यह फेसबुक पर हुई एक बहस का संग्रहण है. यह बहस महीनों पहले हुई थी . मेरे फेसबुकीय पेज पर. बात कविता से शुरू हुई थी और फिर हिन्दी और लोकभाषाओं की और बह गयी. यह सब तकनीकी प्लेटफार्म की मेहरबानी भी रही जिसमें लचीलापन होता है. ठोस अनुसासन नहीं. पर कुछ काम की बातें हैं यही सोच इनका संग्रह करना उचित समझा. इसमें १७७ कमेन्ट थे, लगभग सभी को रख देने का प्रयास किया हूँ , सब आ भी गए हैं. `बुद्धिमान उल्लू' संज्ञा गिरिजेश जी की है जिसे उन्होंने इन दिनों फेसबुक पर स्वयं के लिए रखा है. जिन्हें रूचि हो पढ़ सकते हैं पर बोर भी हो सकते हैं, सो आपकी मर्जी :)
Saurabh
Pandey शरदजोशी
ने इसे ठीक उलट अंदाज़ में कहा था ..
"मैं ज्यादा लिखता हूँ इसलिये मैं घटिया लेखक हूँ.. . "
"मैं ज्यादा लिखता हूँ इसलिये मैं घटिया लेखक हूँ.. . "
July 6 at 12:31am ·
मानसजी प्रणाम.
July 6 at 12:38am · Like
o Amrendra Nath Tripathi सौरभ जी, शरद जोशी जी व्यंग्य
के धनी हैं, व्यंग्य का ट्रेंड रहा है कि परिवेश की विसंगति को स्वयं पर लाकर दिखा
देना, इसमें उस छटपटाहट की करुण आहट भी रहती है जहां कह सकने का स्पेस घटा
हो!
July 6 at 12:39am · Like ·
6 people

o Bodhi Sattva सहमत....
July 6 at 12:39am ·
o Saurabh Pandey सही कहा आपने.. तभी
तो शरदजी को उद्धृत कर आपको अनुमोदित किया मैंने.
July 6 at 12:41am ·
o Amrendra Nath Tripathi सौरभ जी, आपका सतत स्मरण रहा, सोच रहा था कि इस
महीने के अंत तक व्यस्तता से थोड़ा हलुक हो आपके दरवाजे पर हल्ला करूंगा! आपका
आशीष मिला, अच्छा लगा! सादर..!
July 6 at 12:44am · Like ·
1 person

o Saurabh Pandey माईं बहुत मिस करता
हूँ.. ओबीओ पर कभी आइये न.
July 6 at 12:50am ·
o महेश चन्द्र मिश्र जी उनके जीवन में
अन्य पदार्थों की अधिकता काव्य-पदार्थ को विस्थापित कर देती है.... काव्य-पदार्थ
को बनाए रखने के लिए स्वयं अपदार्थ होना पड़ता है निराला हों अथवा
नागार्जुन....आपका कथन हिंदी रचनाधर्मिता की एक झुठ्लायी जा रही सच्चाई को उजागर
करता है..धन्यवाद |
July 6 at 12:54am ·
o Priyankar Paliwal यह ज्यादा उपयोग
(यानी दुरुपयोग) और गैररचनात्मक उपयोग से त्रस्त सभी बड़ी मानक भाषाओं की त्रासदी
है. ताज़गी और रस को एक औसत उपयोगितावाद विस्थापित कर देता है. औसत आदमियों/कवियों
की औसत भाषा पदार्थ उतना ही होगा जितना औसत आदमी की क्षमता है. हिंदी भाषा बेचारी
का क्या दोष . राजभाषा का और साहित्य ?
July 6 at 1:12am ·
July 6 at 1:14am · Like
o Amrendra Nath Tripathi प्रमाण-स्वरुप इस
कविता को देखिये :
''कार से टकराते हुए
बचा वह आदमी भी
कार चलाती स्त्री को
देखकर मुस्कराया
गोया औरत के हाथों
मर जाना भी
कोई सुख हो ! ''
--- यह हमारे समय के हिन्दी बड़े युवा कवि की कविता है, हालिया तद्भव पत्रिका में छपी| कई पुरस्कार जीत चुके हैं, बड़े लोगों की प्रशस्तियाँ साथ में हैं| इस कविता में क्या विशेष काव्यत्व है, मेरी समझ में नहीं आया, अति सामान्य दर्जे की कविता लगी मुझे, ऐसी ही कई अन्य कवितायें ढकेली हुई हैं !
पालीवाल जी, हिन्दी में जितना फर्जीवाड़ा चलता है, उसे उतने ही ध्वनिमत की सराहना मिलती है! ऐसी विवेक-कुंद खेमेबाजी , सेटिंग और अंध-प्रोत्साहन अन्य जगह कम दिखा !
बचा वह आदमी भी
कार चलाती स्त्री को
देखकर मुस्कराया
गोया औरत के हाथों
मर जाना भी
कोई सुख हो ! ''
--- यह हमारे समय के हिन्दी बड़े युवा कवि की कविता है, हालिया तद्भव पत्रिका में छपी| कई पुरस्कार जीत चुके हैं, बड़े लोगों की प्रशस्तियाँ साथ में हैं| इस कविता में क्या विशेष काव्यत्व है, मेरी समझ में नहीं आया, अति सामान्य दर्जे की कविता लगी मुझे, ऐसी ही कई अन्य कवितायें ढकेली हुई हैं !
पालीवाल जी, हिन्दी में जितना फर्जीवाड़ा चलता है, उसे उतने ही ध्वनिमत की सराहना मिलती है! ऐसी विवेक-कुंद खेमेबाजी , सेटिंग और अंध-प्रोत्साहन अन्य जगह कम दिखा !
July 6 at 1:35am · Like ·
12 people

o Saurabh Pandey शब्द जब परिचय छोड़
कर आकार जीनेलगें तो समझिये भाव विस्थापित हुआ.
शब्द जब व्यवहार छोड़ कर प्रकार जीने लगें तो समझिये भाव विश्थापित
हुआ.
भाव का विस्थापन मात्र रचना को नहीं पूरी भाषा को नंगा करता है.
भाव का विस्थापन मात्र रचना को नहीं पूरी भाषा को नंगा करता है.
July 6 at 1:47am · like ·
4 people

o Amrendra Nath Tripathi समस्या एक सीमा तक
सही है, लेकिन अब यही संस्कार बनाता जा रहा है, यही है सफलता का मानदंड भी, व्यापक स्वीकृति का
हेतु भी! आह और वाह का जो जनवादी(?)-परिवेश आज की हिन्दी दुनिया में है, इसके सामने तो
दरबारी रीतिकाल भी लज्जित हो जाए!
July 6 at 2:02am · Like ·
5 people

o Dipankar Mishra खैर हिंदी की सारी
पत्रिकाओं में तो कमोबेश इसी तरह की कवितायेँ दिखती हैं.तो मै तो इसे हीं अपने
अल्प ज्ञान के कारण समकालीन हिंदी काव्य का स्तर मानता हूँ, अलबत्ता आजकल हिंदी
के अच्छे कवि ,अगर हैं तो , क्या लिख रहे हैं कुछ सुचना दीजिये बड़ी कृपा
होगी .
July 6 at 2:10am · like ·
5 people

o Dipankar Mishra और लोग बुरा न माने,लेकिन कहे बिना रहा
नहीं जाता कि आपके स्टेटस पर आये अधिकांश कॉमेंट्स को देखकर लग रहा है कि ये लोग
इसी भाषा में आपस में संवाद करते हैं क्या? अगर हाँ ,तो फिर ये भाषा तो अपन के सर के ऊपर से
निकल गयी और और एक हीं तथाकथित हिंदी प्रदेश का होने के बावजूद शायद मै इन लोगों
से सम्वाद न कर सकूँ ........कहना न होगा कि ऊपर लिखी लाइनों एक सम्बन्ध हिंदी
काव्य कि समस्या से भी जुड़ता है .
July 6 at 2:24am · like ·
4 people

o Amrendra Nath Tripathi दीपांकर जी, जब आपने कहा की
हिन्दी के किसी कवि को बताऊँ, तो मैंने इस प्रश्न को इस तरह लिया की जैसे कोई
किसान पूछा हो कि कोई आज की हिन्दी कविता बाँचो, हमहूँ समझें| और दुर्भाग्य से जो भी सुनाऊं वह कहे कि
ऊपर से गुजर गयी| वह तो हिन्दी का ग्रामर ही नहीं पकड़ पाता, यह ऊंची उड़ान वाली कविताई तो अलग की चीज
रही! सच तो यह है कि हिन्दी में ऐसे कवियों का नितांत अभाव है, जिसे एक साथ गाँव का
किसान, हिन्दी का प्रोफ़ेसर, किराना का दुकानदार, हिन्दी से अलग अनुशासन में पढ़ रहा
विद्यार्थी, हमारी अनपढ़ आजी, और भगेलू दादा एक साथ समझ सकें, हाँ कुछ लोक-भाषा के
लोक गीत, लोक-मसाले जरूर होंगे जिसे अधिकाँश रस ले सकेंगे| ऐसा किसी का नाम बता
पाने में असमर्थ हूँ, जो आज की हिन्दी पत्रिका का हिन्दी-मुकुट-मणि हो
और उसकी जन-भाषोचित बृहत्तर पहुँच हो! यह एक अलग पर अहम व तर्कपूर्ण मसला है! हाँ
यह सच है कि यहाँ की कमेन्ट की बातचीत भी जनभाषा में नहीं है, इसे बहुत से लोक
नहीं समझ सकेंगे, जिसमें ढेर कहने के बाद भी लोक-भाषा अल्प में ही ढेर समोने की साफगोई
नहीं है! यहाँ राजभाषा-सुलभ अमूर्तन अधिक है! मैं स्वयं इसका प्रमाण हूँ! बहुधा मैं
संप्रेषित नहीं हो पाता हूँ!
July 6 at 3:23am · Like ·
9 people

o Dinesh Srivastava ANT:
Thanks for having a decent and meaningful discussion.
July 6 at 6:27am · like ·
2 people

o बुद्धिमान उल्लू भोजपुरी कविताई का नमूना - भोलानाथ गहमरी:
iत के हम हर कड़ी से पूछलीं, पूछलीं राग मिलन से,
छन्द छन्द लय ताल से पूछलीं, पूछलीं सुर के मन से
हिया हिया में पइस के पूछलीं, पूछलीं नील गगन से
कवने अतरे में लुकइलू, अहि रे बालम चिरई!
छन्द छन्द लय ताल से पूछलीं, पूछलीं सुर के मन से
हिया हिया में पइस के पूछलीं, पूछलीं नील गगन से
कवने अतरे में लुकइलू, अहि रे बालम चिरई!
July 6 at 6:43am · like ·
7 people

o Santosh
Chaturvedi amrendra jee, mai aapki is baat se sahamat hu. hindi ke
hamare kavi gan pata nahi kis khamkhyali me dube rahte hai. darasal koe bhi
rachna karna 'EK AAG KA DARIYA HAI AUR DUB KE JANA HAI'. mujhe aksar svayam hi
apne likne se asantusti rahati hai. visay ke sath kitna nyay kar paya hu ise le
kar bhi sanshay bana rahta hai. rhai lok ki baat to log apni kavitaao me uska
tadka laga kar pesh karte hai jaise duniya ka koe aascharye unhone udghatit kar
diya ho. sampresaniyata ka abhav rachna ko na kewal klist apitu lok se bhi door
karta hai. ek abujh mayalok ka srijan karta hai.
July 6 at 7:37am · like ·
2 people

o Mohan Shrotriya abhi ek
tippani ki thi, vah dikhee aur ghaayab hogayee. achchhaa sawaal uthaayaa hai,
par kya yah vaastav mein sambhav hai ki kisi kavi ki kavita ek saath sab logon
ki samajh mein aajaaye? kyaa yah sirf bhasha-muhavare ka maamlaa hai ya isse
bhi adhik kavi ke jeevan-anubhav ka maamlaa bantaa hai? taajjub nahin hona
chahiye ki kaviyon-lekhakon ka anubhav-sannsaar nirantar simattaa/sankuchit
hotaa jaaraha hai. jan-bhasha ka bhi koi manak roop toh hai nahin. phir bhi,
saarthak charchaa ki sambhaavanaaein prabal hain basharte kavi bhi bahas mein
shaamil hon. baddhaai.
July 6 at 7:41am · like ·
4 people

o Ravi Kumar amrenra
ji aapki baat se sahmat hoon,ye kavita pankaj chaturvedi ki hai aur naya
gyanoday me chapi hai,chaturvedi ki do teen aur ghatiya kavitayen isi me saya
hui hain...hindi ki jitni bhi patrikayen nikal rahi hain unme kavitaon ka star
ekdum nimn koti ka hai...hindi sahitya me mulyankan ki ek kasuti hai ki:rachna
per baat krne se pahle rachnakar ko mahan ghosit kr do,murad ye ki nirala mahan
pahle hain aur kavi baad me,muktibodh ya shamsher ki kavitaon se pehle unke
jivan shangharh ke baare me bata diya jata hai,is ka sidha niskarsh nikalta
hai...mahan aadmi ki mahan kavita....
July 6 at 8:27am · like ·
6 people

o संतोष त्रिवेदी Santosh Trivedi zaahir
hai jab lekhan samaj aur sahitya ko drishtigat nahin likha jayega,vyavsayikta
uska avmoolyan kar deti hai...yadi maine sahi pakda hai to..!
July 6 at 8:27am · like ·
2 people

o Swapnil Tiwari सचमुच.....
July 6 at 10:40am · like ·
1 person

o संतोष त्रिवेदी Santosh Trivedi jayega
=jaa rahaa
July 6 at 10:43am · Like
o Dipankar Mishra रवि जी की टिप्पणी
देवनागरी में - " अमरेन्द्र जी आपकी बात से सहमत हूँ ,ये कविता पंकज
चतुर्वेदी की है और नया ज्ञानोदय में छपी है .चतुर्वेदी की दो तिन और घटिया
कवितायेँ इसी में साया हुई हैं ....हिंदी की जितनी भी पत्रिकायें निकल रही हैं
उनमे कविताओं का स्तर एकदम निम्न कोटि का है ...हिंदी सयित्य में मूल्यांकन की एक
कसौटी है कि रचना पर बात करने से पहले रचनाकार को महान घोषित कर दो ,मुराद ये कि निराला
महान पहले हैं और कवि बाद में ,मुक्तिबोध या शमशेर की कविताओं से पहले उनके जीवन
संघर्ष के बारे में बता दिया है ,इसका सीधा निष्कर्ष निकलता है ..महान आदमी की
महान कविता ..."
July 6 at 11:36am · like ·
1 person

o Gita Pandit जिसे आप सही मायने में कविता मानते हैं
मैं चाहती हूँ उसके कुछ उदाहरण अवश्य दें..... एक अच्छी चर्चा जिसकी बहुत समय से
आवश्यकता महसूस हो रही थी...." क्या जनवादी कविता ही असली कविता
है......" जयशंकर प्रसाद ने जो कहा फिर वो....'वियोगी होगा......कविता अनजान.....क्या था
...??
July 6 at 11:42am · like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi रवि जी, पत्रिका का नाम
करेक्ट करने के लिए शुक्रिया ! मैंने कवि का नाम न लेना चाहा और आपने तो पूरा
हवाला रख दिया ;-) .....बाकी मूल्यांकन में महानता को लेकर आपने जो कहा
है, उससे
सोरहौ आने सहमत हूँ, उल्टे किसी किसी की उपेक्षा इसलिए होती है की वह
.........ऐसे जीवन संघर्ष में नहीं रहा, दलाली के चिट्ठे तक सूक्ष्मदर्शी से खोजे
जाते हैं, फिर खारिजीकरण की अ-साहित्यिक क्रिया!
July 6 at 1:08pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi @Gita जी, सही कविता के लिए आपने कहा तो इस प्रश्न
को देखिये भक्तिकाल के साहित्य पर विचार करते हुए, वह सैंकड़ों साल पहले का है पर है आज भी
व्यापक/पुरअसर ! क्या कारण ? साफ है वह उस पाठक वर्ग के लिए संबोधित है जो झोपड़ी
में है, जो बहुतायत में है, कबीर-सूर-तुलसी-मीरा के होने में उनकी भाषा और
पाठक-केन्द्रित सोच दोनों अहम है, आज का हिन्दी साहित्य किस पाठक के लिये लिखा जाता
है? पाठक
कहां है? उल्टे बड़े होने की तैय्यारी में आलोचक केन्द्रित होकर लिखा जाता है, विचारधारा और जाने
क्या क्या रखकर! एक खास किस्म की कृत्रिमता का लेखन! कभी कभी योरपीय साहित्य की
रीमिक्स में स्वयं को गौरवान्वित समझना! यह सब जन-कटाव का कारण है। इसलिये वर्तमान
की कविता की पहुंच का दायरा ज्यादा क्षेत्रफल से चूकने के साथ साथ हृदय पर असर
डालने से भी चूका है।
July 6 at 1:25pm · Like ·
6 people

o Chandrashekhar Chaubey Amrendra
ji ,जब सारे पाठक कविया
जाएंगे तो यही होगा !
July 6 at 1:37pm · like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi ;-)
July 6 at 1:38pm · Like
o Dinesh Srivastava Gita
Pandit: Ma'm, it might amuse you to know that the best poet this country
produced in modern times- Tagore- was criticized severely by the
"Janawadi"s for writing about esoteric subjects when ....
July 6 at 1:44pm · like ·
6 people

o Anurag Arya अभिव्यक्ति की बाढ़ में बहने वाली सबसे
पहली चीज़ कविता ही है.......
July 6 at 2:00pm · like ·
1 person

July 6 at 2:28pm · Like ·
3 people

o Saurabh Pandey भाई दीपंकरजी को
अमरेंद्रजी का संतुलित उत्तर संतुष्ट कर पाया होगा. इस आशा के साथ मैं आगे कुछ
नहीं कहूँगा. वैसे आप बुरा न माने तो इस तरह से अनायास लगते मगर सायास सवाल उछाल
कर अपने को हिन्दी का बेलौस हितकारी समझना हिन्दी-साहित्य की इतनी क्षति कर चुका
है कि क्या कोई तथाकथित ’जनवादी’ कवि या लॉबीकार कर पाया होगा. हिन्दी की
रचनाएँ लाई-भूँजा नहीं हुआ करतीं कि चिल्लर फेंक चबेना बना लिया जाय. एकदम नहीं
होनी चाहिये.
जिन सूर-तुलसी-कबीर या आज के ही महान रचनाकारों की रचनाओं के कालजयी
होने की या उनके प्रतिबद्ध होने की बात की जा रही है, उन्हीं सूर-तुलसी-कबीर आदि को कौन समझा है
बिना लगाव या प्रयास के???
July 6 at 3:05pm · Like ·
2 people

o Saurabh Pandey क्लिष्ट क्या हैं? क्या अबूझ है? यदि तैयारी नहीं है
तो क्या आप तेरह का पहाड़ा एक-सुर में बोल सकते हैं? नहीं.. हिन्दी तचनाएँ ही नहीं हर विषय का
ककहरा हुआ करता है. .. गिनती हुआ करती है.. पहाड़े हुआ करते हैं. बिना बेसिक
जानकारी के शोर मचाना कि विषय ही अबूझ है को मैं घटिया शोर और इस तरह के किसी बहस
को थोथा चिंतन समझता हूँ. और इस तरह के किसी प्रयास से उपजे थोथेपन को घटिया
साहित्य. जिसका लक्ष्य मनुष्य कदापि नहीं हुआ करता. और कौन मनुष्य??? किस मनुष्य की बात
हो रही है? आम-आदमी कोई बकरी नहीं है. कि, कुछ भी हरा-हरा खिला दिया जाय. साहित्य का
लक्ष्य सीख देना भी है. क्यों नहीं तैयार होते?
इस बात पर अलबत्ता मैं अमरेंद्रजी का अनुमोदन करूँगा कि बकवाद को
साहित्य न माना जाय. मैं समझता हूँ कि इस बहस का मर्म इस के ही इर्द-गिर्द है और
हम इसी के गिर्द रहें. वर्ना अ-पाठक के हड़बोंग मेम् सारा कुछ नष्ट होता रहा है और
आगे भी ऐसा ही होता रहेगा.
//Tagore- was criticized severely by the "Janawadi"s for writing about esoteric subjects when ....//
Dineshji, thanks for your hints.
//Tagore- was criticized severely by the "Janawadi"s for writing about esoteric subjects when ....//
Dineshji, thanks for your hints.
July 6 at 3:22pm · Like ·
1 person

o Saurabh Pandey @ Gita Pandit
//क्या जनवादी कविता ही असली कविता है..//
यह ’जनवादी’ है क्या?.. क्या जनेतर रचनाएँ भी होती हैं?? आपका इशारा बड़ा सटीक रहा. धन्यवाद.
यह ’जनवादी’ है क्या?.. क्या जनेतर रचनाएँ भी होती हैं?? आपका इशारा बड़ा सटीक रहा. धन्यवाद.
July 6 at 3:27pm · Like ·
2 people

o Gita Pandit जी...भाषा के दुरूहता एक कारण रही है जो
हिन्दी का विकास उस स्तर तक नहीं हो पाया जैसा कि होना चाहिए था...साहित्य केवल
कोर्स की किताबों तक सिमट कर रह गया ...आज कविता की भाषा रीतिकालीन भाषा हो ही
नहीं सकती ..जन मानस तक पँहुचने के लियें क्या आम बोलचाल की भाषा में सहज
अभिव्यक्ति की आवश्यकता है...सायास लिखी गयी रचना को कविता का नाम नहीं दिया जा
सकता...
July 6 at 3:36pm · Like ·
3 people

o Dipankar Mishra खैर हिंदी का
हितकारी होने का दावा तो मेरा कभी नहीं रहेगा .मेरी मातृभाषा भोजपुरी है ,अमरेन्द्र जी की
अवधी है और इनके विकास में बाधक होने पर मैं सायास हिंदी की छति करूँगा ,ये भी कहता हूँ ..और
जिन कविताओं को पढने से पहले डॉ रघुवीर का कोष उलटना पड़े वे कविताएँ मेरे दायरे की
नहीं हैं और ये मेरी सीमा है ये भी मानता हूँ .@Saurabh Pandey और हिंदी की तो नहीं
लेकिन भारत के आम जन की कविता चाहे वो जिस भाषा में हो उसे लाई भूंजा हीं होनी
चाहिए जिसे चिल्लर फ़ेंक चबेना बना लिया जाए .....
July 6 at 3:39pm · Like ·
2 people

o Saurabh Pandey //खैर हिंदी का हितकारी होने का दावा तो
मेरा कभी नहीं रहेगा .मेरी मातृभाषा भोजपुरी है ,अमरेन्द्र जी की अवधी है और इनके विकास
में बाधक होने पर मैं सायास हिंदी की छति करूँगा ,ये भी कहता हूँ ..//
भाई अमरेंद्रजी, ये कौन सी लॉबी बना कर बैठ गये?? कहाँ-कहाँ कोट होने लगे?? आप तो ऐसे न थे.
//और जिन कविताओं को पढने से पहले डॉ रघुवीर का कोष उलटना... पड़े वे कविताएँ मेरे दायरे की नहीं हैं और ये मेरी सीमा है ये भी मानता हूँ //
प्रयास करते रहिये. सतत प्रयास आपकी सीमा की परिधि स्वयं बढ़ाता जाएगा. सच मानिये, शब्दकोष पलटने की आवृति भी धीरे-धीरे कम होती जाएगी. :-)))
साहित्य बैठ कर नहीं, सदा इंगित करके पढ़ाता है. इसे ही हमने ’साहित्य का सिखाना’ कहा है.
// हिंदी की तो नहीं लेकिन भारत के आम जन की कविता चाहे वो जिस भाषा में हो उसे लाई भूंजा हीं होनी चाहिए जिसे चिल्लर फ़ेंक चबेना बना लिया जाए//
ये आमजन है कहाँ? कबीर को या तुलसी को आमजन का रचनाकार कहते हैं क्या? उसके मानस की चौपाइयों को, छंदों को लाई-चना समझा क्या आपने?? ऐसे ही आमजन के कवियों को मैंने अपने तईं समझने की कोशिश की और गुजरता जा रहा हूँ. परेशान तो कबीर ने भी कम नहीं किया है. और सपाटबयानी रचना नहीं प्रतिक्रिया होती है और इस साहित्य का अलग दायरा है. इस घालमेल से ही सारा बवाल है.
अच्छा छोड़िए.. हम आगे देखें, अमरेंद्रजी के ’वन-लाइनर का मर्म’.
July 6 at 4:29pm · Like ·
1 person

o Saurabh Pandey भाई अमरेंद्र.. मेरी
इस उक्ति पर कुछ कहियेगा-
"सपाटबयानी रचना नहीं प्रतिक्रिया होती है और इस साहित्य का अलग दायरा
है. इस घालमेल से ही सारा बवाल है."
July 6 at 4:31pm · Like ·
1 person

o बुद्धिमान उल्लू विद्वान जनो! एक बात मन में आ रही है सो
सहमते हुये कह रहा हूँ - मनोरंजन, चित्तानुरंजन आदि के बहुविकल्पीय जमाने में
पारम्परिक फॉर्म (माने कागज और अक्षर) वाली कविता आम जन के लिये अब अप्रासंगिक और
निरर्थक हो चुकी है। रही बात संस्कारित करने की तो वह गुण तो बहुत पहले ही खत्म हो
चला है। वैसे संस्कारित होने की पड़ी ही किसे है? ...सलीमा का गाना गाओ, मस्त हो, भूल जाओ, फिर नया गाना गाओ
... सेत्ताराम ... काय कू टेंशन लेना यार!
July 6 at 8:13pm · Like ·
2 people

