संदर्भ : निराला  की साहित्य साधना-राम विलास शर्मा, भाग एक, पृ.-३९,
हास्यास्पद है शर्मा जी का लेखन। इनकी साफ योजना है कि सारी लोकभाषाएँ मिटें और जबरिया हिन्दी लायी जाय, और यह सांस्कृतिक मुहिम है! हद है, स्वयं कह रहे हैं कि हिन्दी घरों में प्रवेश नहीं कर सकी है! अब क्या कसर है इस बात को समझने में कि हिन्दी/उर्दू लायी गयी हैं! मुसलमान घर भी खड़ी बोली हिन्दी या उर्दू नहीं बोलते थे, बड़ा दुख है शर्मा जी को इसका। इसके बाद भी कोई कहे कि शर्मा जी लोकभाषा हितैषी थे, तो उससे क्या बहस की जाय। सीधे-सीधे शर्मा जी का एजेंडा है कि लोकभाषा मिटे और इसकी जगह हिन्दी आ जाय। हम लोकभाषा प्रेमी शर्मा जी को किस रूप में स्वीकारें! स्त्रियों की दीक्षा इसलिये जरूरी नहीं कि उनका दिमाग बढ़े, वे प्रगतिशील हों, बल्कि इसलिये कि वे हिन्दी-लाओ-अभियान में साधन बन सकें! यानी इन लोकभाषाओं के इलाके जिसमें हिन्दी न हो तो वहाँ महानता-श्रेष्ठता की कोई गुंजाइश नहीं है। इसी का दूसरा पक्ष है कि हिन्दी में तुच्छता भी श्रेयभागी है, पुरस्कार योग्य है। यह अकारण नहीं है कि रमई काका, वंशीधर शुक्ल, पढ़ीस, भिखारी ठाकुर को कभी भी हिन्दी के लिये दिया जाने वाला ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ नहीं दिया गया। महान लेखक बनने के लिये तो हिन्दी जरूरी थी, जिसमें कूड़ा-कचड़ा लिखने वाले बहुतेरे लोगों को सम्मान-दर-सम्मान मिला है; प्रत्यक्षम्‌ किं प्रमानम्‌!!। शर्मा जी के साथ निराला जी के विचार को भी देखा जाय, यह सोचकर कि निराला हिन्दी के अब तक के दो-चार महान कवियों में एक हैं। अब कोई कहे कि शर्मा जी ने यहाँ लोकभाषा के लिये यह ठीक कहा, वहाँ वह ठीक कहा, तो भइया मैं यही कहता हूँ कि आप लोग शर्मा जी के लेखन का लोकभाषा-विषयक अंतिम लक्षय देखें जोकि साफ है लोकभाषाएँ ‘बोली’ मानी जाएँ, मिटें और उनके ऊपर हिन्दी का साम्राज्य स्थापित हों! प्रमाण और भी हैं, पर लेख की सीमा को देखते हुये फिलहाल यही। 

अवधी, भोजपुरी आदि लोकभाषाओं को लेकर एक हीनता-बोध और असम्मान-बोध की निर्मिति करना हिन्दी की योजना रही, जिसमें वह सफल रही। हाल-फिलहाल में काशीनाथ सिंह को ‘रेहन पर रग्घू’ पर मिले साहित्य अकादमी सम्मान पर उनके वक्तव्य को रखते हुये अपनी बात खत्म करता हूँ, “इस पुरस्कार की हकदार मेरी दूसरी रचना ‘काशी का अस्सी’ थी। इसकी कहानी में क्षेत्रीय भाषाओं के भरपूर प्रयोग को अकादमी अश्लील कहकर हर बार पुरस्कार से खारिज कर देती है। उसके पास इतना साहस नहीं कि वह यहाँ की बोलचाल की भाषा को साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिये स्वीकार करे।” यह कुछ क्षेत्रीय शब्दों के प्रयोग का खामियाजा है, लोकभाषाओं का सहज सौंदर्य हिन्दी-दंभ के शुद्धतावाद में कहाँ देखा जा सकता है। लोकभाषाओं की तो चाल और जमीन हिन्दी से अलग है। 
~सादर/अमरेन्द्र अवधिया