दीपांकर जी, आयु में मुझसे कनिष्ठ और समझ/बुद्धि में मुझसे
अधिक हैं, एतदर्थ मित्र हैं, इनके साथ में काफी सीखना हुआ है।
मैं मूलतः इस बात से ही असहमत हूं जहाँ यह माना जाय कि पाठक हमें समझने के लिये मेहनत करे, हम पाठक तक न जायें और पाठक मुझ तक आये। मैं विरोधी हूं इस बात का कि पाठक समझने के लिये अनिवार्यतः खास किस्म के शिक्षित/दीक्षित परिवेश में सभ्याचरित हो। वह भाषा जो पाठक के स्तर पर जाकर अपने का साहित्यीकरण न कर सके, वह संस्कृत सी सीमित भाषा हो सकती है, जन भाषा नहीं। वह एक खास ‘तंत्र’ की भाषा हो सकती है, जनभाषा नहीं। हाँ, हिन्दी को मैं जनभाषा नहीं मानता। हिन्दी उस परंपरा को देशभाषाओं के गला-घोटन के साथ ही कब का छोड़ आयी है, जिसमें कबीर थे, भक्ति काल का स्वर्णाभ था, जिसमें भिखारी ठाकुर रहे, रमई काका रहे। इन्होंने पाठक से सु-शिक्षित होने की कभी भी माँग ही नहीं की। इनकी साहित्यिकता पर क्या किसी को संदेह है?? वह कवि जो छाती ठोंक के कह रहा है ‘मसि कागज छुयो नहीं कलम गही नहिं हाथ’ वह भला क्यों पाठक के सु-शिक्षित होने की शर्त चाहेगा।
मैं मूलतः इस बात से ही असहमत हूं जहाँ यह माना जाय कि पाठक हमें समझने के लिये मेहनत करे, हम पाठक तक न जायें और पाठक मुझ तक आये। मैं विरोधी हूं इस बात का कि पाठक समझने के लिये अनिवार्यतः खास किस्म के शिक्षित/दीक्षित परिवेश में सभ्याचरित हो। वह भाषा जो पाठक के स्तर पर जाकर अपने का साहित्यीकरण न कर सके, वह संस्कृत सी सीमित भाषा हो सकती है, जन भाषा नहीं। वह एक खास ‘तंत्र’ की भाषा हो सकती है, जनभाषा नहीं। हाँ, हिन्दी को मैं जनभाषा नहीं मानता। हिन्दी उस परंपरा को देशभाषाओं के गला-घोटन के साथ ही कब का छोड़ आयी है, जिसमें कबीर थे, भक्ति काल का स्वर्णाभ था, जिसमें भिखारी ठाकुर रहे, रमई काका रहे। इन्होंने पाठक से सु-शिक्षित होने की कभी भी माँग ही नहीं की। इनकी साहित्यिकता पर क्या किसी को संदेह है?? वह कवि जो छाती ठोंक के कह रहा है ‘मसि कागज छुयो नहीं कलम गही नहिं हाथ’ वह भला क्यों पाठक के सु-शिक्षित होने की शर्त चाहेगा।
July 6 at 8:55pm · Like ·
5 people

o महेश चन्द्र मिश्र भाई अमरेन्द्र जी
आपने महत्त्वपूर्ण बात कही है , पर मुश्किल यह है कि सारी बातें बड़ी जल्दी शब्दों
के घुमेर में पड़कर रह जाती हैं | वस्तुतः यह प्रश्न भाषा का नहीं कवि के
अपने जीवन का है , इसे नकारना संभव न होगा कि कविता केवल
बुद्धिविलास नहीं, वह अपने मूल में कहीं न कहीं कवि की जिंदगी को समेटे रहती है | काव्य-पदार्थ तो
अनुभूति की उच्चावच स्थितियों से ही उपजता है, फिर फिर अपनी प्रकृति के अनुरूप भाषा में
ढलकर सार्वजनिक होता है ; यहाँ कवि की बौद्धिकता का का स्थान है पर इससे
पहले जो 'जीवन' है वह क्या है ? इसे देखना पड़ेगा |प्रियंकर पालीवाल जी की बात अवधेय है
उपयोगिता के सम्बन्ध में...बल्कि इसे अज्ञेय के उस कथन से संदर्भित करना चाहिए
जिसमे वो कहते हैं कि कविता (अथवा किसी भी कला के) साधक को अपनी कला से भिन्न
आजीविका का साधन चुन लेना चाहिए | रेलगाड़ियों में '२-२ पैसे की कितबिया' बेचने वाले बाबा
नागार्जुन का 'काव्य पदार्थ' मुक्तिबोध अथवा धूमिल का काव्य पदार्थ उनकी
जिन्दगी से उपजा....आज हम आप इस समस्या को जिन कवि और कविताओं संदर्भित कर सकते
हैं बिना नामोल्लेख के मैं कहना चाहता हूँ कि उनकी जिंदगी कविता को कहाँ छूती है ? इनसे ज्यादा तो राजू
श्रीवास्तव और एहसान कुरैशी के व्यंग्य जिन्दगी को छूते है......महावीर प्रसाद
द्विवेदी जी ने एक जगह कहा है कि कविता असभ्य समाज की चीज है , पहले मैं इस कथन से
खिन्न था पर फिर इसे समझने का प्रयास किया , तो लगा कि अपेक्षाओं की पूर्तियों के साथ
कविता की जगह सिमटती जाती है मंगलेश डबराल , लीलाधर जगूड़ी या फिर हाल के दौर में अपने
मुहावरों से नामवर जी तक को चौंकाने वाले अष्टभुजा शुक्ल तक यही कहानी है | दीपांकर जी का तेवर
सराहनीय है पत्रिकाएं क्यों निकल रही हैं इसको ये उनकी प्रबंधकारिणी ही जाने | मानक है 'सर्कुलेशन' वेदप्रकाश शर्मा के
उपन्यासों या उन जैसी अन्य किताबों का का भी कम नही, इस सवाल को यूँ ही नही ताल सकते कि कोई एक
समकालीन कविता सुनना चाहे तो उसे क्या सुना दिया जाय | जिंदगी जितनी उथली
हो चली है उसमे किसी गहरायी की अपेक्षा ही बेमानी होती जा रही है.......
July 6 at 9:00pm · like ·
7 people

o Amrendra Nath Tripathi रही बात
सपाटबयानी..साहित्य ..आद आद की तो यह रमई काका की कविता काफी कुछ स्पष्ट कर रही है, साहित्य के संदर्भ
में भी::
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‘‘ हिरदय की कोमल पंखुरिन मा,जो भंवरा अस ना गूँजि सकै |
उसरील हार हरियर न करै , टपकत नैना ना पोंछि सकै |
जेहिका सुनिकै उरबंधन की बेडी झनझनन न झंझनाय |
उन प्रानन मा पौरूख न भरै , जो अपने पथ पर डगमगाय |
अन्धियारू न दुरवै सबिता बनि, अइसी कबिता ते कौनु लाभ ?”
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‘‘ हिरदय की कोमल पंखुरिन मा,जो भंवरा अस ना गूँजि सकै |
उसरील हार हरियर न करै , टपकत नैना ना पोंछि सकै |
जेहिका सुनिकै उरबंधन की बेडी झनझनन न झंझनाय |
उन प्रानन मा पौरूख न भरै , जो अपने पथ पर डगमगाय |
अन्धियारू न दुरवै सबिता बनि, अइसी कबिता ते कौनु लाभ ?”
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July 6 at 9:02pm · Like ·
3 people

o महेश चन्द्र मिश्र बड़े भैया ! जे
अंधियारे माँ है ते अंधियार दुरावै कै जुगुति करै, यै समकालीनै तौ हजारन वाट माँ चमचमात हैं
इन्हैं कविता का सविता बनावै कै का परी है..आप तौ राजधानी माँ हौ...सब देखत समझत
हौ....
July 6 at 9:09pm · Unlike ·
6 people

o Amrendra Nath Tripathi मराल भइया, जब हियां देखेन कि
सब कुछ धंधा के माफिक चलत है, बाहर से अउर, अउर तरे तरे अउरै कुछ! .. सही कहे रहे
तुलसीदास(भिन्न माहौल मा भलहूँ) कि ‘सिर धुनि गिरा लागि पछिताना’!!
July 6 at 9:21pm · Like ·
3 people

o महेश चन्द्र मिश्र बोली कै कविता
अबहिओं बड़ी गरुहर है कहूँ-कहूँ , यही लिये की ऊ पीर से उपजी है...रमई काका , भिखारी ठाकुर, औ पढीस जी से लइकै
मोती बी ए औ धरीक्षण मिसिर तक कविता 'काढ़ा' रही,फूंकि-फूंकि पियैक परत रहा मुला रही बड़ी
अक्सीर , अब 'काफी' है बुज्जा भरा है... फूंकि दियौ जोर से तौ उड़ि जाय अइसै कबितौ कै हालि
है...
July 6 at 9:21pm · like ·
4 people

o महेश चन्द्र मिश्र बस अइसै है तमाम
कुछ...किसान के दुःख से गला जात हैं औ ५० कै पांच टिशू से आंस पोंछत हैं..असह्य
आडंबर...अपने शब्द-वमन का कविता कहवावै खातिर रोज नया साहित्य-शास्त्र रचत हैं....
July 6 at 9:30pm · like ·
4 people

o बुद्धिमान उल्लू गुरा जी से अच्छा ग्यान पाये आचारज जी!
जुमला फेंको और फिर तमाशा देखो। बीच बीच में अगियारी भी करते चलो कि प्रबचन जारी
रहे। ...बढ़िया है!
July 6 at 9:47pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi Rao जी, हा हा हा ! बिलकुल गुरू जी कै सिस्य होई! उनके
विराट पांडित्य के समझ विनम्र हूं, पर हूं कुजात शिष्य! ..भाय, पटरी नाय बैठत!..औ ई
जुमला फेंकना तो हिन्दी का संस्कार है, अपन तो इसी के खिलाफ हैं, आप हम्हीं को धरपेट
रहे हैं!!..क्या कहूं!!
July 6 at 9:56pm · Like ·
2 people

o महेश चन्द्र मिश्र हल हुए हैं मसअले
शबनम मिजाजी से मगर ,
गुत्थियाँ ऎसी भी हैं जिनको कि सुलझाती है आग...
तो अगियारी हर बार तमाशा देखने के लिए नही होती | जीवन के सन्दर्भ में उसकी अपनी जगह है..
तो अगियारी हर बार तमाशा देखने के लिए नही होती | जीवन के सन्दर्भ में उसकी अपनी जगह है..
July 6 at 10:31pm · like ·
2 people

o बुद्धिमान उल्लू वाह वस्ताद! क्या बात है!!
July 6 at 10:33pm · Like ·
1 person

o बुद्धिमान उल्लू काव्य-पदार्थ को परिभाषित करें आचार्य!
समस्त उत्तरापथ आप को आशा भरी दृष्टि से निहार रहा है।
July 6 at 10:40pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi :) । गिरिदेव, आप कवि हैं, हिन्दी वाले कवि हैं, इसलिये यह मानने की
धृष्टता जरूर करूंगा कि आपको ‘काव्य’ का बम्फाट अर्थ पता होगा, बाकी ‘सकल पदारथ हैं
जगमाहीं....’ से पदार्थ-अर्थ निकालने में आपको दिक्कत नहीं होगी, आश्वस्त हूँ। बाकी
उत्तरापथ भाड़ में जाय मुल आप जैसे विज्ञ को छोड़ किसी को अर्थ-ग्रहण में दिक्कत
नहीं हुई, इसके लिये भी आश्वस्त हूँ! ;-)
July 6 at 10:49pm · Like ·
2 people

o बुद्धिमान उल्लू ;) हम कब से कवि हो गये? हे प्रभु ! बख्श दो। आप मुला लिखना चाह
रहे थे शायद? ... आप की आश्वस्ति से चिंता का उन्मेष हो रहा है। उन्मेष का प्रयोग सही
किया न ? ... चलिये अब सोवा जाय। निशाचर अब उपराने लगे हैं। :) आनन्ददायी रही यह
चर्चा।
July 6 at 11:01pm · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi यक्कौ काम केरी बात
नहीं किये, उल्टे आप राजभाषा-अधिकारी लगि रहे हैं, जनभाषा में कुछ लिखिये, हम तौ जौन कर रहे
हैं, जग-जहिरै
है प्रभु! ....‘नवोन्मेषशालिनी-आशा’ कैसा रहेगा?, आत्मतृप्तिदायी होगा?....हा हा हा
...शुभरात्रि, शब्बा खैर !!
July 6 at 11:10pm · Like ·
2 people

July 6 at 11:13pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi उर्मिल-शुभ-कामना!!
July 6 at 11:16pm · Like ·
2 people

लिये मेहनत करे, हम पाठक तक न जायें और पाठक मुझ तक आये। //
पाठक हमें समझने के लिये मेहनत करे तथा हम पाठक तक न जायँ और फिर पाठक मुझ तक
आए. धुर विरोधी बातों को एक लहजे में?? यह कब का कैसा आग्रह रहा है?
मैं विरोधी हूं इस बात का कि पाठक समझने के लिये अनिवार्यतः खास किस्म के
शिक्षित/दीक्षित परिवेश में सभ्याचरित हो। वह भाषा जो पाठक के स्तर पर जाकर
अपने का साहित्यीकरण न कर सके, वह संस्कृत सी सीमित भाषा हो सकती है, जन भाषा
नहीं। वह एक खास ‘तंत्र’ की भाषा हो सकती है, जनभाषा नहीं। //
आपसे स्नेहसिक्त अनुरोध है कि आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के निबंध
’मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’ को भी संदर्भ में लें.
महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने पूरी दो पीढ़ियों को संस्कारित किया और आगे आप
स्वयं मनीषी हैं.
जहाँ तक रही हिन्दी के पदच्यूत होने या दायित्त्व से भटक जाने की बात तो संभवतः
विचार ही खूँटे से विलग दीख रहा है. हम क्या छोटी-छोटी गुच्चियाँ नहीं बना रहे
हैं समन्दर की खामखयाली में?? केशवदास जी या कहिये बिहारी तक को जन कवि नहीं
मान सकता, किन्तु साहित्य को खारिज करना... ??!!!
सादर.
पाठक हमें समझने के लिये मेहनत करे तथा हम पाठक तक न जायँ और फिर पाठक मुझ तक
आए. धुर विरोधी बातों को एक लहजे में?? यह कब का कैसा आग्रह रहा है?
मैं विरोधी हूं इस बात का कि पाठक समझने के लिये अनिवार्यतः खास किस्म के
शिक्षित/दीक्षित परिवेश में सभ्याचरित हो। वह भाषा जो पाठक के स्तर पर जाकर
अपने का साहित्यीकरण न कर सके, वह संस्कृत सी सीमित भाषा हो सकती है, जन भाषा
नहीं। वह एक खास ‘तंत्र’ की भाषा हो सकती है, जनभाषा नहीं। //
आपसे स्नेहसिक्त अनुरोध है कि आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के निबंध
’मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’ को भी संदर्भ में लें.
महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने पूरी दो पीढ़ियों को संस्कारित किया और आगे आप
स्वयं मनीषी हैं.
जहाँ तक रही हिन्दी के पदच्यूत होने या दायित्त्व से भटक जाने की बात तो संभवतः
विचार ही खूँटे से विलग दीख रहा है. हम क्या छोटी-छोटी गुच्चियाँ नहीं बना रहे
हैं समन्दर की खामखयाली में?? केशवदास जी या कहिये बिहारी तक को जन कवि नहीं
मान सकता, किन्तु साहित्य को खारिज करना... ??!!!
सादर.
July 7 at 11:36am via · like ·
2 people

o Paritosh Mani साथी आदि काल से
हिन्दी के साहित्य में कचरे ही की मात्र ही अधिक रही ,हाँ कचरे में से ही कभी कभी लाल मिल जाया
करते हैं और जमाना उनके साहित्य को हाथ बड़ा कर स्वीकार करता है ,चिता की बात नहीं
समय और पाठक से बड़ा कोई छननी नहीं है
July 7 at 7:37pm · like ·
1 person

July 7 at 7:43pm · Like
मेरी बातों में “धुर विरोध” नहीं दिखा मुझे। पुनः स्पष्ट करता हूं कि
मैं विरोधी हूं इस बात का कि पाठक समझने के लिये अनिवार्यतः खास किस्म के
शिक्षित/दीक्षित परिवेश में सभ्याचरित हो। पाठक जहां है, जिस भाषा के साथ है, लेखक उसका अनुसरण
करे, न कि
सामान्य पाठक ग्रामर/शब्दकोष/परंपरा-कोष आदि आदि से लैस हो कर साहित्य/साहित्यकार
को समझने का अनुष्ठान/व्रत करे। व्यस्त जनता को इतना सभ्याचरित होने का स्पेस और
समय नहीं है, यह तो कुछेक खाये पिये अघाये या विश्वविद्यालय में तैनात लोग ज्यादा
सही से कर सकते हैं, सामान्य जन यह नहीं कर सकता तो साहित्य को क्या
विशेष जनों की चीज न समझा जाय? निस्संदेह हिन्दी साहित्य तो विशेष जनों की चीज
है, भाषा का
जनता से “कटा हुआ टापू” देखना हो तो हिन्दी-साहित्य से मुफीद उदाहरण नहीं
मिल सकता!
.........जारी।
.........जारी।
July 7 at 8:02pm · Like ·
1 person

o बुद्धिमान उल्लू छायावाद नाम ही गलत है।
July 7 at 8:06pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi राव जी, अब खैर जो नाम है
उसी से काम चलाना होगा, बाकी गीता जी की बात का जवाब दीजिये तो मामला
फबे!
July 7 at 8:07pm · Like
तुलसी की विनय पत्रिका याद आ रही है। विद्वानों के बीच नीरभय नीरगुन
गुन रे गाने का कबीर गन्धर्वी साहस अपन में नहीं।
July 7 at 8:10pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi आर्य-शिरोमणि, साहस कीजिये,
“सीस उतारै, भुइं धरै, तब पैठै घर माहिं!!”[~कबीर]
July 7 at 8:12pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi Saurabh जी, रही बात द्विवेदी जी
की और उनके द्वारा पीढ़ियों के संस्कारित आदि आदि की तो .....कहना चाहता हूं कि सीमाएँ
हुजूर की हैं, द्विवेदी-द्वय की! स्व्तन्त्रता पूर्व वाले दूबे के सामने ब्रज भाषा
और उर्दू के बरक्स हिन्दी लाने का राजनीतिक आयोजन में आहुति का दाय था, वहीं बाद वाले दूबे
जन-भाषा के मसले पर मौन ही रहे, बावजूद की मध्यकाल की जनभाषा पर काफी लिखते रहे, पर अपने ही समकालीन
राहुल सांकृत्यायन की कुछ जन-भाषायी मांग पर अन्य हिन्दी विद्वानों की तरह
सुनियोजित मौन धारे रहे।
और तो और आजादी के बाद वाले दूबे तो अपने साहित्येतिहास ग्रंथ में
भोजपुरी के कबीर को रखे मुला, खुद की मातृभाषा भोजपुरी होने के बाद भी, भोजपुरी के लिजेण्ड
भिखारी ठाकुर को न शामिल कर सके। तो भाई यह तो हुजूर के जनभाषा और साहित्य के समझ
दोनों की सीमा कही जायेगी! सादर..!
.........समाप्त।
.........समाप्त।
July 7 at 8:26pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi @ giri jee, कृपया अर्थ और समुचित विस्तार भी दिया
करें, बामपंथियों की तरह जुमला फेंक के सरक लेना ठीक नहीं। यह अदा आपने
कहां से सीखी??
July 7 at 8:36pm · Like ·
2 people

o Gita Pandit ???? छायावाद नाम नहीं तो क्या नाम है उस काल
का...प्लीज़...कहें...ये चर्चा अपने निष्कर्ष पर अवश्य पंहुचाई जानी चाहिए...
July 7 at 9:10pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi Gita जी, अवश्य! मैं अपनी बात तो कहूंगा ही, लेकिन राव साहब का
वेट कर रहा हूं कि मुझे जुमला फेकू कहने वाले आर्य गिरि जी कितने विस्तार में बात
कह कर मेरा काम कम करते हैं या बढ़ाते हैं ;-)
July 7 at 9:53pm · Like
o Saurabh Pandey उस समय की विधाओं का segregation अपने लिहाज से चल
रहा था. हमने भिखारी ठाकुर को भी और बाद में मोती बीए को भी पढ़ा.. मुखियाजी आरा वाले को भी
सुना.. हिन्दी से बिगाड़ नहीं रहा..
अब हम भी ’जुमला फेंकुओं’ [इस सामासिक शब्द के लिये अमदेंद्रजी
बधाई..] की सीमाओं में उलझ अपने आप पर ही प्रश्न-चिह्न खड़ी करते जा रहे हैं. ऐसा
क्यों. आपने बाँचा है, ओढ़ा है, बिछाया है. हमने भी ओढ़ा-बिछाया है. अब इस
चादर के दायरे को पैबन्द ही सही लगाना गुनाह है क्या कि पैर पसरे?? दुखी हूँ पर निराश
नहीं.
जिन पाठक की चर्चा है.. हुज़ूर.. वो बहाव वाले पानी का भ्रम तो देता है पर नीचेकी ओर रपटता है. वायव्य ही सही कुछ घनीभूत न हुआ तो काय क् रचना साहेब आ काय का कवित्त?? खाम-खयाली इधर भी.. खाये-पीये-अघाये उधर भी.
नज़र में सांकृत्यायन तो रहें मगर बउराना न रहे. सस्नेह-सादर
जिन पाठक की चर्चा है.. हुज़ूर.. वो बहाव वाले पानी का भ्रम तो देता है पर नीचेकी ओर रपटता है. वायव्य ही सही कुछ घनीभूत न हुआ तो काय क् रचना साहेब आ काय का कवित्त?? खाम-खयाली इधर भी.. खाये-पीये-अघाये उधर भी.
नज़र में सांकृत्यायन तो रहें मगर बउराना न रहे. सस्नेह-सादर
July 8 at 1:20pm · like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi Saurabh जी, संवाद अपनों से ही
किये जाते हैं, इसलिये मेरी किसी बात को आप अन्यथा न लेवें, पर जोर दे के कहना
चाहूंगा कि मैं किसी “बउराना” के तहत कुछ नहीं कह रहा, कई बार कहता आया हूं, एक लिंक भी दूंगा
आपके देखने के निवेदन के ्साथ, जहां बहुत कुछ कहा हूं::
http://amrendrablog.blogspot.com/2011/03/blog-post_17.html
आर्य, हमारी मातृ भाषा न तो हिन्दी है, न ही अंग्रेजी। मेरे लिये अवधी मेरा अपना घर है, दूसरी भाषा अपनाना ही हो तो अंग्रेजी क्यों न अपनाऊं, हिन्दी से ज्यादा लाभ और पारदर्शी संभावनायें हैं जहां, वर्षों हिन्दी पढ़कर, और अब शोध करते हुये अपना भविष्य चौपट करने के अतिरिक्त हिन्दी से मैंने कुछ नहीं पाया, मातृभाषा होती तो भी आत्मतुष्टि का भाव कोई ग्लानि न करता। पर हिन्दी १-राजभाषा के ओहदे के साथ स्वार्थलिप्सुओं व अवसर-वादियों की साधना-भूमि है, २-सम्पर्क भाषा है, उत्तर भारत की, जिसे सम्पर्क भाषा बनाने में स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवाद का ठोस आधार है, जो एक समय की जरूरत था उसे क्यों ढ़ोया जाय! .....अब राजभाषा-प्रेम के लिये जो अर्हता चाहिये( अर्हता, जैसे : आत्मा-बेचू-अवसरवाद और धूर्तता की ...आदि) वह मुझमें नहीं है, और संपर्क भाषा के तौर पर अंग्रेजी को ही क्यों न चुनूं जो उत्तर भारत क्या दक्षिन भारत और शेष विश्व से भी संपर्क की संभाव्यता रखती है।
निस्संदेह मैं उतना हिन्दी-विरोधी हूं जितना एक तमिल प्रेमी किसी समय हिन्दी विरोधी हुआ था। अवधी(देषभाषाओं) का दुख उस तमिल-पीड़ा का सगा है, न कि हिन्दी का। पिछले सौ वर्षों में हिन्दी ने जाने कितनों की मातृभाषा छीनी है, और आज भी तर्कहीन राष्ट्रवादी मनोविज्ञान का लाभ लिये जा रही है। Dipankar जी की पीड़ा इसी के विरुद्ध मुखर होकर सामने आयी है, Ravi जी ने संक्षेप में यही कहना चाहा है। Dinesh जी संभव है मेरी बात से इत्तेफाक रखें।
Mahesh मरा ल जी ने सर्कुलेसन को केंद्रीभूत कर अपनी बात कही है, आखिर हिन्दी के एलियन भाषा होने में ये स्थितियाँ नहीं है??
Gita जी ने छायावाद की बात करके सही सवाल किया है, जहाँ से महत्वपूर्ण सूत्र निकलता है, इसका जवाब अपनी तरफ से मैं लिखूगा लेकिन मैं इंतिजार कर रहा हूं बीच बीच जुमला-फेकू की भूमिका निभाने वाले और यही आरोप मुझ पर ठोंकने वाले गिरिजेश जी का, क्या वे कुछ विस्तार दे पाते हैं, या फिर ऐसे ही “जे बिनु काज दाहिने बायें” की भूमिका में आते रहे।
सादर..!
July 8 at 4:24pm · Like ·
3 people

July 8 at 4:28pm · Like
o Dipankar Mishra @ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी -हिंदी के
गढ़ों-मठों पर जो साहसिक हमले आपने किये हैं उसके लिए साधुवाद .लेकिन सावधान आर्य
! ऐसी टिप्पणियां आपकी भविष्य की अकादमिक संभावनाओं पर ग्रहण लगा सकती हैं .
July 8 at 5:07pm · Like ·
1 person

हेतु साधुवाद.
आपके प्रयासों और विन्दुवत विचारों से परिचित हूँ. आप ’बउरा’ नहीं सकते. ठीक.
भाई मेरे, किन्तु..... इस ’किन्तु’ ने सिर्फ़ एक बात ने अगाह करने को मुझे
उत्प्रेरित किया है.. .. अपनी विद्या और अपनी शिक्षा के बीच हम घालमेल न करें.
आपकी कुण्ठा कितनी जायज है या उसका होना कितनों को आकर्षित कर कितना ’अभिभूत’
कर सकता है यह अभी विषयान्तर होगा. एक सादर अनुरोध है कि आप यह तो कत्तई न करें
कि तमिल के नाम पर मची उस ’नाडु’ की निरर्थक सी चिल्ल-पों के सुर में अपनी
सार्थक ऊर्जा को जाया करें. भाषा रोटी का पर्याय होती तो ’माँ’ नहीं कहलातीं.
मैं नहीं जानता आपने तमिलनाडु के उस तथाकथित आन्दोलन को कितने निकट से
जाना-समझा है. उस *हिन्दी-हिन्दु-हिन्दुस्तानी *के प्रति घृणा और सपाट विरोध की
हकीकी मनोदशा क्या थी यह आप अवश्य जानें. आज उसी तमिलनाडु में स्थिति-परिस्थिति
कितनी बदलती गयी है इसे भी हम समझें तो बेहतर. अंचल के आंचल में भाव पनपते हैं.
और बोलियों के जोर पर भाषायें पुष्ट होती हैं. खैर.. अब आपने पैंतरा ही अजीब सा
बदल लिया तो क्या कहूँ??!
साहित्य-क्षेत्र की परिधि में मेरी संज्ञा नगण्य़ और हीन है. किन्तु मुझे पाठक
होने से कोई खारिज़ नहीं कर सकता न. आंचलिकता ने इस पाठक-धर्मिता को जितना बल
दिया है वह मेरी थाती है. उस आंचलिकता को मैं बिसरा नहीं सकता न.
और रही अंग्रेज़ी की बात.. भाषाएँ बुरी कहाँ हुआ करती हैं. हाँ, अंग्रेज़ियत
खतरनाक है न. भाई मेरे, उसी पलड़े में हिन्दी?? मैं हिल कर रह गया हूँ. न मैं
किसी ’वाद’ का संपोषक हूँ, न किसी तथाकथित आंदोलन का हिस्सा. संप्रेषणीयता मानक
है. बस. अपनी धूल-माटी में उपजे बिरवे को किसी पराये आर्किड से तुलना करना
क्या अवसरवादियों को आश्वस्त नहीं करेगा? मैं जानता हूँ आक्रमण कम नहीं हैं.
किन्तु, सायास अपनी लाचारियों से आक्रमणकारियों के स्वर को तीव्रता और त्वरा
देना अपराध नहीं? और......... जिन मित्रों का आपने नाम लिया है, उनके भाव
उन्हीं तक महफ़ूज रहें मैं स्वयं को भाग्यशली समझूँगा.
आप भ्रमित नहीं लगे थे कभी. काश आज भी आप किसी वैताली ’वाद’ का शलाका थामे न
दीखते. सतत सकारात्मक दिशा की ओर गतिवान हों, इस शुभेच्छा के साथ आपका अग्रज.
आपके प्रयासों और विन्दुवत विचारों से परिचित हूँ. आप ’बउरा’ नहीं सकते. ठीक.
भाई मेरे, किन्तु..... इस ’किन्तु’ ने सिर्फ़ एक बात ने अगाह करने को मुझे
उत्प्रेरित किया है.. .. अपनी विद्या और अपनी शिक्षा के बीच हम घालमेल न करें.
आपकी कुण्ठा कितनी जायज है या उसका होना कितनों को आकर्षित कर कितना ’अभिभूत’
कर सकता है यह अभी विषयान्तर होगा. एक सादर अनुरोध है कि आप यह तो कत्तई न करें
कि तमिल के नाम पर मची उस ’नाडु’ की निरर्थक सी चिल्ल-पों के सुर में अपनी
सार्थक ऊर्जा को जाया करें. भाषा रोटी का पर्याय होती तो ’माँ’ नहीं कहलातीं.
मैं नहीं जानता आपने तमिलनाडु के उस तथाकथित आन्दोलन को कितने निकट से
जाना-समझा है. उस *हिन्दी-हिन्दु-हिन्दुस्तानी *के प्रति घृणा और सपाट विरोध की
हकीकी मनोदशा क्या थी यह आप अवश्य जानें. आज उसी तमिलनाडु में स्थिति-परिस्थिति
कितनी बदलती गयी है इसे भी हम समझें तो बेहतर. अंचल के आंचल में भाव पनपते हैं.
और बोलियों के जोर पर भाषायें पुष्ट होती हैं. खैर.. अब आपने पैंतरा ही अजीब सा
बदल लिया तो क्या कहूँ??!
साहित्य-क्षेत्र की परिधि में मेरी संज्ञा नगण्य़ और हीन है. किन्तु मुझे पाठक
होने से कोई खारिज़ नहीं कर सकता न. आंचलिकता ने इस पाठक-धर्मिता को जितना बल
दिया है वह मेरी थाती है. उस आंचलिकता को मैं बिसरा नहीं सकता न.
और रही अंग्रेज़ी की बात.. भाषाएँ बुरी कहाँ हुआ करती हैं. हाँ, अंग्रेज़ियत
खतरनाक है न. भाई मेरे, उसी पलड़े में हिन्दी?? मैं हिल कर रह गया हूँ. न मैं
किसी ’वाद’ का संपोषक हूँ, न किसी तथाकथित आंदोलन का हिस्सा. संप्रेषणीयता मानक
है. बस. अपनी धूल-माटी में उपजे बिरवे को किसी पराये आर्किड से तुलना करना
क्या अवसरवादियों को आश्वस्त नहीं करेगा? मैं जानता हूँ आक्रमण कम नहीं हैं.
किन्तु, सायास अपनी लाचारियों से आक्रमणकारियों के स्वर को तीव्रता और त्वरा
देना अपराध नहीं? और......... जिन मित्रों का आपने नाम लिया है, उनके भाव
उन्हीं तक महफ़ूज रहें मैं स्वयं को भाग्यशली समझूँगा.
आप भ्रमित नहीं लगे थे कभी. काश आज भी आप किसी वैताली ’वाद’ का शलाका थामे न
दीखते. सतत सकारात्मक दिशा की ओर गतिवान हों, इस शुभेच्छा के साथ आपका अग्रज.
July 8 at 6:56pm via · Like ·
2 people

o महेश चन्द्र मिश्र लक्ष्य ग्रंथों से
लक्षण-ग्रन्थ दुरूह होते आये हैं सो कुछ-कुछ यहाँ भी दिखने लगा है | बात मामले को
स्पष्टता की ओर ले जाने की हो तो इतना लाक्षणिक-व्यंजक होने के बजाय थोड़ा
अभिधात्मक होने की अपेक्षा है...|कुछ वे तत्त्व जो व्यक्ति जीवन की सीमाओं को समाज
जीवन से प्रतिबद्ध करते हैं उनमे क्या भाषा को भी रखें...? यदि
नहीं....तो....अलम् विवादेन | पुनश्च , यदि हाँ तो कोई तो जगह तो बनानी ही पड़ेगी
सम्वाद की...| हिन्दी की दशा के सापेक्ष भइया अमरेन्द्र जी आपका तेवर (किम्वा पीड़ा)
मुनासिब है , पर थू-थू करने से गन्दगी भागती नहीं अपितु हमारी जुगुप्सा भर ही प्रकट
होती है स्वच्छता की लड़ाई बाकी ही रहती है | अपनी बात को फिर उसी सिरे से पकड़ता हूँ कि
जीवन और कथन के बीच जो फांक है उसके मिटे बिना साहित्य के नाम पर जो आएगा..कचरा ही
होगा...| इस बात पर आप क्या कहेंगे कि' हर भाषा एक जिन्दगी है........' तो भाषा पर बात करते
हुए उस जिन्दगी का भी ख़याल करना होगा जहाँ से भाषा सृजित हुई है | प्रत्येक भाषा में
उसकी जिन्दगी के बाहर से आने वाली चीजें अपना नाम लेकर आई हैं | साइकिल ,रेडियो ,ट्रेन .कालीन, लालटेन, गमला... ,टिकट तथा ऐसे अन्य
शब्द जिन्हें हिन्दी ने अपने में पचाया है... इनमें अधिकाँश हिन्दी-जीवन से बाहर
के हैं | आज का जो हिन्दी-जीवन है वह क्या और कैसा है ये समझने का अच्छा स्थान
है दिल्ली | उर्दू शाइरी को लें या बँगला कथा-लेखन को ये बात साफ़ हो जायेगी | आज जब बहुसंख्य जन
से अपरिचित किसी भाषा-कवि को नोबल के लिए चुना जाता है तो वहाँ कमाल केवल भाषा का
नहीं ,वहाँ की जिंदगी का भी होता है | विद्यापति मिथिला मे ही होते हैं और तुलसी
अवध में.......हिन्दी का संकट कुछ इसी किस्म का है | दो-तीन बातें अच्छी
उभर कर आयी हैं एक तो श्रीमान सौरभ जी की कि.... "क्या कोई जन्तर साहित्य भी
होता है ? दूसरी गीता जी की भाषा कि दुरूहता को लेकर...असल में जब हम अपने
प्रतिपाद्य को लेकर सहज नही होते तो हमारी भाषा में एक अवांछित व्यूह निर्मित हो
जाता है कालिदास को याद करें- श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था , संक्रातिरन्यस्य
विशेषयुक्ता | यस्योभयम साधु स शिक्षकाणाम्
धुरिप्रतिष्ठापयितव्य एव ||.......पर अभी माफ करें फिर कभी.....
July 8 at 7:38pm · Like ·
1 person

o Saurabh Pandey //आज जब बहुसंख्य जन से अपरिचित किसी
भाषा-कवि को नोबल के लिए चुना जाता है तो वहाँ कमाल केवल भाषा का नहीं ,वहाँ की जिंदगी का
भी होता है | विद्यापति मिथिला मे ही होते हैं और तुलसी अवध में.......हिन्दी का
संकट कुछ इसी किस्म का है | //
इसे हम क्यों न कुछ यों बोलें .. हिन्दी का संकट वस्तुतः इसी किस्म का
है...
July 8 at 7:49pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi पहले इस पर कुछ कह
दूं बाकी पर बाद में आता हूं::
@ ``आपकी कुण्ठा कितनी जायज है या उसका होना कितनों को आकर्षित कर कितना ’अभिभूत’ कर सकता है यह अभी
विषयान्तर होगा.'' (सौरभ जी की बात)
और...
“कुछ वे तत्त्व जो व्यक्ति जीवन की सीमाओं को समाज जीवन से प्रतिबद्ध करते हैं उनमे क्या भाषा को भी रखें...?” (मराल जी की बात)
--- संभव है ये बाते “...........और अब शोध करते हुये अपना भविष्य चौपट करने के अतिरिक्त हिन्दी से मैंने कुछ नहीं पाया,..........” - कहने से जुड़ी हैं। यह भी लग रहा है कि मेरी देशभाषाओं (अवधी आदि..) की पीड़ा को मेरी व्यक्तिगत पीड़ा या अक्षमता से उपजा हुआ माना आप लोगों ने। क्षमा माँगते हुये कहूंगा कि मैने अपने को उदाहरण के तौर पर रखने का प्रयास किया है, बातों को स्पष्ट करने के लिये, जिसमें “मेरा विशेष” ढूढ़ लेना, उसे कुंठा या जुगुप्सा का व्यक्तिगत-वमन मानना समीचीन नहीं है। सौरभ जी, आपने कहा; “ भाषा रोटी का पर्याय होती तो ’माँ’ नहीं कहलातीं.” इस पर क्या कहूं सिवाय इसके कि हिन्दी को मैने रोटी के लिये ही पढ़ा है, माँ समझ के नहीं। स्पष्ट किया है वहीं लिखते हुये कि “ (हिन्दी) मातृभाषा होती तो भी आत्मतुष्टि का भाव कोई ग्लानि न करता।” - शायद आप लोगों ने इसमें भी व्यक्त किसी “बात” को नहीं समझा। जब मेरी मातृभाषा अवधी है, तो हिन्दी को अपनी माई क्यों मानूं?/! मराल जी ने कहा, ‘थू-थू करने से गन्दगी भागती नहीं अपितु हमारी जुगुप्सा भर ही प्रकट होती है ’ - भाई, देशभाषाओं की माँग को आप व्यक्तिगत जुगुप्सा-वमन समझें, तो क्या कहूं! जहाँ कुछ करने की बात है, “करने” का काम अपनी सीमाओं के साथ कर रहा हूं, बिना किसी लाभ/लोभ के! पर अब और अपने बारे में व्यक्तिगत होकर बात नहीं करना चाहता। क्योंकि उदाहरण रूप में सामान्य को कहने के उद्देश्य से कही बात भी व्यक्ति-विशेष के अनिवार्य अर्थ में मान ली जायेगी, अस्तु स्व-प्रकरण से हट अन्य बातों पर आता हूं कुछ देर में!! सादर..!
और...
“कुछ वे तत्त्व जो व्यक्ति जीवन की सीमाओं को समाज जीवन से प्रतिबद्ध करते हैं उनमे क्या भाषा को भी रखें...?” (मराल जी की बात)
--- संभव है ये बाते “...........और अब शोध करते हुये अपना भविष्य चौपट करने के अतिरिक्त हिन्दी से मैंने कुछ नहीं पाया,..........” - कहने से जुड़ी हैं। यह भी लग रहा है कि मेरी देशभाषाओं (अवधी आदि..) की पीड़ा को मेरी व्यक्तिगत पीड़ा या अक्षमता से उपजा हुआ माना आप लोगों ने। क्षमा माँगते हुये कहूंगा कि मैने अपने को उदाहरण के तौर पर रखने का प्रयास किया है, बातों को स्पष्ट करने के लिये, जिसमें “मेरा विशेष” ढूढ़ लेना, उसे कुंठा या जुगुप्सा का व्यक्तिगत-वमन मानना समीचीन नहीं है। सौरभ जी, आपने कहा; “ भाषा रोटी का पर्याय होती तो ’माँ’ नहीं कहलातीं.” इस पर क्या कहूं सिवाय इसके कि हिन्दी को मैने रोटी के लिये ही पढ़ा है, माँ समझ के नहीं। स्पष्ट किया है वहीं लिखते हुये कि “ (हिन्दी) मातृभाषा होती तो भी आत्मतुष्टि का भाव कोई ग्लानि न करता।” - शायद आप लोगों ने इसमें भी व्यक्त किसी “बात” को नहीं समझा। जब मेरी मातृभाषा अवधी है, तो हिन्दी को अपनी माई क्यों मानूं?/! मराल जी ने कहा, ‘थू-थू करने से गन्दगी भागती नहीं अपितु हमारी जुगुप्सा भर ही प्रकट होती है ’ - भाई, देशभाषाओं की माँग को आप व्यक्तिगत जुगुप्सा-वमन समझें, तो क्या कहूं! जहाँ कुछ करने की बात है, “करने” का काम अपनी सीमाओं के साथ कर रहा हूं, बिना किसी लाभ/लोभ के! पर अब और अपने बारे में व्यक्तिगत होकर बात नहीं करना चाहता। क्योंकि उदाहरण रूप में सामान्य को कहने के उद्देश्य से कही बात भी व्यक्ति-विशेष के अनिवार्य अर्थ में मान ली जायेगी, अस्तु स्व-प्रकरण से हट अन्य बातों पर आता हूं कुछ देर में!! सादर..!
July 8 at 8:54pm · Like ·
4 people