6 टिप्‍पणियां:

  1. अमरेन्द्र भाई,
    आप किसी और सन्दर्भ में किस-किसको लपेटने की कोशिश कर रहे हैं.रामविलास शर्माजी को मैंने भी पढ़ा है,उनकी जीवनी पढ़ी है,जिस पुस्तक का सन्दर्भ आपने दिया है वह भी,पर मुझे कहीं से ऐसा नहीं लगा कि राम बिलास शर्माजी में लोकभाषाओं को लेकर इस तरह का द्वेष है.यहाँ तक कि उन्होंने अपनी और निरालाजी की जीवनी में लोकभाषा के शब्दों को प्रचुर मात्र में स्थान दिया है !

    आपका मुख्य एतराज माँ की शिक्षा या बालक से उसका बोलचाल कड़ी बोली में लेकर है तो इसमें गलत क्या है? आप सोचिये,बिना कड़ी बोली के ज्ञान के स्त्री का साहित्य ज्ञान बिलकुल सीमित नहीं हो जायेगा? हमारी लोकभाषा आपसी बोलचाल के दायरे तक ठीक है,एक हद तक साहित्यिक रसास्वादन में भी,पर खड़ी बोली के जाने और माने बिना कितना कुछ हो सकता है.

    तुलसी ने अवधी में लिखा मगर केवल अवधी नहीं और सब तुलसी नहीं हो सकते .आधुनिक हिंदी साहित्य में रमई काका की पहचान सीमित क्यों है ?
    महावीर प्रसाद द्विवेदी खड़ी बोली और स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे,इसीलिए कि जब घर में माँ को हिंदी साहित्य का ज्ञान होगा तो बच्चे को अतिरिक्त लाभ मिलेगा.
    अवधी ,भोजपुरी या अन्य बोली,भाषाएँ एक सीमित प्रभाव रखती हैं और इसे ही समझकर शर्माजी ने यह धारणा दी होगी.वे स्वयं अंगेजी के प्रोफ़ेसर थे पर हिंदी में लिखना उन्हें सहज लगता था!
    बंधु ,आपने अपना मंतव्य भी ,कई शोधपत्र भी लोकभाषा के बजाय खड़ी बोली में लिखा है !

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    1. संतोष जी, आप लोकभाषाओं को लेकर अपनी सोच को बेहतर कीजिये, हिन्दी-लठैत राम विलास शर्मा की पूजा से बाज आइये, मैंने रामविलास शर्मा से इतर चार लोगों का जिक्र किया है, उनका अध्ययन कीजिये, जब तक आप हिन्दी-दंभ में सोचेंगे तब तक आपको सब `लपेटना' ही दिखेगा.
      खड़ी बोली-हिन्दी में लिखने का यह मतलब नहीं होता कि खड़ी बोली की चिरकुटई की आलोचना न करूं! सादर..!

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  2. लोकभाषा के पक्ष में इतना जोरदार तर्क प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई। हिंदी ब्लॉग पर आपका दूसरा आलेख भी पढ़ा। वह भी दमदार है।

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  3. अली जी की यह टीप किसी तकनीकी व्यवधान वश नहीं आ सकी थी, प्रस्तुत है:

    ''इन दिनों आप फुलफ़ार्म में हैं ! शानदार पे एक चटका लगाया है ! अगर मौक़ा मिला तो इस पूरी आलेख माला पर एक साथ टिपियाया जाएगा :) ''

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  4. हाँ भाई, भिखारी ठाकुर हों या कोई भी लोकभाषा का लेखज- कवि उसे सम्मान तो मिलना ही चाहिए... साहित्य के इतिहास में भी... ... और सरकार द्वारा भी...

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