o महेश चन्द्र मिश्र साधुवाद पाण्डेय जी
! कितना कुछ आपने स्पष्ट कर दिया है....अमरेन्द्र भाई मुझे नही लगता कि यकीनन
भ्रमित हैं...मुझे उनका स्वर अभी भी एक निहितार्थ भरा सा लग रहा है..या शायद मैं
ही न् समझ पा रहा होऊं | बोली और भाषा एक दूसरे के सामने खडी हों ऐसी लड़ाई
तो नहीं थी...और बात को इस तरह लेने की जरूरत मैं समझता हूँ कि जब हिन्दी-लेखन
समाज को संबोधित करने की जगह वर्ग को संबोधित करने लगा तब से कचरे की मात्रा बढ़ी
है |अगर
खड़ीबोली गद्य से ही समझना चाहें तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ,कुबेर नाथ राय ,विद्या निवास मिश्र ,निर्मल वर्मा ,या फिर कविता में
अज्ञेय ,दुष्यंत , साही , सक्सेना और भी नाम हैं मैंने यूँ ही कुछ
गिन दिए.........इनको कहाँ रखेंगे ? हिन्दी साहित्य में तत्त्वभूत सामग्री कम
होती गयी है ये सही है पर इतनी भी कम नहीं कि उसे अपवाद की श्रेणी में धकेलकर
परिगणन से बाहर कर दिया जा सके | एक बात सम्प्रेषण की चली है तो सम्प्रेषण
चिन्मय होता है मेरी समझ में जो शब्द नही भाव का का अपेक्षित है | क्या बुद्ध की पालि ,कबीर की खिचडी , और खुसरो की हिन्दी
का कोई कोष बन चूका था उनके पहले ? यदि नहीं तो घर-घर से घाट-घाट तक कबीर की
पहुँच का क्या भेद है , और मेरी जन्मभूमि(जनपद गोंडा की एक ग्राम पंचायत
) जैसी असाहित्यिक जगह में अमीर खुसरो की मुकरियाँ मैंने घर के अपढ़ बुजुर्गों से
सुनी हैं--एक थाल मोती से भरा....या ..सारी रैन मोरे संग जागा..का सम्प्रेषण कैसे
हुआ | क्या हंसना-रोना भी किसी भाषा-बोली के अधीन है ? जो कविता अपनी
भावमयता में हँसने-रोने की सी सहजता में उतर सकी है उसे सम्प्रेषण का संकट नही
होता....यहाँ थोड़ी सी बात मैं अपनी कर दूँ ..मैंने कोई भाषा इरादतन सीखी हो ऐसा
लगभग नहीं है | हिन्दी प्रदेश में जन्मा हूँ ,संस्कृत का नालायक
छात्र रहा हूँ पर बँगला रचनाएं कम समझते हुए भी आस्वाद के लिए पढता हूँ, राजस्थानी गीत बहुत
प्रिय हैं , गीत गोविन्दम गान बहुत खोजकर लाया हूँ औ सुनता हूँ अवधी, भोजपुरी, मैथिली , मगही सबका कुछ-कुछ
साहित्य-संगीत जुटा रखा है ये सब भाषा-बोध से नही भाव-बोध से हो पा रहा है , जो कृती अपने
समय-समाज की अनुभूतियों का साझा कर सकेगा उसे संप्रेषणीयता का संकट न होगा |
................................................................... औ भैया अमरेन्द्र जी
! आप का काव कही ऊ मियाँ जायसी का कहि गे है -......भाषा जेती आहिं| सब मंह मारग प्रेम
कर.......
July 8 at 8:55pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi Mahesh Mishra Maral जी मेरे और आपके
कमेंट पेस्टित होने में सेकेंडों की ही हेराफेरी रही, कृपया उसे देख लेवें, बाकी का उत्तर देने
मैं खाना खाकर आता हूं, ....सादर..!
July 8 at 8:57pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi अब कुछ और बातें
कहूं, लिंक दिया था मैने शायद आप लोगों ने जहमत नहीं उठायी और मेरी बातों को “भटके युवा की कुठा” मानकर किनरिया दिया
सो कह रहा, वही से लाकर!.. आप बरास्ते हिन्दी के देश-भाषाओं के उद्धार की बात कर
रहे हैं, पर आर्य इसे हम छलावा के अतिरिक्त क्या मानें। क्योंकि
-१-पराधीन भारत के कई वर्ष और स्वाधीन भारत के ६० से अधिक वर्ष लिटमस
टेस्ट की तरह हैं।
-२-आलोचक धर्मवीर की पुस्तक ’हिन्दी की आत्मा’ के मुद्दे पर यथास्थितिवादी हिन्दी के विद्वानों को साँप सूँघे है।
-३-बोलियों की माँग (भाषा के रूप में) करने वाले राहुल जी जैसे विद्वानों को हिन्दी ने प्रतिगामी सोच का कहकर हाशिये में डाला।
-४-खड़ी बोली का ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा कोई भी ध्यानाकर्षण का हेतु बन जाता है, जबकि बोलियों के यशस्वी कृतिकार सायास उपेक्षित होते हैं।
-५-विगत १०० वर्षों से हिन्दी ने जाने कितनों को उनकी मादरे-जुबान से काटा है, आगे ऐसा न हो इसलिये हिन्दी पर न भरोसा करना ही मुफीद है।
-७-जब हिन्दी बढ़ी तो भी मध्यवर्ग के स्वार्थ बढ़ रहे थे, आज वह मध्यवर्ग अंग्रेजी की ओर क्लिक कर रहा है, स्वार्थ को लेकर, इसलिये उसे चिन्ता लोक-भाषाओं की क्यों हो भला।
-८-हिन्दी को सम्पर्क भाषा के तौर पर बोलीबुड ने बढ़ाया है, न कि विश्वविद्यालय के मठाधीसों ने, और साहित्यकारों ने। सो आगे भी इन मठाधीसों/साहित्यकारों से कुछ नहीं होने का।
-९-मैथिली को भी हिन्दी की बोलियाँ कहा जाता रहा है, पर उसने हिन्दी का मुँह नहीं जोहा और आज वह अवधी-भोजपुरी-ब्रजी आदि से काफ़ी बेहतर स्थिति में है। मैथिली प्रेरक है, न कि हिन्दी।
-१०-भोजपुरी ने इधर अपने को समृद्धतर रूप में पेश किया है, चैनल आये, फ़िल्में आ रही हैं, अन्य देश भाषाओं के लिये यही माडल सही होगा, हिन्दी यहाँ भी प्रेरक नहीं। भोजपुरी पर अश्लील शुरुआत का आरोप है, पर शुरुआत में कुछ खोट रहती ही है, संस्कारित होना तो परवर्ती क्रिया है ही।
-११- लोक भाषाओं को जो सुविधा हिन्दी ने सैंकड़ों वर्षों से नहीं दिया-जनवादियों के जन-नाद धिक्कार है- वह सुविधा इस तथाकथित पूँजीवादी व्यवस्था की नवीन तकनीकी ने दी। कम से कम कोई अपनी मातृभाषा में लिख छाप सकता है, नहीं तो हंस जैसी बहुतेरी पत्रिकाओं में लोक भाषा के लिये ५ वर्ष पूर्व मै एक पृष्ठ माँग कर हार चुका, पर मिला नहीं , कितना बरास्ते हिन्दी सोचूँ, यह चरित्र है हिन्दी का।
किं बहुना? सो मुझे बरास्ते हिन्दी लोकभाषा के उद्धार की बातें छलावा ही लगती हैं। सादर..।
-२-आलोचक धर्मवीर की पुस्तक ’हिन्दी की आत्मा’ के मुद्दे पर यथास्थितिवादी हिन्दी के विद्वानों को साँप सूँघे है।
-३-बोलियों की माँग (भाषा के रूप में) करने वाले राहुल जी जैसे विद्वानों को हिन्दी ने प्रतिगामी सोच का कहकर हाशिये में डाला।
-४-खड़ी बोली का ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा कोई भी ध्यानाकर्षण का हेतु बन जाता है, जबकि बोलियों के यशस्वी कृतिकार सायास उपेक्षित होते हैं।
-५-विगत १०० वर्षों से हिन्दी ने जाने कितनों को उनकी मादरे-जुबान से काटा है, आगे ऐसा न हो इसलिये हिन्दी पर न भरोसा करना ही मुफीद है।
-७-जब हिन्दी बढ़ी तो भी मध्यवर्ग के स्वार्थ बढ़ रहे थे, आज वह मध्यवर्ग अंग्रेजी की ओर क्लिक कर रहा है, स्वार्थ को लेकर, इसलिये उसे चिन्ता लोक-भाषाओं की क्यों हो भला।
-८-हिन्दी को सम्पर्क भाषा के तौर पर बोलीबुड ने बढ़ाया है, न कि विश्वविद्यालय के मठाधीसों ने, और साहित्यकारों ने। सो आगे भी इन मठाधीसों/साहित्यकारों से कुछ नहीं होने का।
-९-मैथिली को भी हिन्दी की बोलियाँ कहा जाता रहा है, पर उसने हिन्दी का मुँह नहीं जोहा और आज वह अवधी-भोजपुरी-ब्रजी आदि से काफ़ी बेहतर स्थिति में है। मैथिली प्रेरक है, न कि हिन्दी।
-१०-भोजपुरी ने इधर अपने को समृद्धतर रूप में पेश किया है, चैनल आये, फ़िल्में आ रही हैं, अन्य देश भाषाओं के लिये यही माडल सही होगा, हिन्दी यहाँ भी प्रेरक नहीं। भोजपुरी पर अश्लील शुरुआत का आरोप है, पर शुरुआत में कुछ खोट रहती ही है, संस्कारित होना तो परवर्ती क्रिया है ही।
-११- लोक भाषाओं को जो सुविधा हिन्दी ने सैंकड़ों वर्षों से नहीं दिया-जनवादियों के जन-नाद धिक्कार है- वह सुविधा इस तथाकथित पूँजीवादी व्यवस्था की नवीन तकनीकी ने दी। कम से कम कोई अपनी मातृभाषा में लिख छाप सकता है, नहीं तो हंस जैसी बहुतेरी पत्रिकाओं में लोक भाषा के लिये ५ वर्ष पूर्व मै एक पृष्ठ माँग कर हार चुका, पर मिला नहीं , कितना बरास्ते हिन्दी सोचूँ, यह चरित्र है हिन्दी का।
किं बहुना? सो मुझे बरास्ते हिन्दी लोकभाषा के उद्धार की बातें छलावा ही लगती हैं। सादर..।
July 8 at 9:26pm · Like ·
3 people

o Amrendra Nath Tripathi आगे रवि और दीपांकर
जी से भी अनुरोध है कि तार्किक रूप से अपनी बातें रखें, इससे मेरे
व्यक्तिगत-वमित होने की संभावनाएँ सर्वाधिक क्षीण रहेंगी! सादर..!
July 8 at 9:28pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi मराल जी, मैंने बातों को
बिन्दुवार लिख रखा है, जिससे आपकी शिकायत (बात मामले को स्पष्टता की ओर
ले जाने की हो तो इतना लाक्षणिक-व्यंजक होने के बजाय थोड़ा अभिधात्मक होने की
अपेक्षा है..) कम-से-कम मुझसे न रह जाए। वैसे तो मै बात स्पष्ट ही करता आया हूं, संभव है संप्रेषित
नहीं हो सका होऊं!!
July 8 at 9:45pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi @ एक सादर अनुरोध है कि आप यह तो कत्तई न
करें कि तमिल के नाम पर मची उस ’नाडु’ की निरर्थक सी चिल्ल-पों के सुर में अपनी
सार्थक ऊर्जा को जाया करें.
--- सौरभ जी, वह ‘नाडु’ हो या महाराष्ट्र का ‘राष्ट्र’, इसने अपनी
सांस्कृतिक माँग को रखा है, इससे भारतीय संघवाद में अनास्था कहाँ से खोजी जाय
भला। ऐसा क्यों माना जाय। मैं जब अवधी को देशभाषा कहता हूं तो उसमें लगा ‘देश’ शब्द भी भारतीय
संघवाद का विरोधी नहीं है। उल्टे घटिया राष्ट्रवादी मनो-विज्ञान सांस्कृतिक क्षरण
अवश्य करता है। पूरा भारत तो सांस्कृतिक तौर पर अनेक एकीकारक तत्वों से पूर्ण है, इसके लिये देषभाषाओं
की स्वायत्तता को बाधक नहीं बल्कि साधक माना जाना चाहिये।
July 8 at 9:57pm · Like ·
3 people

o Amrendra Nath Tripathi Girijesh Rao जी आप गीता जी के प्रश्नों का उत्तर देकर
मुझपर उपकार करेंगे, या मान लूं कि आप मेरा ज्ञानवर्धन नहीं करेंगे, कृपया स्पष्ट उत्तर
दें, हाँ या
न में! सादर..!
July 8 at 10:05pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi Dipankar jee , आपकी बात रह गयी थी, यही कहूंगा कि जो सच
लग रहा है वही बोलना चाह रहा हूं, बोल रहा हूं। यह अगर किसी को बुरा लगे और मेरी “अकादमिक संभावनाएँ” गरहित कर दे तो यह
उस महाशय की धूर्त सदाशयता होगी। प्रेमचंद ने कहा है, “बिगाड़ के डर से क्या सच न बोलें!”
July 8 at 10:36pm · Like ·
2 people

o Ravi Kumar अमरेन्द्र जी ने
अपनी बात बहुत दमदार तरीके से रखी है ,उनको धन्यवाद देता हूँ .अमरेन्द्र जी यदि
अपनी मादरी जुबान को मादरी जुबान कह रहे हैं तो किसी कुंठा के शिकार नहीं बल्कि
हिंदी क्षेत्र के पाखंडी ,सामंती विचारों से ग्रस्त बुद्धिजीविओं में गायब
हो चुके नैतिक साहस को पुनर्जीवित कर रहे हैं .हिंदी के प्रति सिर्फ भावुकता भरे
उदघोष करके छुट्टी पा लेने की वजह से हीं उसकी गिरती अवस्था का व्यापक संज्ञान तक
नहीं लिया जा रहा है .पाण्डेय जी मानते हैं कि "बोलियाँ भाषा को मजबूत करती
हैं ".ये कोई अचरज कि बात नहीं है ,बल्कि इसे एक तथ्य के रूप में हिंदी के
छात्रों के comman sense का हिस्सा बना दिया गया है .समय बीतने के साथ यह
मजबूत ही हुआ है.इस लिए अमरेन्द्र जी जैसे तमाम लोग अभी कुछ वर्षों तक कुंठा
ग्रस्त घोषित किये जाते रहेंगे. इस कड़ी में अमरेन्द्र जी कोई पहले ब्यक्ति नही हैं
यह कुंठा इनसे पहले शिवदान सिंह चौहान को भी हो चुकी है क्यों कि उन्होंने एक
किताब लिखने कि गलती कर दी थी जिसका शीर्षक था "हिंदी के अस्सी वर्ष
".अगर हिंदी के भाषा के रूप में विकास को समझना हो तो कृपया इस पुस्तक को एक
बार पढ़ ले ,बहुत बातें स्वतः साफ़ हो जाएंगी ...
जारी........
July 8 at 10:39pm · like ·
2 people

o Ravi Kumar हिंदी के विरोधी के
नाम पे अभी देश द्रोही नही कहा गया लेकिन अमरेन्द्र जी को इसके लिए तैयार रहना
पड़ेगा .अपनी पिछली बात पे लौटता हूँ बोलियों के सन्दर्भ में ..बोलियाँ भाषा को
उर्जा देती है तो फिर क्यों कर बोलियों को छोड़ कर के संस्कृत का दामन थाम लिया
गया. कहना यह चाहता हूँ की बोलियों का राग अलापने के लिए अलापा जाता रहा है ताकि
इन बोलियों के बोलने वालों के बीच हिंदी की स्वीकृति पैदा की जा सके .संस्कृत कोई
बोली तो थी नही तो श्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के नाम पर हिंदी के
उपर थोप दिया गया .संस्कृत को हिंदी में घोल देने का काम हिंदी आन्दोलनकारियों की
कोई मौलिक खोज नही थी .यह काम हिंदी वालों से पहले बंगला में राजा राम मोहन राय,विद्यासागर ,बंकिम चन्द्र कर
चुके थे और जाहिर है इस से जो नुकसान बंगला का होना चाहिए था साफ तौर पर हुआ भी
.बंगला जो जन भाषा थी उन्नीसवीं शताब्दी में संस्कृत के घाल मेल से अभिजन भाषा बना
दी गयी .इसके पीछे के कारणों का पता लगाने का प्रयास करने पर पता चलता है कि राजा
राम मोहन राय जैसे विद्वान लोगों की शिक्षा औपनिवेशिक काल के पूर्व भारत में
विद्यमान शिक्षा प्रणाली में हुई थी .इस प्रणाली में संस्कृत,अरबी, फारसी भाषाएँ शिक्षा
का माध्यम थीं.बंगला लिखते वक़्त संस्कृत का सुविधा जनक चुनाव कर लिया गया और
तथाकथित विदेशी भाषाओं को छोड़ दिया गया .हिंदी के पिछलग्गू आन्दोलनकारियों ने
बंगला भाषा के इसी मॉडल को अपना लिया .कहने को भारतेंदु जी हिंदी [भारतेंदु जी
स्ववं इसे तब तक "नई भाषा "कहते थे ]को बोलचाल की भाषा के करीब लाने की
वकालत करते थे लेकिन हिंदी में कविता के क्षेत्र में छायावाद जैसा काव्य आन्दोलन
चला जिसकी भाषा कृत्रिम भाषा थी .इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए लेकिन हिंदी
की परम्परा से अनभिज्ञ लोगों को आश्चर्य होता है.उन्नीसवीं शताब्दी के हिंदी के
विकास से पता चलता है की किस प्रकार से हिंदी को गढ़ा गया.छायावादियों की
कृत्रिमता हिंदी की प्रकृति से बिलकुल संगत बैठती थी .सैमुअल हेनरी केलाग[१८७६]
हिंदी का व्याकरण तो लिख् मारेलेकिन हिंदी खड़ी बोली नाम कि कोई बोली नही खोज पाए
और मजबूर होकर उनको कहना पड़ा कि जो बोली इस क्षेत में समझी जाती है उसका कोई अपना
क्षेत्र नही है .ग्रियर्सन साहिब[१८८९] तो कहते ही थे कि हिंदी किसी कि मादरी
जुबान नहीं है और इसी वजह से गद्य और पद्य कि भाषा में फर्क पैदा हुआ .भारतेंदु जी
के काल में कविता कि भाषा ब्रज बनी रही ,गढ़ने कि प्रक्रिया जारी थी और छायावाद
में पूरी हो गयी [कृपया केलाग और ग्रियर्सन के विचारों को साम्राज्यवादियों के
विचार कह करके ख़ारिज करने कि भूल न की जाये क्यों की अभी तक यही किया जाता रहा है ,इस सन्दर्भ में कुछ
"कुंठा ग्रस्त" भारतीयों का भी उल्लेख कर सकता हूँ लेकिन अभी नहीं
करूँगा ]. इनमे से कोई बात मेरी मौलिक उद्भावना नही बल्कि हिंदी भाषा के विकास पर
शोध करने वाले विद्वानों ने इस बात को रेखांकित किया है .लेकिन ऐसे विद्वानों को
हिंदी में पढने और पढ़ाने की कोई परम्परा नही है.ऐसे विचार अभी अल्पमत में हैं
लेकिन ज़रूरी नही की आगे भी ये अल्प मत में रहे हीं .समय करवट लेता है और आगे भी
लेगा ही .....
फ़िलहाल समाप्त ..
July 8 at 10:39pm · like ·
4 people

o महेश चन्द्र मिश्र भाई अमरेन्द्र जी
सबसे पहले तो यह कि अगर आपको लगा कि मैंने कोई टिप्पणी व्यक्तिगत होकर की है तो
माफी चाहता हूँ...एक स्वस्थ भाषा-विमर्श के अलावा और कुछ नही...लेकिन कुछ लोग आ गए
हैं संभव हुआ तो आज नही तो कल अपनी बात निवेदित करूँगा...
July 8 at 11:16pm · like ·
3 people

o Amrendra Nath Tripathi Ravi जी, आपने तथ्यात्मक और
तर्कात्मक पोढ़ाई के साथ बात रखी है, इस हेतु हृदय से आभारी हूं! यह सही कहा आपने कि शिवदान
सिंह चौहान भी शिकार हुये, तो भला हम किस खेत की मूली हैं, हमें तो अपने
श्रवण-रंध्र को तैय्यार रखना चाहिये कुछ भी सुनने-सहने के लिये! :)
दूसरे कमेंट में आपने संक्षेप में बहत्तर को समेट कर हिन्दी की निर्माण प्रक्रिया और उसके साथ जुड़े हुये संस्कारों को साफगोई से रखा है। उसे हृदयंगम करने के उपरांत शायद लोग देशभाषा की माँग को कुंठात्मक या भावुक-लुंठात्मक न कहें। हमारा तो आग्रह शुरू से संवाद का ही रहा है, लोग हिन्दी के उस गढ़ाव की सांस्कृतिक प्रक्रिया को समझें जिससे जनता से दूरी का स्थायी संस्कार हिन्दी का सहचर बना। जो जनभाषा न हो उसका विस्तार जनता पर थोपा हुआ ही होगा। अब इससे ज्यादा हिन्दी के सायास विस्तार का दूसरा प्रमाण क्या दूं कि जिसे सुदूर दक्षिण पर भी थोपने पहुंचा गया, उन लोगों ने विरोध किया, तो कोई गलत नहीं किया। हिन्दी पट्टी के लोग थोपने वाली मानसिकता से चालित थे, इसलिये ये अपनी अपनी मादरी जुबानों की क्षति राष्ट्रवादी पवित्रता-बोध के साथ करते रहे। जिसने जगाने की कोशिश की उसे गरियाने लगे, याद है अमर नाथ झा ने इलाहाबाद में एक सभा में कह दिया था कि मेरी मातृभाषा मैथिली है तो हिन्दी के फर्जी-सभ्याचारी कैसे पिल पड़े थे! हद थी तब भी और हद है आज भी!
नेपाल में कपिलवस्तु पट्टी में चार-पाँच जिले अवधी के हैं, जहाँ प्राथमिक शिक्षा का माध्यम भी अवधी है। यह अवध में नहीं हो सका, तो....फर्जी बौद्धिकों ने बहुत नुकसान पहुंचाया है, ज्यादा क्या कहें!
पुनः चर्चा को तथ्यात्मक और तर्कात्मक पोढ़ाई के स्तर तक लाने के लिये धन्यवाद! आपने पहली बार आभासी माध्यम पर इस चर्चा में लिखा, और जागरुक और जिम्मेदाराना लिखा, इसलिये ‘आभार’ छोटा रहेगा!
July 9 at 1:13am · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi Mahesh Mishra Maral जी, उत्तर देने का नैतिक
दाय भी निभाना पड़ता है, उसी को निभाने की कोशिश की, स्वर कहीं तिक्त हुआ
हो तो क्षमा चाहूंगा। हाँ, आप भाषा-विमर्श के लिये सादर सदैव आमंत्रित हैं।
आप अपनी व्यस्तता से निजात पा अपनी बात/तर्क रखें, स्वागत है! सादर..!
July 9 at 1:22am · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi Gita Pandit जी, आपने छायावाद की भाषिक क्लिष्टता को
प्रश्नांकित किया, ऊपर रवी जी ने अपनी टीप में इस दृष्टि से छायावाद की क्लिष्टता की
सैद्धांतिक समीक्षा की है, उनकी टीप का यह अंश काबिले-गौर है::
“ हिंदी के पिछलग्गू आन्दोलनकारियों ने बंगला भाषा के इसी मॉडल को अपना
लिया .कहने को भारतेंदु जी हिंदी [भारतेंदु जी स्ववं इसे तब तक "नई भाषा
"कहते थे ]को बोलचाल की भाषा के करीब लाने की वकालत करते थे लेकिन हिंदी में
कविता के क्षेत्र में छायावाद जैसा काव्य आन्दोलन चला जिसकी भाषा कृत्रिम भाषा थी
.इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए लेकिन हिंदी की परम्परा से अनभिज्ञ लोगों को
आश्चर्य होता है.उन्नीसवीं शताब्दी के हिंदी के विकास से पता चलता है की किस
प्रकार से हिंदी को गढ़ा गया.छायावादियों की कृत्रिमता हिंदी की प्रकृति से बिलकुल
संगत बैठती थी .सैमुअल हेनरी केलाग[१८७६] हिंदी का व्याकरण तो लिख् मारेलेकिन
हिंदी खड़ी बोली नाम कि कोई बोली नही खोज पाए और मजबूर होकर उनको कहना पड़ा कि जो
बोली इस क्षेत में समझी जाती है उसका कोई अपना क्षेत्र नही है .ग्रियर्सन
साहिब[१८८९] तो कहते ही थे कि हिंदी किसी कि मादरी जुबान नहीं है और इसी वजह से
गद्य और पद्य कि भाषा में फर्क पैदा हुआ .भारतेंदु जी के काल में कविता कि भाषा
ब्रज बनी रही ,गढ़ने कि प्रक्रिया जारी थी और छायावाद में पूरी हो गयी [कृपया केलाग
और ग्रियर्सन के विचारों को साम्राज्यवादियों के विचार कह करके ख़ारिज करने कि भूल
न की जाये क्यों की अभी तक यही किया जाता रहा है ,इस सन्दर्भ में कुछ "कुंठा
ग्रस्त" भारतीयों का भी उल्लेख कर सकता हूँ लेकिन अभी नहीं करूँगा ]. इनमे से
कोई बात मेरी मौलिक उद्भावना नही बल्कि हिंदी भाषा के विकास पर शोध करने वाले
विद्वानों ने इस बात को रेखांकित किया है .लेकिन ऐसे विद्वानों को हिंदी में पढने
और पढ़ाने की कोई परम्परा नही है.ऐसे विचार अभी अल्पमत में हैं लेकिन ज़रूरी नही
की आगे भी ये अल्प मत में रहे हीं .समय करवट लेता है और आगे भी लेगा ही .....”
!
....................सादर!
....................सादर!
July 9 at 1:34am · Like ·
3 people

o बुद्धिमान उल्लू Amrendra Nath
Tripathi अरे भाई
हम अपनी बात कहे थे और उसके तुरंत बाद सो गये। जाने कहाँ ग़ायब हो गई? हैरान हूँ। लीजिये
फिर से (अब इसे फिर से बर्र के छत्ते को छेड़ना न माना जाय)
अधिक न फैलते हुये छायावाद का अर्थ कथित छायावादी त्रिदेवों में से एक 'प्रसाद' की व्याख्या से समझा
जा सकता है - मोती में आब। आब न हो तो मोती सफेद पत्थर की साधारण गोली जैसी होगी।
ऐसे ही कविता में 'छाया' उसे विशिष्ट बनाती है। अब यह छाया अंतर्निहित हो सकती है, किसी पर पड़ सकती है
या और आयामों में विचरण कर सकती है। अब यह बताइये क्या यह बात किसी भी कविता पर
लागू नहीं होती? फिर कथित छायावादी कविता में ऐसा क्या अलग है जो उसे अलग 'छायावाद' नामधारी खाँचे में
रखा जाय? वह कविता अपने निकट पूर्ववर्ती से अलग थी लेकिन उसका नामकरण ग़लत था।
July 9 at 6:54am · Like
o Amrendra Nath Tripathi गिरिजेश जी, गीता जी का प्रश्न
छायावाद की भाषिक क्लिष्टता को केंद्रित करके था, आप अंततः छाया-क्रीड़ा ही करते रहे। प्रभु, जब बात किसी गंभीर
विषय को लेकर होने लगे तो वहां “सढ़ुवाइन वाले मजाक” का तुक नहीं होता! सादर..!
July 9 at 3:27pm · Like
उनके प्रश्न में 'भाषिक क्लिष्टता पक्ष' नहीं देख पाया। रही
बात गम्भीरता और मजाक की तो मेरी बातों में दोनों हैं। आप देखिये तो सही। यहाँ तक
कि नामकरण पर उठाई गई बात भी गम्भीर है। अस्तु...गम्भीर चर्चा में भी थोड़ा ह्यूमर
रहना चाहिये नहीं तो चर्चा भी मुक्तिबोध की कविता सी हो जाती है [यहाँ सढ़ुआइन कौन
है? ;)] ...क्लिष्टता और सरलता सापेक्ष हैं। हम जैसों की सारी चिंता 'मध्यवर्ग' की चिंता है। होनी
भी चाहिये क्यों कि सांस्कृतिक नेतृत्त्व इस वर्ग के पास है और इस वर्ग की
जिम्मेदारी दुधारी है - लोक से जुड़े रहने की भी और स्तर को नित बढ़ाते रहने की भी, जिसे साहित्यिक
संस्कारीकरण कहा जा सकता है। हिन्दी के मामले में संतुलन बिगड़ गया, तारतम्य टूट गया
(बड़ा विषय है।)। उर्दू में फैज़ की रचना 'हम देखेंगे' पर पाकिस्तानी पंजाबी जमात झूमती है, उससे अपने को जोड़
पाती है (उर्दू पंजाबी से बाद में वहाँ आई, या यूँ कहिये आरोपित की गई, फिर भी)। आधुनिक
हिन्दी कविता में ऐसा कोई उदाहरण मुझे नज़र नहीं आ रहा। इसका कारण अति बौद्धिकता और
वाचिक/गेय परम्पराओं की उपेक्षा भी रही। दोहा, सोरठा जैसे छोटे और जुबान पर चढ़ने वाले
पारम्परिक छ्न्दों को छोड़ हमारे महाकवि घनाक्षरी और सवैया में से कौन 'जातीय छ्न्द' हो इस पर बजड़ते रहे
और बाद में तो छ्न्द मुक्ति में उन्हें पलायन की एक राह ही मिल गई। लिहाजा हिन्दी
कविता जुबान पर चढ़ने से रह गई जब कि द्विपदी शेरो-शायरी का दामन पकड़ उर्दू कविता
लोकप्रिय बनी रही। अब इस बात में हिन्दी-उर्दू विवाद की गुंजाइश है लेकिन सचाई भी
है... ढेर नहीं लिखूँगा। प्लेटफॉर्म की सीमा है। आप ने कोंच दिया तो बकबका गया
नहीं तो चुप ही रहता ...
July 9 at 4:20pm · like ·
4 people

“ जी...भाषा के दुरूहता एक कारण रही है जो हिन्दी का विकास उस स्तर तक
नहीं हो पाया जैसा कि होना चाहिए था...साहित्य केवल कोर्स की किताबों तक सिमट कर
रह गया ...आज कविता की भाषा रीतिकालीन भाषा हो ही नहीं सकती ..जन मानस तक पँहुचने
के लियें क्या आम बोलचाल की भाषा में सहज अभिव्यक्ति की आवश्यकता है...सायास लिखी
गयी रचना को कविता का नाम नहीं दिया जा सकता...”
......और,
“छायावादी कविता का क्या...?? इस पर भी प्रकाश पड़े...."
.......साथ ही,
“???? छायावाद नाम नहीं तो क्या नाम है उस काल का...प्लीज़...कहें...ये चर्चा अपने निष्कर्ष पर अवश्य पंहुचाई जानी चाहिए...”
------------------------------------------------------
------------------------------------------------------
गीता जी, मित्रवर रवि जी ने हिन्दी की क्लिष्टता के मूल और उसके जन-कटाव पर अपनी ओर से संक्षेप में काफी कुछ कहा है, मैं अब आगे आता हूं;
रीतिकालीन कविता का भी एक बड़ा अंश संस्कृतनिष्ठता से बोझिल है, उदाहरण केशवदास, और जहाँ लक्षण-ग्रंथ-परंपरा निभायी जा रही है, पर व्याकरण तो इसका जनभाषा यानी ब्रज का ही रहा है, और यह शौरसेनी क्षेत्र की जन-भाषा ही रही है। तभी तो केशव कहते थे, “भाषा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास/ तिन भाषा रचना करी तिन कुल केशवदास”! सो यह व्याकरण की दृष्टि से जनता से ही जुड़ी रही। वही दूसरे कुछेक रीतिमुक्त कवियों में संस्कृतनिष्ठता से अलग भी चला गया है, यह बात “अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं” की सहजता लिये हुये है। आगे इसी ब्रजभाषा-जनभाषा को सायास रोककर इसपर खड़ी बोली काव्य के व्याकरण को ,जन-कटाव का ध्यान न रखते हुये, हिन्दी के नेताओं ने रख दिया। इसलिये जनता आज तक हिन्दी के उस व्याकरण को पकड़ नहीं पाई। “कुछ” लोगों की सुविधा ने “बहुतों” को साहित्य से दूर रखने का उपक्रम सायास या अनायास कर डाला। आगे स्वाधीनता आंदोलन के ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ के घोष ने बाकी का काम पूरा करने में कोई कोर-कसर न लगाई, और स्वाधीनता के बाद हिन्दी राजभाषा बनी, विद्यालयों/विश्वविद्यालयों में आयी, और ये देश भाषाएँ जो जनभाषायें थीं, और जिनका पृथक-पृथक व्याकरण रहा, ये हिन्दी की बोलियाँ और गँवारू बोलियाँ कहकर पददलित कर दी गयीं। अवधी/ब्रज/भोजपुरी/छत्तीसगढ़ी/मगही...आदि आज तक हिन्दी से कहीं अधिक मौलिक और लंबी साहित्यिक परंपरा के साथ दबा दी गयी हैं, जिन्हें आज भी करोड़ों बोल रहे हैं, और कोई गिनती नहीं। जब इन देशभाषाओं की आजादी की बात आती है तो भीरु बुद्धिजीवी तबका पुराना छल फिर शुरू करता है, और कहता है कि संविधान की आठवीं अनुसूची लायक ये भाषायें नहीं है। यही कोई भारतीय सीमा क्षेत्र की जनभाषा होती, जिसकी भाषिक माँ को दबाने पर भारतीय संघवाद को खतरा होता तो अब तक कब का ही आठवीं अनुसूची उसे सादर “भाषा” का दर्जा दे देती। इसलिये अगर अब लगे कि इन भाषाओं में काव्य की संभावना नहीं तो यह गलत है, जबकि उल्टा ज्यादा सही है कि इन भाषाओं के समक्ष हिन्दी की कृत्रिमता के संस्कार से भरी सौ काव्य-यात्रा कहीं नहीं ठहरती।
..............जारी।
......और,
“छायावादी कविता का क्या...?? इस पर भी प्रकाश पड़े...."
.......साथ ही,
“???? छायावाद नाम नहीं तो क्या नाम है उस काल का...प्लीज़...कहें...ये चर्चा अपने निष्कर्ष पर अवश्य पंहुचाई जानी चाहिए...”
------------------------------------------------------
------------------------------------------------------
गीता जी, मित्रवर रवि जी ने हिन्दी की क्लिष्टता के मूल और उसके जन-कटाव पर अपनी ओर से संक्षेप में काफी कुछ कहा है, मैं अब आगे आता हूं;
रीतिकालीन कविता का भी एक बड़ा अंश संस्कृतनिष्ठता से बोझिल है, उदाहरण केशवदास, और जहाँ लक्षण-ग्रंथ-परंपरा निभायी जा रही है, पर व्याकरण तो इसका जनभाषा यानी ब्रज का ही रहा है, और यह शौरसेनी क्षेत्र की जन-भाषा ही रही है। तभी तो केशव कहते थे, “भाषा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास/ तिन भाषा रचना करी तिन कुल केशवदास”! सो यह व्याकरण की दृष्टि से जनता से ही जुड़ी रही। वही दूसरे कुछेक रीतिमुक्त कवियों में संस्कृतनिष्ठता से अलग भी चला गया है, यह बात “अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं” की सहजता लिये हुये है। आगे इसी ब्रजभाषा-जनभाषा को सायास रोककर इसपर खड़ी बोली काव्य के व्याकरण को ,जन-कटाव का ध्यान न रखते हुये, हिन्दी के नेताओं ने रख दिया। इसलिये जनता आज तक हिन्दी के उस व्याकरण को पकड़ नहीं पाई। “कुछ” लोगों की सुविधा ने “बहुतों” को साहित्य से दूर रखने का उपक्रम सायास या अनायास कर डाला। आगे स्वाधीनता आंदोलन के ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ के घोष ने बाकी का काम पूरा करने में कोई कोर-कसर न लगाई, और स्वाधीनता के बाद हिन्दी राजभाषा बनी, विद्यालयों/विश्वविद्यालयों में आयी, और ये देश भाषाएँ जो जनभाषायें थीं, और जिनका पृथक-पृथक व्याकरण रहा, ये हिन्दी की बोलियाँ और गँवारू बोलियाँ कहकर पददलित कर दी गयीं। अवधी/ब्रज/भोजपुरी/छत्तीसगढ़ी/मगही...आदि आज तक हिन्दी से कहीं अधिक मौलिक और लंबी साहित्यिक परंपरा के साथ दबा दी गयी हैं, जिन्हें आज भी करोड़ों बोल रहे हैं, और कोई गिनती नहीं। जब इन देशभाषाओं की आजादी की बात आती है तो भीरु बुद्धिजीवी तबका पुराना छल फिर शुरू करता है, और कहता है कि संविधान की आठवीं अनुसूची लायक ये भाषायें नहीं है। यही कोई भारतीय सीमा क्षेत्र की जनभाषा होती, जिसकी भाषिक माँ को दबाने पर भारतीय संघवाद को खतरा होता तो अब तक कब का ही आठवीं अनुसूची उसे सादर “भाषा” का दर्जा दे देती। इसलिये अगर अब लगे कि इन भाषाओं में काव्य की संभावना नहीं तो यह गलत है, जबकि उल्टा ज्यादा सही है कि इन भाषाओं के समक्ष हिन्दी की कृत्रिमता के संस्कार से भरी सौ काव्य-यात्रा कहीं नहीं ठहरती।
..............जारी।
July 9 at 4:27pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi पूर्व कमेंट की बात
से आगे....
हाँ आज भी इन देशभाषाओं में रचनायें जारी हैं। जो हिन्दी बौद्धिक इस बात को झूठा कहना चाहे उसे किसी भी जनभाषा के एक जिले के गाँवों के लिखैयों के ५० सालों के लेखन को इकट्ठा करना चाहिये, उसका अध्ययन करना चाहिये, फिर लोकभाषा विरोधी फतवे पर विचार करना चाहिये। इस मुगालते में नहीं रहना चाहिये कि गद्य-पद्य दोनों के योग्य लोकभाषायें नहीं, जिस समय अवधी में पढ़ी जी कवितायें कर रहे थे, उसी समय निराला महावीर प्रसाद जी से अवधी में गद्य में संवाद भी कर रहे थे। देखिये ::
http://wp.me/p1CJf5-a
पर निराला जी अवधी में कविता नहीं लिख रहे थे और उधर हिन्दी को जनकटाव वाली संस्कृतनिष्ठता से संस्कारित कर रहे थे, वजह १- हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की सायास कोशिश, २- ब्रजभाषा(जनभाषा) और उर्दू(अमीर-उमरां की भाषा) दोनों को काव्यभाषा से हटाने की जोर-आजमाइश! [ पंत के ‘परिमल’ की भूमिका देखी जा सकती है] ......ये संदर्भ छायावाद के कवियों के हैं इसलिये इन्हें रखने की कोशिश की मैने, भाषिक क्लिष्टता और जनकटाव को विवेचित करने के लिये।
आगे आपके जो प्रश्न होंगे, उनका स्वागत है! सादर..!
..............फिलहाल समाप्त।
July 9 at 4:30pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi Mahesh Mishra Maral जी कृपया आप मेरे
द्वारा गीता जी को दिये गये उपरोक्त उत्तर-टीप-द्वत को देखें, बात स्प्ष्ट होगी।
आप अवधी/ब्रज/भोजपुरी/छत्तीसगढ़ी/मगही ...आदि को हिन्दी की बोलियां नहीं बल्कि
स्वतंत्र भाषायें मान विचार करें, ग्रामर के अंतर को ध्यान में रखते हुये! सादर..!
July 9 at 4:34pm · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi Girijesh Rao जी, “सढ़ुवाइन से मजाक” का तात्पर्य गंभीर
बातों में आपके शुरू के अगम्भीर-छौंक से है, यह अवधी क्षेत्र में तुकहीन अगम्भीरता का
वाचक है, संभव हो आपके भोजपुरी क्षेत्र में यह न चलता हो या आप अ-लौकिक हो गये
हों!!
@हिन्दी के मामले में संतुलन बिगड़ गया, तारतम्य टूट गया (बड़ा विषय है।)। उर्दू में फैज़ की रचना 'हम देखेंगे' पर पाकिस्तानी पंजाबी जमात झूमती है, उससे अपने को जोड़ पाती है (उर्दू पंजाबी से बाद में वहाँ आई, या यूँ कहिये आरोपित की गई, फिर भी)। आधुनिक हिन्दी कविता में ऐसा कोई उदाहरण मुझे नज़र नहीं आ रहा।
--- असहमत हूं आपसे। यह संतुलन उर्दू के मामले में ज्यादा टूटा। इस्लाम जैसी जबर आइडेंटिटी के बाद भी दो पाकिस्तान में एक अलग देश ही बन गया, बंगला देशभाषा की मांग पर, इसे देखने की कोशिश कीजिये। बाकी पाकिस्तान के एथेनिक आंदोलनों पर एक नजर फिर मारिये, तिब्बत से नाक और सीधी कीजिये।
@दोहा, सोरठा जैसे छोटे और जुबान पर चढ़ने वाले पारम्परिक छ्न्दों को छोड़ हमारे महाकवि घनाक्षरी और सवैया में से कौन 'जातीय छ्न्द' हो इस पर बजड़ते रहे और बाद में तो छ्न्द मुक्ति में उन्हें पलायन की एक राह ही मिल गई।
--- गजब पल्टा लेते रहते हैं भाई आप, छंदमुक्त का गौरवगान अब तक आप करते आये हैं जाइये, देखिये अपनी ही बात को
http://naagaree.blogspot.com/2011/03/blog-post.html
कवि-सुलभ-फिसलन के आप खूब शिकार है, वहां भी मेरा कमेंट देखियेगा!
@ ढेर नहीं लिखूँगा। प्लेटफॉर्म की सीमा है। आप ने कोंच दिया तो बकबका गया नहीं तो चुप ही रहता ...
--- चाहे चुप रहिये या मुखर, आपकी मर्जी। सीमा रेल की लगे या प्लेटफार्म की, आप स्वतंत्र है। और कोंचने की शुरुआत तो आपने ही की थी! :-)
July 9 at 5:05pm · Like
प्रेम कर" इतना सहज और मातृभाषा और लोकभाषाओं के प्रेम से
ओतप्रोत लगा की
एकबरगी तो आश्चर्य हुआ की इन्हें अमरेन्द्र जी की टिपण्णी से मतभेद क्यों
कर है .फिर दुबारा इनकी टिपण्णी पढने पर एक बात स्पष्ट हुई की जब मै,रवि
या अमरेन्द्र भोजपुरी या अवधी की बात कर रहे हैं तो इन्हें स्वतंत्र
भाषाएँ मान कर कर रहे हैं ,जबकि मराल जी लोकभाषाओं के प्रति अगाध प्रेम
के बावजूद इन्हें हिंदी रुपी भाषा माता की बोली रुपी पुत्रियों से अलग कर
के नहीं देख पा रहे हैं.इसमें कुछ अस्वाभाविक भी नहीं है ,क्योंकि मुख्य
धारा की हिंदी अकदमिकी और इसके "शास्त्रीय" विद्वान पिछले १०० सालों से
यहीं मानते और मनवाते आ रहे हैं .तो अपनी बात की शुरुआत इसी उद्घोषणा के
साथ करता हूँ की हिंदी,भोजपुरी ,ब्रजी अदि लोकभाषाएँ हिंदी की बोलियाँ न
होकर स्वतंत्र भाषाएँ हैं .अपनी बात के समर्थन में यथास्थान सैकड़ो
प्रमाण दे सकता हूँ ,लेकिन यहाँ यहीं कह दूँ की हिंदी भाषा पर काम करने
वाले हर एक भाषाशास्त्रीय(linguistic )विद्वान(यहाँ भाषाशास्त्रीय पर जोर
है ,क्यों की हिंदी भाषा और अन्य भाषाओं के बीच संबंधों पर कोई भी काम
अनिवार्य रूप से भाषाशास्त्र का विषय है. ) ने इस बात की पुष्टि की है
.चंद नाम हैं -ग्रियर्सन ,केलाग ,सुनीति चटर्जी ,उदय नारायण तिवारी
,किशोरी दास वाजपई ,वसुधा डालमियां ,फ्रेंचिसका ओर्सिनी अदि ....सूचि
बहुत लम्बी है लेकिन ये सारे लोग हिंदी की मुख्य धारा में हाशिये पर है
और इनके लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया जाता रहा है उनका जिक्र नहीं
करूँ तो बेहतर !अब आते हैं हिंदी की मुख्य धारा पर.इस सन्दर्भ में सबसे
महत्वपूर्ण बात ये है की विश्वविद्यालयों की हिंदी अकादमिकी में भाषा
शास्त्र के अध्ययन की किसी सुनियोजित परंपरा की मुझे कोई जानकारी नहीं
है.(इसीलिए भाषाशास्त्र सम्बन्धी किसी नयी बात के सामने आने पर हिंदी
भाषा के विद्यार्थी को उत्तेजित या भावुक नहीं होना चाहिए क्यों की
भाषाशास्त्र सम्बन्धी हमारा ज्ञान प्रारंभिक तौर पर अधकचरा होता है और
हिंदी आलोचना की मोटी पोथियाँ लिखने वाले कई विद्वानों की भाषाशास्त्रीय
समझ सतही होती है )लेकिन हाँ हिंदी में स्वयंभू भाषाशास्त्रियों की एक
परंपरा जरुर दिखती है जीन पर लम्बी बात हो सकती है .
जारी............
एकबरगी तो आश्चर्य हुआ की इन्हें अमरेन्द्र जी की टिपण्णी से मतभेद क्यों
कर है .फिर दुबारा इनकी टिपण्णी पढने पर एक बात स्पष्ट हुई की जब मै,रवि
या अमरेन्द्र भोजपुरी या अवधी की बात कर रहे हैं तो इन्हें स्वतंत्र
भाषाएँ मान कर कर रहे हैं ,जबकि मराल जी लोकभाषाओं के प्रति अगाध प्रेम
के बावजूद इन्हें हिंदी रुपी भाषा माता की बोली रुपी पुत्रियों से अलग कर
के नहीं देख पा रहे हैं.इसमें कुछ अस्वाभाविक भी नहीं है ,क्योंकि मुख्य
धारा की हिंदी अकदमिकी और इसके "शास्त्रीय" विद्वान पिछले १०० सालों से
यहीं मानते और मनवाते आ रहे हैं .तो अपनी बात की शुरुआत इसी उद्घोषणा के
साथ करता हूँ की हिंदी,भोजपुरी ,ब्रजी अदि लोकभाषाएँ हिंदी की बोलियाँ न
होकर स्वतंत्र भाषाएँ हैं .अपनी बात के समर्थन में यथास्थान सैकड़ो
प्रमाण दे सकता हूँ ,लेकिन यहाँ यहीं कह दूँ की हिंदी भाषा पर काम करने
वाले हर एक भाषाशास्त्रीय(linguistic )विद्वान(यहाँ भाषाशास्त्रीय पर जोर
है ,क्यों की हिंदी भाषा और अन्य भाषाओं के बीच संबंधों पर कोई भी काम
अनिवार्य रूप से भाषाशास्त्र का विषय है. ) ने इस बात की पुष्टि की है
.चंद नाम हैं -ग्रियर्सन ,केलाग ,सुनीति चटर्जी ,उदय नारायण तिवारी
,किशोरी दास वाजपई ,वसुधा डालमियां ,फ्रेंचिसका ओर्सिनी अदि ....सूचि
बहुत लम्बी है लेकिन ये सारे लोग हिंदी की मुख्य धारा में हाशिये पर है
और इनके लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया जाता रहा है उनका जिक्र नहीं
करूँ तो बेहतर !अब आते हैं हिंदी की मुख्य धारा पर.इस सन्दर्भ में सबसे
महत्वपूर्ण बात ये है की विश्वविद्यालयों की हिंदी अकादमिकी में भाषा
शास्त्र के अध्ययन की किसी सुनियोजित परंपरा की मुझे कोई जानकारी नहीं
है.(इसीलिए भाषाशास्त्र सम्बन्धी किसी नयी बात के सामने आने पर हिंदी
भाषा के विद्यार्थी को उत्तेजित या भावुक नहीं होना चाहिए क्यों की
भाषाशास्त्र सम्बन्धी हमारा ज्ञान प्रारंभिक तौर पर अधकचरा होता है और
हिंदी आलोचना की मोटी पोथियाँ लिखने वाले कई विद्वानों की भाषाशास्त्रीय
समझ सतही होती है )लेकिन हाँ हिंदी में स्वयंभू भाषाशास्त्रियों की एक
परंपरा जरुर दिखती है जीन पर लम्बी बात हो सकती है .
जारी............
July 9 at 5:22pm · like ·
1 person

o Dipankar Mishra अब रवि और अमरेन्द्र
जब हिंदी के हवाले से कोई बात कहते हैं तो मन में
उनकी एक हिंदी के आलोचक /दुश्मन की छवि बनाने से पहले यह सोच लेना
चाहिए
ये लोग किसी तमिल ,भोजपुरी या अवधी के विद्यार्थी /शोधार्थी नहीं हैं
.इन्होने अपने पिछले ८-१० वर्ष हिंदी के अध्ययन और मनन में ही लगाये हैं
.और आज जब ये लोग इस किनारे कर दी गयी अवधारणा को नए सिरे से उठा रहे
हैं तो ऐसा करने से पहले इन्हें अपने आप से कितना लड़ना पड़ा होगा ये मै
समझ सकता हूँ .इनकी दुविधा और मनः संघर्षों को उदय नारायण तिवारी के एक
व्यक्तिगत उदहारण से बड़ी सटीक अभिव्यक्ति मिलती है -
" बात सन १९२५ की है .तब मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में बी ए प्रथम वर्ष
का छात्र था .एक दिन कक्षा में आदरणीय डॉ धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी की
सीमा बतलाते हुए कहा -"डॉ ग्रियर्सन के अनुसार भोजपुरी भाषा-क्षेत्र
हिंदी के बाहर पड़ता है ;किन्तु मै ऐसा नहीं मानता."भोजपुरी भाषा भाषी
होने के नाते तथा राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति अनन्य स्नेह होने के कारण
,डॉ वर्मा के विचार तो मुझे रुचिकर प्रतीत हुए ;परन्तु डॉ ग्रियर्सन की
उपर्युक्त स्थापना से ह्रदय बहुत क्षुब्ध हुआ.मैंने यह धारणा बना ली थी
की भोजपुरी हिंदी की हि एक विभाषा है ,अतएवं हिंदी के क्षेत्रों से
भोजपुरी को अलग करना मुझे देशद्रोह सा प्रतीत हुआ .मैंने अपने मन में
सोचा ,-ग्रियर्सन आइ.सी.एस. था ,फुट डालकर शासन करने वाली जाति का एक अंग
था ,समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने में समर्थ हिंदी को अनेक छोटे
-छोटे क्षेत्रों में विभाजित करने में उसकी यहीं विभाजक निति अवश्य रही
होगी .उसी समय मेरे मन में संकल्प जागृत हुआ की पढाई समाप्त करने के
अनंतर मै एक दिन भोजपुरी के सम्बन्ध में ग्रियर्सन द्वारा फैलाये गए इस
भ्रम को अवश्य हीं निराधार सिद्ध करूँगा और सप्रमाण यह दिखा दूंगा की
भोजपुरी हिंदी की हीं एक बोली है तथा उसका क्षेत्र हिंदी का हीं क्षेत्र
है .
परन्तु आज भोजपुरी के अध्ययन में चौबीस वर्षों तक निरंतर लगे
रहने तथा भाषाशास्त्र के अधिकारी विद्वानों के संपर्क से भाषा -विज्ञानं
के सिधान्तों को यत्किंचित सम्यक रूप में समझ लेने के पश्चात् मुझे अपने
उस पूर्वाग्रह पर खेद होता है ,जो बी ए प्रथम वर्ष में ,भाषा विज्ञानं के
गंभीर परिशीलन के बिना हीं मेरे ह्रदय में स्थान पा गया था .आज मुझे डॉ
ग्रियर्सन के परिश्रम ,ज्ञान एवं पक्षपात रहित -विवेचना के गौरव का अनुभव
होता है और इस विद्वान् के प्रति ह्रदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता
है;साथ हीं याद आती है -भर्तुहरि की ये पंक्तियाँ -
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः।
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः।।
“जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस
पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत
में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब
अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।”
(भोजपुरी भाषा और साहित्य ,लेखक -उदय नारायण तिवारी ,बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद-१९५४)"
जारी..............
ये लोग किसी तमिल ,भोजपुरी या अवधी के विद्यार्थी /शोधार्थी नहीं हैं
.इन्होने अपने पिछले ८-१० वर्ष हिंदी के अध्ययन और मनन में ही लगाये हैं
.और आज जब ये लोग इस किनारे कर दी गयी अवधारणा को नए सिरे से उठा रहे
हैं तो ऐसा करने से पहले इन्हें अपने आप से कितना लड़ना पड़ा होगा ये मै
समझ सकता हूँ .इनकी दुविधा और मनः संघर्षों को उदय नारायण तिवारी के एक
व्यक्तिगत उदहारण से बड़ी सटीक अभिव्यक्ति मिलती है -
" बात सन १९२५ की है .तब मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में बी ए प्रथम वर्ष
का छात्र था .एक दिन कक्षा में आदरणीय डॉ धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी की
सीमा बतलाते हुए कहा -"डॉ ग्रियर्सन के अनुसार भोजपुरी भाषा-क्षेत्र
हिंदी के बाहर पड़ता है ;किन्तु मै ऐसा नहीं मानता."भोजपुरी भाषा भाषी
होने के नाते तथा राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति अनन्य स्नेह होने के कारण
,डॉ वर्मा के विचार तो मुझे रुचिकर प्रतीत हुए ;परन्तु डॉ ग्रियर्सन की
उपर्युक्त स्थापना से ह्रदय बहुत क्षुब्ध हुआ.मैंने यह धारणा बना ली थी
की भोजपुरी हिंदी की हि एक विभाषा है ,अतएवं हिंदी के क्षेत्रों से
भोजपुरी को अलग करना मुझे देशद्रोह सा प्रतीत हुआ .मैंने अपने मन में
सोचा ,-ग्रियर्सन आइ.सी.एस. था ,फुट डालकर शासन करने वाली जाति का एक अंग
था ,समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने में समर्थ हिंदी को अनेक छोटे
-छोटे क्षेत्रों में विभाजित करने में उसकी यहीं विभाजक निति अवश्य रही
होगी .उसी समय मेरे मन में संकल्प जागृत हुआ की पढाई समाप्त करने के
अनंतर मै एक दिन भोजपुरी के सम्बन्ध में ग्रियर्सन द्वारा फैलाये गए इस
भ्रम को अवश्य हीं निराधार सिद्ध करूँगा और सप्रमाण यह दिखा दूंगा की
भोजपुरी हिंदी की हीं एक बोली है तथा उसका क्षेत्र हिंदी का हीं क्षेत्र
है .
परन्तु आज भोजपुरी के अध्ययन में चौबीस वर्षों तक निरंतर लगे
रहने तथा भाषाशास्त्र के अधिकारी विद्वानों के संपर्क से भाषा -विज्ञानं
के सिधान्तों को यत्किंचित सम्यक रूप में समझ लेने के पश्चात् मुझे अपने
उस पूर्वाग्रह पर खेद होता है ,जो बी ए प्रथम वर्ष में ,भाषा विज्ञानं के
गंभीर परिशीलन के बिना हीं मेरे ह्रदय में स्थान पा गया था .आज मुझे डॉ
ग्रियर्सन के परिश्रम ,ज्ञान एवं पक्षपात रहित -विवेचना के गौरव का अनुभव
होता है और इस विद्वान् के प्रति ह्रदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता
है;साथ हीं याद आती है -भर्तुहरि की ये पंक्तियाँ -
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः।
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः।।
“जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस
पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत
में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब
अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।”
(भोजपुरी भाषा और साहित्य ,लेखक -उदय नारायण तिवारी ,बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद-१९५४)"
जारी..............
July 9 at 5:24pm · like ·
1 person

o Dipankar Mishra अब कुछ बातें मोटे
संकेतों के तौर पर रख देता हूँ जिनपर आवश्यकतानुसार
विस्तृत चर्चा भी कर सकूँगा .
क्या यह strange नहीं लगता कि हिंदी भाषा के इतिहास ग्रंथों में १५ वीं ,
१६ वीं और १७ वीं शताब्दियों में अवधी ,भोजपुरी और ब्रजी के कवि ,मसलन
जायसी,कबीर ,तुलसी ,सूरदास आदि , प्रतिनिधि कवि के रूप में दिखाए जाते
हैं ,वहीँ २० वीं शताब्दी आते आते इन भाषा के कवियों और साहित्यकारों पर
एक लाइन भी नहीं खर्च किया गया है .तो क्या इन भाषाओँ में साहित्य रचना
बंद हो चुकी थी ?नहीं ,तमाम प्रलोभनों ,सामाजिक दबावों (तथाकथित हिंदी
पट्टी की भाषाओँ के तमाम साहित्यकारों के हिंदी में switch over कर जाने
की त्रासद गाथा का संकेत भर कर रहा हूँ ,)के बावजूद इन भाषाओँ में रचनाएँ
हो रही थीं और होती रहीं .
उत्तर भारत की तमाम भाषाओँ को दबा कर हिदी के अश्वमेध का घोडा आगे बढ़ा
और बंगाल पहुँच गया .बंगला भाषा और लिपि के ऊपर हिंदी की श्रेष्ठता के
दावे किये जाने लगे .और यह बेशर्म दृष्टता तब की जा रही थी जब की उस
वक़्त भी बंगला में शरतचंद्र जैसे उपन्यासकार और टैगोर जैसे कवि लिख रहे
थे .भारत भर में नगरी प्रचार सभाएं स्थापित की गयीं और इस प्रक्रिया में
सुदूर दक्षिण(तमिल प्रदेश) को भी नहीं छोड़ा गया .इन्ही प्रदेशों में
२०००साल पहले तमिल भाषा में संगम साहित्य की रचनाएँ हो रही थीं और उन्ही
लोगों से उनकी अपनी भाषाएँ भूल कर नागरी सिखने को कहा जा रहा था .धिक्
पाखंड !
वैसे इसका एक रूप तो आज भी दिख जायेगा ,कुछ पूर्वोतर राज्यों के
नामकरण में .अरुणाचल प्रदेश और मेघालय! पता नहीं इन प्रदेशों के कितने
लोगों को अरुणाचल और मेघालय का अर्थ पता होगा .क्या इन प्रदेशों में अपनी
भाषाएँ नहीं हैं ?
अभी हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान के नारे ,आर्य समाज की भूमिका और हिंदी
उर्दू विवाद के हवाले से बहुत कुछ कहना बाकि है जिन्हें बहस के आगे बढ़ने
पर रखने की कोशिश करूँगा .
अंत में कहूँगा की हिंदी के भाषा के रूप में विकास और हिंदी की उसकी
तथा कथित बोलियों से संबंधों पर देर सारी सामग्री उपलब्ध है.जिनकी इच्छा
हो उनकी यथासंभव मदद करने की कोशिश करूँगा ,क्योंकि अंततः मेरा उद्देश्य
एक constructive संवाद स्थापित करना है .मै अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ की आज से ५ साल पहले मुझसे कोई ये
बात कहता की अवधी /भोजपुरी आदि हिंदी की बोलियाँ नहीं बल्कि स्वतंत्र
भाषाएँ है तो मै इसे कोरी बकवास हीं मानता ,लेकिन आज अपने ज्ञान को
परिमार्जित और परिशोधित कर के अति संतुष्ट हूँ .हम युवा हैं और हमारे
अन्दर पूर्वाग्रहों ने अभी इतनी जड़ नहीं जमाई है की उन्हें खोद कर
उखाड़ा न जा सके.
समाप्त
क्या यह strange नहीं लगता कि हिंदी भाषा के इतिहास ग्रंथों में १५ वीं ,
१६ वीं और १७ वीं शताब्दियों में अवधी ,भोजपुरी और ब्रजी के कवि ,मसलन
जायसी,कबीर ,तुलसी ,सूरदास आदि , प्रतिनिधि कवि के रूप में दिखाए जाते
हैं ,वहीँ २० वीं शताब्दी आते आते इन भाषा के कवियों और साहित्यकारों पर
एक लाइन भी नहीं खर्च किया गया है .तो क्या इन भाषाओँ में साहित्य रचना
बंद हो चुकी थी ?नहीं ,तमाम प्रलोभनों ,सामाजिक दबावों (तथाकथित हिंदी
पट्टी की भाषाओँ के तमाम साहित्यकारों के हिंदी में switch over कर जाने
की त्रासद गाथा का संकेत भर कर रहा हूँ ,)के बावजूद इन भाषाओँ में रचनाएँ
हो रही थीं और होती रहीं .
उत्तर भारत की तमाम भाषाओँ को दबा कर हिदी के अश्वमेध का घोडा आगे बढ़ा
और बंगाल पहुँच गया .बंगला भाषा और लिपि के ऊपर हिंदी की श्रेष्ठता के
दावे किये जाने लगे .और यह बेशर्म दृष्टता तब की जा रही थी जब की उस
वक़्त भी बंगला में शरतचंद्र जैसे उपन्यासकार और टैगोर जैसे कवि लिख रहे
थे .भारत भर में नगरी प्रचार सभाएं स्थापित की गयीं और इस प्रक्रिया में
सुदूर दक्षिण(तमिल प्रदेश) को भी नहीं छोड़ा गया .इन्ही प्रदेशों में
२०००साल पहले तमिल भाषा में संगम साहित्य की रचनाएँ हो रही थीं और उन्ही
लोगों से उनकी अपनी भाषाएँ भूल कर नागरी सिखने को कहा जा रहा था .धिक्
पाखंड !
वैसे इसका एक रूप तो आज भी दिख जायेगा ,कुछ पूर्वोतर राज्यों के
नामकरण में .अरुणाचल प्रदेश और मेघालय! पता नहीं इन प्रदेशों के कितने
लोगों को अरुणाचल और मेघालय का अर्थ पता होगा .क्या इन प्रदेशों में अपनी
भाषाएँ नहीं हैं ?
अभी हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान के नारे ,आर्य समाज की भूमिका और हिंदी
उर्दू विवाद के हवाले से बहुत कुछ कहना बाकि है जिन्हें बहस के आगे बढ़ने
पर रखने की कोशिश करूँगा .
अंत में कहूँगा की हिंदी के भाषा के रूप में विकास और हिंदी की उसकी
तथा कथित बोलियों से संबंधों पर देर सारी सामग्री उपलब्ध है.जिनकी इच्छा
हो उनकी यथासंभव मदद करने की कोशिश करूँगा ,क्योंकि अंततः मेरा उद्देश्य
एक constructive संवाद स्थापित करना है .मै अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ की आज से ५ साल पहले मुझसे कोई ये
बात कहता की अवधी /भोजपुरी आदि हिंदी की बोलियाँ नहीं बल्कि स्वतंत्र
भाषाएँ है तो मै इसे कोरी बकवास हीं मानता ,लेकिन आज अपने ज्ञान को
परिमार्जित और परिशोधित कर के अति संतुष्ट हूँ .हम युवा हैं और हमारे
अन्दर पूर्वाग्रहों ने अभी इतनी जड़ नहीं जमाई है की उन्हें खोद कर
उखाड़ा न जा सके.
समाप्त
July 9 at 5:26pm · like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi अक्षरशः सहमत हूं
दीपांकर जी आपसे! विस्तृत रूप से आपने काफी कह दिया है।
अब लोगों को चाहिये कि इस सभी बातों पर विचार करते हुये अपनी बातों को
रखें। इससे लोकभाषा के पक्ष को समझने में आसानी होगी, और भावुक ढ़ंग से बातों पर नहीं सोचा
जायेगा, लेकिन लोगों को इन सारी बातों को चौकस होकर पढ़ना और समझना चाहिये!
July 9 at 5:50pm · Like ·
1 person

o Bhartendu Mishra भाई अमरेन्द्र जी और
दीपांकर जी की बातचीत पढकर आनन्द मिला। ये गम्भीर विषय है।आप लोगों के विचार भी
साफ हैं,मुझे
लगता है कि हिन्दी का चरित्र सत्ता की भाषा जैसा हो गया है।जैसा किसी समय संस्कृत,अंग्रेजी और उर्दू
का हुआ होगा किंतु अवधी,बृज,बुन्देली आदि लगभग सत्ता हीन भाषाएँ बनी रहीं इसी लिए इन भाषाओं में
संवेदना की सुगन्ध मिलती है।सत्ता की भाषा धीरे धीरे संवेदना शून्यता की ओर ले
जाती है।रचनात्मकता की सर्वाधिक संभावना इन्ही सत्ताहीन जनभाषाओं में आज भी
विद्यमान है।यहाँ रचनाकार पुरस्कार आदि के लिए छपकर अकादमिक आदि होने के लिए भी
नही लिखता।वह अपने लोक जीवन के लिए लिखता है।वह अपने लोक जीवन की वैचारिक
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को सुदृढ करने के लिए लिखता है। हिन्दी में रचनात्मकता पर
खरपतवार अधिक आ गया है॥
July 9 at 5:52pm · like ·
3 people

o Amrendra Nath Tripathi Saurabh Pandey ji, Mahesh Mishra Maralji, आप दोनों सहृदयों से
सादर निवेदन है कि उपर आये अनेक तर्कपूर्ण और तथ्यपूर्ण कमेंटों(विशेष कर रवि, दीपांकर आदि के...)
को बुद्धि-निकष पर कस कर अपने सवाल, सहमति/असहमति से अवगत करायें, ताकि चर्चा जारी
रहे! सादर..!
July 9 at 8:25pm · Like
o महेश चन्द्र मिश्र भैया अमरेन्द्र जी !
हम सोच तो रहे थे कि उपराम हों इस चर्चा से लेकिन आपके आदेश और दीपांकर भाई के एक
आश्चर्य के मद्देनजर कुछ अर्ज है...
यह सफाई नहीं है...मेरी मातृभाषा अवधी है..मुझे भोजपुरी बहुत प्रिय है और वो तमाम देश-भाषाएँ जिन्हें कुछ कम बूझ पाता हूँ उनसे भी लगाव है..भाई अमरेन्द्र जी से तो सम्पर्क ही इसी लोभ से हुआ कि आपके स्टेटस पर अवधी दिखी...दीपांकर जी को जाने क्यों लगा कि मेरा मतभेद है आपसे....हाँ उतना पढ़ा-लिखा नही हूँ ना तो लाचार हूँ...रही शास्त्रीय और अकादमिक होने की बात... तो राम कहिये , यहाँ ये जरूर बता दूँ कि मैं बोलियों को भाषा की बेटी पतोहू आदि नही समझता...समझ भी नही सकता क्योंकि भाषाएँ बोलियों को नहीं अपितु बोलियां भाषाओं को जन्म देती हैं मेरी समझ में...किसी प्रतिवाद के लिए मैं चर्चा में शामिल नही हुआ...एक टिप्पणी " हिन्दी में (अपवाद को छोड़कर) कवि के पाठकों का दायरा बढ़ने के साथ उनका काव्य-पदार्थ घटने लगता है! इस राजभाषा के साहित्य में कचड़े की भारी मात्रा त्रासद है|" पढकर लगा ये कि बात अनुपेक्षणीय है तो कुछ-कुछ कहा...मैं किसी बड़ी रेखा को छोटी करने के लिए उसे काटने के बजाय दूसरा विकल्प चुनने का हामी हूँ.....
मैथिली,भोजपुरी हिन्दी को निशाना बना कर नही बड़ी हुईं...जरूरत अपना काम करने की है..
बचपन से मैंने भी जो सीखा वो अधिकांश अवधी था....इन सब के बावजूद कुछ निवेदन है इसे तर्क के बजाय जिज्ञासा के रूप में लेने की कृपा करें
- अंचलों से ऊपर जो समाज है उसके परस्पर संवाद की भाषा क्या
हो ?
- बात राष्ट्र की होने पर भाषा का मानक रूप क्या हो ?
- आंचलिक भाषाओं के रूप में भोजपुरी और अवधी ही क्यों मगही,
बज्जिका, बघेली , बुन्देलखंडी व अन्य और फिर इनके अंतर्वर्ती भेद-
कासिका, अंगिका ,बैसवारी आदि सब के स्वायत्त होने की स्थिति में क्या
समाज-संरचना भाषिक आधारों पर हो ?
- क्या कोई राष्ट्रीय चिन्ता इन्ही भाषाओं में व्यक्त हो ? यदि हाँ तो फिर
सभी भाषाएँ क्या अंचलों को संबोधित करेंगी ?
कोई आग्रह नहीं , बस बात आदमी से आदमी के जुड़े रहने में यदि भाषा की भी कोई भूमिका हूँ तो वह कैसे तय हो ? ये जानना चाहता हूँ.... साहित्यिक उत्थान हो देश-भाषाओँ का.... ठीक है पर एक संवाद-भाषा राष्ट्र की हो तो कौन सी हो ?
July 9 at 10:16pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi Mahesh Mishra Maral जी, शुक्रिया आगमन हेतु।
प्रश्न रखने हेतु! अब आपके सवालों पर आता हूं::
यह सत्य है कि स्टैटस की बहस जो थी उसका स्वरूप हट कर था लेकिन अब जो
नया स्वरूप है वह उसी से जुड़ा है और सार्थकता लिये हुये है, इसलिये इसे जारी
रहने में ठीक लग रहा है। दूसरी बात है कि जब एक रेखा दूसरी पर लदी हो और उपेक्षित
किये हो, तो दूसरी से निजात पा ही पहलकी अपना सर्वांगी/संपूर्ण विकास कर सकेगी।
पहले तो इस देशभाषाओं को इनके पहिलकी रेखा(हिन्दी) के जबरिया अंतर्भुक्त(बोली) रूप
से आजादी तो दी जाय, बाकी काम इन लोकभाषाओं के ऊर्जा-स्फूर्त कंठ
स्वतः कर ही देंगे। इसके बाद हमारी दुश्मनी किसी हिन्दी से नहीं है, अवधी/ब्रजी/भोजपुरी..आदि
आदि भाषाओं का ओहदा और रुतबा वही है जो तमाम नव्य भारतीय आर्य भाषा मैथिली, बंगला, असमिया, उड़िया आदि का है, पहले हिन्दी की
बोलियाँ से अलग इन्हें नव्य भारतीय आर्य भाषा यह पहचान संविधान-दत्त अधिकार तो
मिले। रेखा छोड़े तो दूसरी(बहुतेरी) रेखाओं को, काम का जलवा फिर देखिये।
..........जारी।
..........जारी।
July 9 at 11:52pm · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi पिछले कमेंट से
जारी...
@अंचलों से ऊपर जो समाज है उसके परस्पर संवाद की भाषा क्या हो ?
--- संवाद की भाषा के लिये इन आंचलिक भाषाओं की अवहेलना क्यों हो, संवाद का तर्क और बड़ा होकर अंग्रेजी का दामन थामेगा, जिसमें अनुचित कुछ नहीं, साउथ इंडिया भी भारत में है, जिसके साथ अंग्रेजी में संवाद हम करेंगे, और इसका लाभ संपूर्ण विश्व से संवाद के साथ भी रहेगा। यहीं पर आपका यह सवाल भी जोड़ता हूं @बात राष्ट्र की होने पर भाषा का मानक रूप क्या हो ? >> कोई जरूरी नहीं है कि भाषा की मानक इकाई बनाकर ही ‘राष्ट्र’ की संकल्पना पूर्ण की जाय। २००० सालों का भारत का इतिहास गवाह है की भाषा राष्ट्रीय एकता के तत्वों में कभी शामिल नहीं रही और भाषिक विविधता के बावजूद यहाँ एकता के सूत्र हमेशा मौजूद रहे लेकिन भारतीय राष्ट्र के एकता के वास्तविक तत्वों की पहचान किये बिना इसकी विविधता को निशाना बनाया जाता रहा है और उसे राष्ट्रीय एकता के लिए घातक बताया जाता रहा है । यही आपके इस प्रश्न का मेरी तरफ से उत्तर भी है कि “ठीक है पर एक संवाद-भाषा राष्ट्र की हो तो कौन सी हो ?”
........जारी।
--- संवाद की भाषा के लिये इन आंचलिक भाषाओं की अवहेलना क्यों हो, संवाद का तर्क और बड़ा होकर अंग्रेजी का दामन थामेगा, जिसमें अनुचित कुछ नहीं, साउथ इंडिया भी भारत में है, जिसके साथ अंग्रेजी में संवाद हम करेंगे, और इसका लाभ संपूर्ण विश्व से संवाद के साथ भी रहेगा। यहीं पर आपका यह सवाल भी जोड़ता हूं @बात राष्ट्र की होने पर भाषा का मानक रूप क्या हो ? >> कोई जरूरी नहीं है कि भाषा की मानक इकाई बनाकर ही ‘राष्ट्र’ की संकल्पना पूर्ण की जाय। २००० सालों का भारत का इतिहास गवाह है की भाषा राष्ट्रीय एकता के तत्वों में कभी शामिल नहीं रही और भाषिक विविधता के बावजूद यहाँ एकता के सूत्र हमेशा मौजूद रहे लेकिन भारतीय राष्ट्र के एकता के वास्तविक तत्वों की पहचान किये बिना इसकी विविधता को निशाना बनाया जाता रहा है और उसे राष्ट्रीय एकता के लिए घातक बताया जाता रहा है । यही आपके इस प्रश्न का मेरी तरफ से उत्तर भी है कि “ठीक है पर एक संवाद-भाषा राष्ट्र की हो तो कौन सी हो ?”
........जारी।
July 10 at 12:06am · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi rashtra
ki ek samvad bhasha kya ho? >> to yahi kahna hai ki bharat jaise vividhta
wale desh me ek samvad bhasha banane ke pahle Hitlar ko bhi sochna padega ,aur
loktantra me to iski kalpna bhi nahi ki ja sakti.
aur..
aur jab aadhunik rashtra ki sankalpana nahi thi to kya Bharat ke alag -alag bhag ke logon ke bich samvad nahi hota tha?kabir aur tulsi kaise ghar ghar me pahunch gaye?tamil pradesh ka aadmi kaise banaras aur gaya me aa kar tirath kartaa tha?
............jaaree!
aur jab aadhunik rashtra ki sankalpana nahi thi to kya Bharat ke alag -alag bhag ke logon ke bich samvad nahi hota tha?kabir aur tulsi kaise ghar ghar me pahunch gaye?tamil pradesh ka aadmi kaise banaras aur gaya me aa kar tirath kartaa tha?
............jaaree!
July 10 at 12:09am · Like
o Amrendra Nath Tripathi जारी के आगे...
@आंचलिक भाषाओं के रूप में भोजपुरी और अवधी ही क्यों मगही, बज्जिका, बघेली , बुन्देलखंडी व अन्य
और फिर इनके अंतर्वर्ती भेद-कासिका, अंगिका ,बैसवारी आदि सब के स्वायत्त होने की
स्थिति में क्या समाज-संरचना भाषिक आधारों पर हो ?
--- सुहृद मराल जी, हम तो हिन्दी के अंतर्गत परिगणित उन सभी तथाकथित बोलियों की बात करते हैं, उनकी आजादी की बात, जब हम अवधी/भोजपुरी कहते हैं तो उदाहरण के रूप में कह रहे होने हैं, पीड़ा तो सभी की है, और किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हम इसको बखूबी व्यक्त करते आये हैं, उपर की मेरी बातों को चौकस होकर आपको पढ़ना था, जहाँ मैने कई बार कहा है, स्पष्ट रूप में, “ अवधी/ब्रज/भोजपुरी/छत्तीसगढ़ी/मगही...आदि आज तक हिन्दी से कहीं अधिक मौलिक और लंबी साहित्यिक परंपरा के साथ दबा दी गयी हैं, जिन्हें आज भी करोड़ों बोल रहे हैं, और कोई गिनती नहीं।” .......क्लीयर तो है न, ‘आदि’ शब्द तो ध्यान में लाना था प्रभु। ....आपको भी मेरी इंगिति थी, पुनः रख रहा, “ Mahesh Mishra Maral जी कृपया आप मेरे द्वारा गीता जी को दिये गये उपरोक्त उत्तर-टीप-द्वत को देखें, बात स्प्ष्ट होगी। आप अवधी/ब्रज/भोजपुरी/छत्तीसगढ़ी/मगही ...आदि को हिन्दी की बोलियां नहीं बल्कि स्वतंत्र भाषायें मान विचार करें, ग्रामर के अंतर को ध्यान में रखते हुये!”
.................जारी।
--- सुहृद मराल जी, हम तो हिन्दी के अंतर्गत परिगणित उन सभी तथाकथित बोलियों की बात करते हैं, उनकी आजादी की बात, जब हम अवधी/भोजपुरी कहते हैं तो उदाहरण के रूप में कह रहे होने हैं, पीड़ा तो सभी की है, और किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हम इसको बखूबी व्यक्त करते आये हैं, उपर की मेरी बातों को चौकस होकर आपको पढ़ना था, जहाँ मैने कई बार कहा है, स्पष्ट रूप में, “ अवधी/ब्रज/भोजपुरी/छत्तीसगढ़ी/मगही...आदि आज तक हिन्दी से कहीं अधिक मौलिक और लंबी साहित्यिक परंपरा के साथ दबा दी गयी हैं, जिन्हें आज भी करोड़ों बोल रहे हैं, और कोई गिनती नहीं।” .......क्लीयर तो है न, ‘आदि’ शब्द तो ध्यान में लाना था प्रभु। ....आपको भी मेरी इंगिति थी, पुनः रख रहा, “ Mahesh Mishra Maral जी कृपया आप मेरे द्वारा गीता जी को दिये गये उपरोक्त उत्तर-टीप-द्वत को देखें, बात स्प्ष्ट होगी। आप अवधी/ब्रज/भोजपुरी/छत्तीसगढ़ी/मगही ...आदि को हिन्दी की बोलियां नहीं बल्कि स्वतंत्र भाषायें मान विचार करें, ग्रामर के अंतर को ध्यान में रखते हुये!”
.................जारी।
July 10 at 12:21am · Like ·
3 people

o Amrendra Nath Tripathi जारी से आगे.....
@........इनके अंतर्वर्ती भेद-कासिका, अंगिका ,बैसवारी आदि सब के स्वायत्त होने की
स्थिति में क्या समाज-संरचना भाषिक आधारों पर हो ?
--- इस तरफ भाषा-शास्त्रीय दृष्टि रखनी होगी। देशभाषाओं के अंतर्वर्ती भेद उस देशभाषा के व्याकरण के भीतर ही लहजे के भेद हैं। यह लहजे के भेद आपको अन्य नव्य भारतीय आर्य भाषा मराठी, बंगला ...सभी में मिलेगा। इससे भाषा अलग नहीं साबित होती। हम हिन्दी जैसे मानकीकरण के विरोधी हैं, इसलिये इन अंतर्वर्ती भेदों की खूबसूरती और सहजता के साथ भाषा से बाहर नहीं रखते, व्याकरण एक है। कासिका उसी तरह भोजपुरी का लहजा है जिस तरह बैसवाड़ी अवधी का। इसी तरह अन्य देश भाषाओं में भी है। इसमें कोई दिक्कत नहीं, ऐसा भाषाभास्त्रीय विद्वानों ने स्पष्ट रूप में कहा है।
...........जारी।
--- इस तरफ भाषा-शास्त्रीय दृष्टि रखनी होगी। देशभाषाओं के अंतर्वर्ती भेद उस देशभाषा के व्याकरण के भीतर ही लहजे के भेद हैं। यह लहजे के भेद आपको अन्य नव्य भारतीय आर्य भाषा मराठी, बंगला ...सभी में मिलेगा। इससे भाषा अलग नहीं साबित होती। हम हिन्दी जैसे मानकीकरण के विरोधी हैं, इसलिये इन अंतर्वर्ती भेदों की खूबसूरती और सहजता के साथ भाषा से बाहर नहीं रखते, व्याकरण एक है। कासिका उसी तरह भोजपुरी का लहजा है जिस तरह बैसवाड़ी अवधी का। इसी तरह अन्य देश भाषाओं में भी है। इसमें कोई दिक्कत नहीं, ऐसा भाषाभास्त्रीय विद्वानों ने स्पष्ट रूप में कहा है।
...........जारी।
July 10 at 12:30am · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi जारी से आगे......
॥ रोमन में हुये कमेंट का देवनागरी में अनुवाद और थोड़ा और बातें के
साथ भी ॥
____ मराल जी, राष्ट्र की एक संवाद भाषा क्या हो?? >> भारत जैसे विविधता वाले देश में एक संवाद भाषा “बनाने” के पहले हिटलर को भी सोचना पड़ेगा और लोकतंत्र में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सहज प्रक्रिया में बनना दूसरी बात है, हिन्दी “बनायी” जाती रही, इसके प्रमाण ऊपर बहुत से दिये जा चुके हैं। जब आधुनिक राष्ट्र की संकल्पना नहीं थी तब क्या भारत के अलग अलग भाग के लोगों के बीच संवाद नहीं होता था? कबीर और तुलसी कैसे घर घर पहुंच गये? तमिल प्रदेश का आदमी कैसे बनारस और गया आ कर तीरथ करता था?
भाषा को राष्ट्र के एकता के तत्वों में शामिल करना राष्ट्र राज्य के दौर की एक पश्चिमी अवधारना थी (जो अब वहां भी ख़त्म हो चुकी है )जो अंग्रेजों के माध्यम से यहाँ तक आई और यहाँ आने पर उन्हें सबसे आश्चर्य यहीं हुआ की यहाँ के लोगों की तो कोई एक भाषा ही नहीं है .इसी को दुरुस्त करने के लिए ही तो गिलक्रिस्ट साहब [ १८०० ई.] बैठे और हिंदी का ये सारा बखेड़ा शुरू हुआ.आगे तो आप जानते ही हैं । सादर..!
.............फिलहाल समाप्त॥
____ मराल जी, राष्ट्र की एक संवाद भाषा क्या हो?? >> भारत जैसे विविधता वाले देश में एक संवाद भाषा “बनाने” के पहले हिटलर को भी सोचना पड़ेगा और लोकतंत्र में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सहज प्रक्रिया में बनना दूसरी बात है, हिन्दी “बनायी” जाती रही, इसके प्रमाण ऊपर बहुत से दिये जा चुके हैं। जब आधुनिक राष्ट्र की संकल्पना नहीं थी तब क्या भारत के अलग अलग भाग के लोगों के बीच संवाद नहीं होता था? कबीर और तुलसी कैसे घर घर पहुंच गये? तमिल प्रदेश का आदमी कैसे बनारस और गया आ कर तीरथ करता था?
भाषा को राष्ट्र के एकता के तत्वों में शामिल करना राष्ट्र राज्य के दौर की एक पश्चिमी अवधारना थी (जो अब वहां भी ख़त्म हो चुकी है )जो अंग्रेजों के माध्यम से यहाँ तक आई और यहाँ आने पर उन्हें सबसे आश्चर्य यहीं हुआ की यहाँ के लोगों की तो कोई एक भाषा ही नहीं है .इसी को दुरुस्त करने के लिए ही तो गिलक्रिस्ट साहब [ १८०० ई.] बैठे और हिंदी का ये सारा बखेड़ा शुरू हुआ.आगे तो आप जानते ही हैं । सादर..!
.............फिलहाल समाप्त॥
July 10 at 12:43am · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi Mahesh Mishra Maral जी, आपके प्रश्नों के
उत्तर सादर निवेदित हो चुके हैं, और भी जो लोग प्रश्न-कामी हों, उनका सादर स्वागत है, संवाद हर स्थिति में
अपेक्षित है। मराल जी, आपके अग्रिम प्रश्नों/जिज्ञासाओं/असहमतियों सभी
का स्वागत है। सादर..!
July 10 at 12:48am · Like ·
1 person

o Dipankar Mishra हमको हिंदी जैसा
मानकीकृत और "वैज्ञानिक" व्याकरण नहीं बनाना है ,क्यों की हिंदी का
व्याकरण drawing rooms में बैठ कर लिखा गया है ना की पाणिनि और पश्चिम के
विद्वानों की तरह लोगों के बीच जा कर और उन्हें बोलते हुए सुन कर .क्यों ? क्योंकि ,हिंदी का कोई नेटिव
स्पीकर नहीं था और विद्वानों ने इस कारण इसे यांत्रिक (और वैज्ञानिक भी ) बनाने
में कोई कसार नहीं छोड़ी.हमारी लोकभाषाओं को तो करोडो लोग बोलते हैं और उनकी
पुस्तकें तैयार करते वक्त उनके अन्दर की विविधताओं का सम्मान तो अनिवार्य होगा.
July 10 at 12:52am · like ·
2 people

July 10 at 12:54am · Like
o बुद्धिमान उल्लू बात हिन्दी के काव्य और काव्य पदार्थ की
थी जो अब भाषा के स्वरूप और विकास/सृजन तक पहुँची। विमर्श और डिबेट/शास्त्रार्थ
में अंतर होता है। शास्त्रार्थ में स्वयं को विजयी बनाना लक्ष्य होता है - युद्ध
की तरह। अपने शर संधान करते जाइये। दूसरों की बात का स्वीकार भी हमले को तेज करने
के लिये किया जाता है, सोच या परिस्थिति में सार्थक परिवर्तन के लिये
नहीं। जो प्रश्न आप ने उठाया उसकी प्रवृत्ति भी यही है। ह्यूमर को सढ़ुआइन मजाक से
जोड़ना और हर बात का प्रत्युत्तर देना भी वही है। मैंने समझा था कि यह वाद विवाद
नहीं, एक छटपटाहट है - घुटन से बाहर आने की। खैर... आप ने ध्यान नहीं दिया
कि मैंने लोक से जुड़ने और स्तर को दिनों दिन ऊँचा उठाने की दुधारी जिम्मेदारी की
बात की थी और हिन्दी के केस में तारतम्य टूटने और संतुलन खोने की बात की थी। एथनिक
आन्दोलनों का मुद्दा बहुत व्यापक है, उसे इतनी संकीर्ण दृष्टि से देखना ठीक नहीं। बात
बस इतनी है कि विकसित या आरोपित भाषा भी पूर्ववर्ती की शत्रु नहीं हो जाती बशर्ते
लोक से जुड़ी रहे। हिन्दी में लोकभाषाओं से जुड़ाव था और रहेगा। गड़बड़ वहाँ हुई कि
बौद्धिकता के आग्रहों में जटिल टाइप की कविताई ही होती रही। उस तरह की कविताई
आवश्यक है, संसार की हर वर्तमान समृद्ध भाषा में फ्री वर्स और जटिल भावबोधों वाली
कवितायें हैं क्यों कि वे नेतृत्त्व (भारत के केस में मध्य वर्ग) की कवितायें हैं।
रहेंगी ही। जब मैंने उर्दू कविता का एक उदाहरण दिया तो यही कहना चाहा कि एक पंजाबी
उर्दू को स्वीकार सकता है, उससे जुड़ भी सकता है(पंजाबी को सीने से लगाये रख
कर भी) क्यों कि उसमें उसकी समझ आने वाले ढंग से उसकी बात कही गयी है। दूसरी
भाषाओं के कवियों में बौद्धिकता भरी जटिल कवितायें हैं लेकिन वे ऐसा भी रचते रहे
जो सीधे जन समुदाय से जुड़ता रहा।मराठी में ग. दि. माडगूळकरांनी ने आधुनिक काल में 'गीत रामायण' रची जो आम और
विशिष्ट दोनों के कंठ और मन का हार हुई। निराला की 'वर दे' धार्मिक सांस्कृतिक कारणों से आम लोगों से
जुड़ी लेकिन तमाम विशेषताओं के बावजूद 'सरोज स्मृति' नहीं। यहीं वाचिक/गायन/फोक परम्परा सामने
आती है। सरोज स्मृति के शब्द/ विन्यास कुछेक स्थलों को छोड़ लोक के गायन लायक नहीं।
वे स्थल भी संस्कारित जन की ही जुबान पर चढ़ेंगे बशर्ते वह पढ़े या पढ़ पाये।
छ्न्द के विषय पर भी आप ने शर सन्धान ही किया। मुक्त छ्न्द होंगे ही
लेकिन वे आम जन कंठहार नहीं बन सकते। मात्र इसके लिये वे त्याज्य नहीं कि वे जटिल
भाव अभिव्यक्तियों को धारण करते हैं। मेरी बात बस इतनी थी कि जातीय छ्न्द की पहचान
के चक्कर में लोग सरलता से कटे और फिर आसान राह पकड़ लिये जो लगती राजमार्ग की तरह
थी लेकिन उसका कनेक्शन गाँव की गलियों, सड़कों से रहा ही नहीं। साहित्यकार को
दोनों को साधना था। इसमें कवि सुलभ फिसलन सी कोई बात नहीं, समझ की बात है। (जारी)
July 10 at 8:25am · like ·
2 people

o बुद्धिमान उल्लू अब आते हैं राजभाषा हिन्दी पर। कोई भी
भाषा चाहे जैसी हो, दूसरी भाषा की विरोधी नहीं होती। हमारी मंशा उसे
ऐसा या वैसा बनाती है। यहाँ इतना लम्बा डिबेट किस भाषा में हो रहा है? आप मानें या न मानें
सौ एक वर्षों में 'राजभाषा हिन्दी' स्थापित हो चुकी है और अब कोई भी समय के चक्र को
पीछे नहीं ले जा सकता। आप इसके रूप पर बहस कर सकते हैं, लोकभाषाओं से इसके
जुड़ाव को और पुख्ता कर सकते हैं लेकिन इससे अलग नहीं हो सकते और न यह लुप्त होने
वाली है। यह आज सम्वाद की भाषा है। भोजपुरी और मैथिल जब मिलते हैं तो इसी 'गढ़ी गई जुबान'
(जुबान ही कहा मैंने)
में बात करते हैं और इस राजभाषा के कई लोकल रूप हैं। भाषा तो विकसित होती रहती है।
शब्द तक लुप्त होते हैं और जुड़ते हैं। इतिहास नहीं वर्तमान की बात कीजिये। नई अवधी, ब्रज, मैथिल पीढ़ी की जुबान
में जाने कितने अंग्रेजी के शब्द घुसे पड़े हैं। शासन काम काज ने हिन्दी के सामने
भी अंग्रेजी को एक अति जबर प्रतिस्पर्धी की तरह रखा है। इसकी जटिलतायें आप तब और
बेहतर समझेंगे जब इस तंत्र की फंक्शनिंग के भीतर जायेंगे, उसका हिस्सा बनेंगे।
आज अगर इतने दिनों तक अंग्रेजीदा बने रहने के बाद प्राइवेट सेक्टर हिन्दी इंटरफेस
ला रहा है तो उसके पीछे बहुआयामी आहटें हैं। उसे समझने की जरूरत है यह समझने की भी
जरूरत है कि हिन्दी या लोकभाषा की कविताई आज लोक में कितनी बची है और कितनी
प्रासंगिक है। मनोरंजन के साधनों को भी देखना होगा। हम सूर, कबीर, तुलसी या भारतेन्दु
के ज़माने में नहीं रह रहे। इतिहास की गड़बड़ियों से आती धारा को मोड़ा जा सकता है, उनके उदाहरण दे अब
तक के विकास को खारिज नहीं किया जा सकता। इतने ठहराव का आज युग नहीं है। आप लोग
जहाँ हैं, वह एक बहुत ही प्रतिष्ठित संस्थान है जहाँ फंड और साधनों की कमी नहीं।
आवश्यक है कि युवा बैठ कर हिन्दी को लोकभाषाओं से संस्कृत करने के ठोस आयोजन करें
और एक वैकल्पिक सशक्त प्लेटफॉर्म सामने लायें। यह प्लेटफॉर्म नये आते और पुराने
जाते छात्रों के बीच प्रवाहमान रहे। नौकरी और रोटी के तनावों और उलझनों के बावजूद
विश्वविद्यालय के आँगन में एक परम्परा के रूप में जीवित रहे। फेसबुक प्लेटफॉर्म
ऐसे आयोजनों के सहायक मंच के रूप में तो प्रयुक्त हो सकता है लेकिन व्यावहारिक हल
के मामले में यह शून्य है और यह इसकी ही नहीं ब्लॉग, ट्वीटरादि सभी मंचों की सीमा है। सीमा से
मेरा यह अभिप्राय था।
July 10 at 8:25am · like ·
2 people

o महेश चन्द्र मिश्र मित्रों ! (मुख्यतया
अमरेन्द्र जी और दीपांकर जी) अब चर्चा में में शामिल रहना बहुत उपयोगी नही लग रहा
इस लिए लगभग अपनी बात पूरी करते हुए.....
'...समानो मन्त्रः समितिः मे समानी..' के जिस आधार पर चर्चा मे था.. लगता है वह
नही है...यहाँ से सोच के वे अंतर स्पष्ट हो रहे हैं जहाँ अपनी ही अपनी कहे जाने का
माहौल बनेगा |
अमरेन्द्र भाई ! आपके मुताबिक़ राष्ट्र की किसी एक संवाद-भाषा की कल्पना हिटलरशाही होगी तो अब क्या कहूँ आगे ?? हाँ इतना जरूर कहूँगा कि चंदबर दाई ने जो भाषा चुनी क्या वही उस देश-काल की जनभाषा थी ? क्या कीर्तिलतादि लिखे जाने के समय मैथिली नही थी ? क्या द्विजदेव , लछिराम भट्ट , जगन्नाथ दास रत्नाकर , द्विजेश जी और इस तरह कहें कि स्वयं तुलसी ब्रज भाषी थे ? या फिर ये सब किसी हिटलरी वृत्ति के समर्थक अथवा शिकार थे ?
दीपांकर जी को ड्राइंग रूम में बैठ कर लिखे गए हिन्दी जैसे किसी मानकीकृत व्याकरण से इत्तेफाक नहीं(वैसे ऐसा कोई व्याकरण हो तो मैं भी जानना चाहूँगा, कुछ किताबों के नाम के सिवा ) हाँ अगर वो पाणिनि की तरह लिखा गया हो तो बात और है..वैसे पाणिनि की कौन सी जीवनी पढ़ी है दीपांकर भाई ने...? हिन्दी का कोई नेटिव स्पीकर नही था....पाणिनि को संस्कृत का कौन सा नेटिव स्पीकर मिला था जानना चाहूंगा....तब जबकि संस्कृत के कविकुल गुरु कहलाने वाले कालिदास अपने नाटक में संवाद में औचित्य-विचार से 'प्राकृत' का प्रयोग करते हैं...और पाणिनि ने कहाँ घूमकर संस्कृत संभाषण सुना था जिससे उनका व्याकरण प्रशस्त हुआ ?
अमरेन्द्र जी जिन (?) भाषा शास्त्रियों के मुताबिक़ लहजे के भेद को भाषा का भेद न मानना आपको स्वीकार्य है वे हिन्दी और अवधी के विषय में क्या कहते हैं ?
अवधी का कौन सा मानक रूप है जिससे उसके अंतर्वर्ती भेदों के पार्थक्य या ऐक्य को निर्धारित किया जाय और वो कौन सा व्याकरण है जिससे हिन्दी>अवधी, हिन्दी>भोजपुरी आदि का सैद्धांतिक भेद समझा जाय....क्या संस्कृत के अलावा भी कोई स्वस्थ व्याकरण है हिन्दी का ?..बहरहाल..तर्कोप्रतिष्ठः...
गिरजेश राव जी के उपर्युक्त दो कथनों का मैं अनुमोदन करता हूँ...
अमरेन्द्र भाई ! आपके मुताबिक़ राष्ट्र की किसी एक संवाद-भाषा की कल्पना हिटलरशाही होगी तो अब क्या कहूँ आगे ?? हाँ इतना जरूर कहूँगा कि चंदबर दाई ने जो भाषा चुनी क्या वही उस देश-काल की जनभाषा थी ? क्या कीर्तिलतादि लिखे जाने के समय मैथिली नही थी ? क्या द्विजदेव , लछिराम भट्ट , जगन्नाथ दास रत्नाकर , द्विजेश जी और इस तरह कहें कि स्वयं तुलसी ब्रज भाषी थे ? या फिर ये सब किसी हिटलरी वृत्ति के समर्थक अथवा शिकार थे ?
दीपांकर जी को ड्राइंग रूम में बैठ कर लिखे गए हिन्दी जैसे किसी मानकीकृत व्याकरण से इत्तेफाक नहीं(वैसे ऐसा कोई व्याकरण हो तो मैं भी जानना चाहूँगा, कुछ किताबों के नाम के सिवा ) हाँ अगर वो पाणिनि की तरह लिखा गया हो तो बात और है..वैसे पाणिनि की कौन सी जीवनी पढ़ी है दीपांकर भाई ने...? हिन्दी का कोई नेटिव स्पीकर नही था....पाणिनि को संस्कृत का कौन सा नेटिव स्पीकर मिला था जानना चाहूंगा....तब जबकि संस्कृत के कविकुल गुरु कहलाने वाले कालिदास अपने नाटक में संवाद में औचित्य-विचार से 'प्राकृत' का प्रयोग करते हैं...और पाणिनि ने कहाँ घूमकर संस्कृत संभाषण सुना था जिससे उनका व्याकरण प्रशस्त हुआ ?
अमरेन्द्र जी जिन (?) भाषा शास्त्रियों के मुताबिक़ लहजे के भेद को भाषा का भेद न मानना आपको स्वीकार्य है वे हिन्दी और अवधी के विषय में क्या कहते हैं ?
अवधी का कौन सा मानक रूप है जिससे उसके अंतर्वर्ती भेदों के पार्थक्य या ऐक्य को निर्धारित किया जाय और वो कौन सा व्याकरण है जिससे हिन्दी>अवधी, हिन्दी>भोजपुरी आदि का सैद्धांतिक भेद समझा जाय....क्या संस्कृत के अलावा भी कोई स्वस्थ व्याकरण है हिन्दी का ?..बहरहाल..तर्कोप्रतिष्ठः...
गिरजेश राव जी के उपर्युक्त दो कथनों का मैं अनुमोदन करता हूँ...
July 10 at 12:02pm ·like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi Girijesh जी, यह शर-संधान/शास्त्रार्थ/जीत क्या है
प्रभु! हम तो नाम टैग कर-कर के बुलाबुलाकर बतिया रहे हैं, क्योंकि मेरा ही
स्वार्थ है, मेरा ज्ञान-वर्धन हो और मैं करेक्ट होऊं, लेकिन तर्क के साथ, बस यही मंशा रहे अब
तक। गीता जी प्रभृति व्यक्तियों को देये गये मेरे उत्तर को देखिये, कोई
शर-संधान/शास्त्रार्थ/जीत नहीं है, सिवाय यह कहने-सीखने की कामना के, आपको यदि शर-संधान
लगा तो क्षमा माँग ले रहा हूं, पर आपने जैसा मुझे दिया आपको वैसा ही देने का
प्रयास किया मैने। आपको जो मिला उसे पूरे विमर्श का मूल चरित्र कहने की भूल न करें
आर्यवर ;-)
अभी व्यस्त हूं, आपके प्रश्नों के उत्तर देने का यत्न जरूर करूंगा, संभव है कल शाम हो
जाये, व्यस्तता बढ़ गयी है।
July 10 at 3:07pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi Mahesh Mishra Maral जी, जो प्रश्न दीपांकर
जी से आपने किये हैं, उनका उत्तर संभव है वे ही दें, बाकी प्रश्नों का
उत्तर मैं दूंगा, संभव है कल शाम हो जाये, व्यस्तता बढ़ गयी है। सादर..!
July 10 at 3:09pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi Girijesh Rao जी, आपका कमेंट आकार में यद्यपि बड़ा है पर
बिना किसी विनम्रता के ढोंग के कहना चाहता हूं कि है बहुत ही सतही , जिसको आगे बता रहा
हूं। ऊपर से शर-संधान पर डायलागिंग भी, ‘देखने वाले कयामत की नजर रखते हैं।’
@आप ने ध्यान नहीं दिया कि मैंने लोक से जुड़ने और स्तर को दिनों दिन
ऊँचा उठाने की दुधारी जिम्मेदारी की बात की थी और हिन्दी के केस में तारतम्य टूटने
और संतुलन खोने की बात की थी।
>> जो सच न हो उसे कैसे जबरदस्ती किया जाये, यह साफ झूठ है कि हिन्दी के वट-वृक्ष के नीचे लोक भाषायें पनपें, ग्रामर अलग है, परंपरा अलग है, इन भाषाओं की हिन्दी से चाल अलग है, ऊपर कमेंट में यह सब अच्छे से स्पष्ट भी हो चुका है। मेरी बातों को अगर आप सत्य न मानें तो किताबों का ही अध्ययन कीजिये, मसलन जिनका जिक्र रवि जी ने किया है। ऊपर कह भी चुका हूं, पराधीन भारत के कई वर्ष और स्वाधीन भारत के ६० से अधिक वर्ष लिटमस टेस्ट की तरह हैं।
@ एथनिक आन्दोलनों का मुद्दा बहुत व्यापक है, उसे इतनी संकीर्ण दृष्टि से देखना ठीक नहीं।
>>भाषा का मुद्दा इससे बाहर रखा जाय! हैरतजदा हूं!
@कोई भी भाषा चाहे जैसी हो, दूसरी भाषा की विरोधी नहीं होती।
>>कितना समझाऊं प्रभु, भाषा नहीं चेतना की बात है, हिन्दी इन लोक भाषाओं को इनका हक दे, इन्हें अपनी “बोलियाँ” कहने की चौधराहट से बाज आये, राष्ट्रवादी तमाचे न मारती रहे, हम दिन्दी को कुछ नहीं करने जा रहे। इन लोकभाषाओं के क्षेत्र में आरंभिक शिक्षा मिलने का अधिकार मिले इन लोकभाषाओं में,,,,आदि, हमें खामखा को कूकुर नहीं काटे है, जो हिन्दी से बैर पाले रहें! इसे समझने की कोशिश करें, नेपाल ने इतनी कम आबादी के लोक भाषियों के होने के बाद भी प्राथमिक शिक्षा का अधिकार अवधी/भोजपुरी/मैथिली जैसी लोकभाषा को दिया है। तथापि आपको लगता है कि यह माँग गैरवाजिब है तो क्या कह सकता हूं!
@ प्राइवेट सेक्टर हिन्दी इंटरफेस ला रहा है तो उसके पीछे बहुआयामी आहटें हैं।
>>फिलहाल यह जो दिख रहा वह बाजार लूटने की मंशा है, उसकी कोई स्संस्कृतिक प्रतिबद्धता नहीं, उसी कंपनी के अंदर देखिये अंग्रेजियत का माहौल। मसलन, पैकेट पर हिन्दी के लिखे शब्द लूटने की प्रेरणा के बेसिक कांसेप्ट के तहत है, इसे सोच कोई छाती फुलाये तो क्या कहा जाए!!
.............जारी।
>> जो सच न हो उसे कैसे जबरदस्ती किया जाये, यह साफ झूठ है कि हिन्दी के वट-वृक्ष के नीचे लोक भाषायें पनपें, ग्रामर अलग है, परंपरा अलग है, इन भाषाओं की हिन्दी से चाल अलग है, ऊपर कमेंट में यह सब अच्छे से स्पष्ट भी हो चुका है। मेरी बातों को अगर आप सत्य न मानें तो किताबों का ही अध्ययन कीजिये, मसलन जिनका जिक्र रवि जी ने किया है। ऊपर कह भी चुका हूं, पराधीन भारत के कई वर्ष और स्वाधीन भारत के ६० से अधिक वर्ष लिटमस टेस्ट की तरह हैं।
@ एथनिक आन्दोलनों का मुद्दा बहुत व्यापक है, उसे इतनी संकीर्ण दृष्टि से देखना ठीक नहीं।
>>भाषा का मुद्दा इससे बाहर रखा जाय! हैरतजदा हूं!
@कोई भी भाषा चाहे जैसी हो, दूसरी भाषा की विरोधी नहीं होती।
>>कितना समझाऊं प्रभु, भाषा नहीं चेतना की बात है, हिन्दी इन लोक भाषाओं को इनका हक दे, इन्हें अपनी “बोलियाँ” कहने की चौधराहट से बाज आये, राष्ट्रवादी तमाचे न मारती रहे, हम दिन्दी को कुछ नहीं करने जा रहे। इन लोकभाषाओं के क्षेत्र में आरंभिक शिक्षा मिलने का अधिकार मिले इन लोकभाषाओं में,,,,आदि, हमें खामखा को कूकुर नहीं काटे है, जो हिन्दी से बैर पाले रहें! इसे समझने की कोशिश करें, नेपाल ने इतनी कम आबादी के लोक भाषियों के होने के बाद भी प्राथमिक शिक्षा का अधिकार अवधी/भोजपुरी/मैथिली जैसी लोकभाषा को दिया है। तथापि आपको लगता है कि यह माँग गैरवाजिब है तो क्या कह सकता हूं!
@ प्राइवेट सेक्टर हिन्दी इंटरफेस ला रहा है तो उसके पीछे बहुआयामी आहटें हैं।
>>फिलहाल यह जो दिख रहा वह बाजार लूटने की मंशा है, उसकी कोई स्संस्कृतिक प्रतिबद्धता नहीं, उसी कंपनी के अंदर देखिये अंग्रेजियत का माहौल। मसलन, पैकेट पर हिन्दी के लिखे शब्द लूटने की प्रेरणा के बेसिक कांसेप्ट के तहत है, इसे सोच कोई छाती फुलाये तो क्या कहा जाए!!
.............जारी।
July 11 at 7:05pm · Like ·
4 people

o Amrendra Nath Tripathi जारी बातों से
आगे........
.........और अंत आता हूं आपके सबसे बड़े झूठ व संदर्भहीन वाक्य पर.........
@जब मैंने उर्दू कविता का एक उदाहरण दिया तो यही कहना चाहा कि एक पंजाबी उर्दू को स्वीकार सकता है, उससे जुड़ भी सकता है(पंजाबी को सीने से लगाये रख कर भी) क्यों कि उसमें उसकी समझ आने वाले ढंग से उसकी बात कही गयी है।
>> आर्यवर, तब भी मैं गलत नहीं समझा था, और अब भी सही ही समझने जा रहा हूं। बहुत स्पष्ट है कि उर्दू ने पंजाबी को दबाया, पंजाबी ने सहज स्वीकार नहीं किया देव, इसपर आप बिना कुछ सोचे-विचारे ही लिख मारे हैं, कम से कम एक ‘क्लिक’ तो करने की जहमत उठाते। देखना चाहिये था आपको कि ओर्दू आने के बाद पंजाबी कितना अवनमित हुई। भारत का पंजाब उतना साहित्यिक उपेक्षा का शिकार नहीं रहा जितना पाक का पंजाब। पाक का क्षेत्रफल बड़ा है, चढ़ी हुई साहित्यिक भाषा भी थी पंजाबी, आज वहा क्या दशा?? इसे मेरे द्वारा दिये गये लिंकों से देखिये, इससे अपने आपकी अवधारणात्मक सफाई कीजिये कि “एक पंजाबी उर्दू को स्वीकार सकता है, उससे जुड़ भी सकता है(पंजाबी को सीने से लगाये रख कर भी)"::
१) http://www.apnaorg.com/articles/safir/psn.html
२) http://www.paklinks.com/gs/culture-literature-and-linguistics/437849-is-punjabi-a-dying-language-in-pakistan.html
३) http://mastmalang.wordpress.com/2006/12/24/the-punjabi-language/
४) http://www.gowanusbooks.com/punjabi.htm
५) http://www.pakpassion.net/ppforum/showthread.php?t=42262
उम्मीद करता हूं कि इन लिंकों को पढ़ने के बाद आप, हिन्दुस्तान की देशभाषाओं का दुख शरहद पार के दुख से जुदा नहीं पायेंगे और इस संदर्भ में गैरजिम्मेदाराना अप्रोच का त्याग करेंगे। जाते जाते यह यू-ट्यूब का लिंक भी दे रहा ताकि आप यह न कह दें सब कुछ लिखने पढ़्ने वालों की पाद है और साधारण जनता में कोई रोष/आपत्ति/आंदोलन नहीं। तनिक महसूस भी कीजियेगा, आप तो कवि एतदर्थ संवेदी-टाइप के होंगे;)
http://www.youtube.com/watch?v=72iAP0OjJw0
.............फिलहाल समाप्त।
July 11 at 7:28pm · Like ·
3 people

o Dipankar Mishra In
October 2002, the newly elected Punjabi assembly was convened for a swearing-in
ceremony. It was a matter of routine and all went as planned till Fazal
Hussain, a legislator-elect, said that he would take his oath in Punjabi, his
mother tongue. The speaker, a fellow Punjabi, did not think much of it and
proceeded with the ceremony using Urdu, the usual language of assembly
proceedings. But when Fazal Hussain insisted on taking the oath in Punjabi, the
speaker had him removed from the assembly through security guards.
July 11 at 8:00pm · like ·
2 people

July 11 at 8:04pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi Mahesh Mishra Maral भाई, हिटलरशाही का संदर्भ
राजभाषा और अनिवार्य रूप से लादी जा रही संवादभाषा सापेक्ष है। मध्यकाल तो विविध
भाषाओं के संवाद का काल था। मैं जब अपनी बात कर रहा हूं तो आधुनिक भारत का खास
संदर्भ है, जहाँ संवाद भाषा के तौर पर हिन्दी सुदूर दक्षिण जबरिया पहुंचाई जा रही
थी, विरोध
हो रहा था, संस्कृतिक पहचान दब रही थी, अब वह यहां भी हो रहा है, शरहद पार पाक में भी
विरोध हो रहा है, ऊपर गिरिजेश जी को दिया मेरा उत्तर देखें। इस संदर्भ में मध्यकालीन
कवियों का लाने का तुक ही नहीं है, दोनों की स्थितियां अलग हैं।
दीपांकर जी ने जो कहा है सही ही है, उसे कहने के लिये जीवनी नहीं किसी भी कृति के भाषिकी के अध्ययन की जरूरत होती है। पाणिनि जिनकी ऐतिहासिकता भी संदिग्ध हो, पर उनके अध्ययन का अनुशीलन ऐसे निषकर्ष देने की क्षमता रखता है। उस कइति के रचने वाले पाणिनि न हों तो भी उस व्याकरण कृति का भाषिकी-अनुशीलन इस निष्कर्ष तक पहुंचाता है।
@अमरेन्द्र जी जिन (?) भाषा शास्त्रियों के मुताबिक़ लहजे के भेद को भाषा का भेद न मानना आपको स्वीकार्य है वे हिन्दी और अवधी के विषय में क्या कहते हैं ? & अवधी का कौन सा मानक रूप है जिससे उसके अंतर्वर्ती भेदों के पार्थक्य या ऐक्य को निर्धारित किया जाय और वो कौन सा व्याकरण है जिससे हिन्दी>अवधी, हिन्दी>भोजपुरी आदि का सैद्धांतिक भेद समझा जाय....क्या संस्कृत के अलावा भी कोई स्वस्थ व्याकरण है हिन्दी का ?..बहरहाल..तर्कोप्रतिष्ठः...
>> लहजे को लेकर हिन्दी/अवधी आदि का आकलन “अवधी का विकास(बाबूराम सक्सेना)” देखें। अंतर्वर्ती भेद और मानक रूप की बात भी यहीं। सैद्धांतिक भेद के लिहाज से डाक्टर धर्मवीर की “हिन्दी की आत्मा” पुस्तक देखें। केलाग साहैब का ग्रामर ग्रंथ भी, जो हिन्दी के बनने के आरंभिक काल में लिखित है। संस्कृत के व्याकरण से अलग हिन्दी क्या सभी देशभाषाओं का ग्रामर है, इस हेतु किशोरी दास बाजपेयी की “हिन्दी शब्दानुशासन” देख डालिये। फिर स-संदर्भ विमर्श का मजा ही और होगा! सादर..!
July 11 at 8:06pm · Like ·
4 people

o Ashok Kumar Pandey भाई जब तक नाम लेकर
और उदाहरण सहित बात न की जाए...ऐसे सामान्यीकरण कहीं नहीं पहुंचाते/पहुँचते
July 11 at 10:14pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi Ashok Kumar Pandey जी, समझ न सका आपका
मंतव्य? स्पष्ट करें देव?? तभी तो कुछ कह सकूंगा!
July 11 at 10:18pm · Like
o Ashok Kumar Pandey भाई...बहस दूसरी तरफ
चली गयी है. मैं मूल पोस्ट पर ध्यानाकर्षित करना चाह रहा था.''हिन्दी में (अपवाद
को छोड़कर) कवि के पाठकों का दायरा बढ़ने के साथ उनका काव्य-पदार्थ घटने लगता है!
इस राजभाषा के साहित्य में कचड़े की भारी मात्रा त्रासद है!''....अब ये अपवाद कौन हैं? कौन से ऐसे कवि हैं
जिन्होंने पाठकों का दायरा बढ़ने के बाद 'कचरा सृजन' किया है?
July 11 at 10:21pm · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi हाँ भाई, यह बात अब फिर के
लिये....अब दूसरी तरफ मुड़ी बहस ही आच्छादक सी हो गयी है, इसे जारी भी रखा हूं
सायास..मामला देश भाषाओं को हिन्दी की धिया(बोली) मानने के खिलाफ है, यह मेरे लिये सब कुछ
छोड़ के बहसियाने का अवसर है..! सादर..!
July 11 at 10:27pm · Like
o Ashok Kumar Pandey ठीक है फिर...भाई
वैसे तो मेरा मानना है कि हिन्दी इन तथाकथित बोलियों की धिया है
July 11 at 10:29pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi @कौन से ऐसे कवि हैं जिन्होंने पाठकों का दायरा
बढ़ने के बाद 'कचरा सृजन' किया है?
>> संक्षेप में संकेत करके हट लूंगा, जरा भारतभूषण के
सर्टिफिटेक पाये लोगों पर निगाह डालें, कचरे का अंदाजा लग जायेगा,
...........और ऊपर
कमेंट में एक जगह तो एक कवि की कविता को विशेषीकृत करके अपनी बात कहा भी हूं...
July 11 at 10:30pm · Like
o Ashok Kumar Pandey उसमें भी सारे नहीं
हैं...खैर उस पर फिर कभी...भारतभूषण पाठक दायरा बढ़ने की गारंटी नहीं
July 11 at 10:32pm · Like
July 11 at 10:34pm · Like
>> मुझे तो इसमें भी आपत्ति है, ग्रामर अलग है खड़ी
बोली का और इन लोक भाषाओं का, भाषा परिवार तक के पृथक्कृत रूप को रखता हुआ। ऐसे
ही मोहक वकतव्य है जिनसे लोकभाषाओं को सैकड़ों वर्षों से “समझाया/बरगलाया” जाता रहा है। अब समय
आया है कि हिन्दी का बुद्धिजीवी ऐसे साधारणीकरणों से बाज आये। इस परिवारवादी
आत्मीयता की जरूरत नहीं, जिसमें किसी को जिठानी किसी को पतोहू, किसी को धिया, किसी को
देउरानी...आदि आदि बनाया जाय, और एक मुखिया भाषा के वट-वृक्ष नीचे सब पिसती
रहेंऔर वट-शाखा पर बैठे हिन्दी बुद्धिजीवी अवसरवादी/यथास्थितिवादी गुलछर्रे उड़ाते
रहें। ............सादर..!
July 11 at 10:55pm · Like ·
1 person

o Ashok Kumar Pandey आपकी आपत्ति सर माथे
पर...हालांकि हिन्दी का विद्यार्थी न होने के कारण और कुछ अपने आलस्य से मैंने
भाषा विज्ञान का विधिवत अध्ययन तो नहीं किया. लेकिन मेरा यह मानना है कि हिन्दी का
विकास इन बोलियों तथा तत्कालीन राजभाषाओं से एक जनभाषा के रूप में हुआ. वैसे अंतिम
पैराग्राफ में जो अतिरेकी आक्रामकता है उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी. भाषाएँ ऐसे
पिसती-पिसाती नहीं. उनका अपने समय-समाज और अर्थव्यवस्था से एक रिश्ता होता है. इसी
के चलते वे विकसित होती हैं और खत्म होती हैं. जिस भाषा का समय खत्म हो गया उसे
खत्म होना है. इस समाज के विकास के क्रम में तमाम चीजें बनती-बिगडती रहती हैं.
भाषा भी उनमें से एक है.
July 11 at 11:02pm · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi आक्रामकता सिर्फ
मनुवाद/साम्राज्यवाद/फासीवाद....आदि आदि के स्थूल विरोध के लिये पेटेंट तो है
नहीं!.....इसके तुक आते रहते हैं, आने भी चाहिये....यहाँ ऊपर जो बहस हुई है, फेसबुकिया-बकैती
नहीं है।इस बहस का चरित्र विशुद्ध एकेडमिक है , “लगता है” की तर्ज पर नहीं, हम तीन-चार देशभाषा
के पक्ष में बोलने वालों ने स-संदर्भ / स-तर्क बात की है। आक्रोश की भावुक पाद
नहीं छोड़ी है हमने। कृपया विगत के देशभाषा के पक्ष में बोलने वालों के कुछ नहीं तो
६० कमेंट देख लीजिये, आपके इन सवालों के उत्तर कब के आ चुके हैं कि “.....उनका अपने समय-समाज
और अर्थव्यवस्था से एक रिश्ता होता है. इसी के चलते वे विकसित होती हैं और खत्म
होती हैं. जिस भाषा का समय खत्म हो गया उसे खत्म होना है. इस समाज के विकास के
क्रम में तमाम चीजें बनती-बिगडती रहती हैं. भाषा भी उनमें से एक है”,कम से कम यहाँ की
जीवित देश भाषाओं के संदर्भ में। आप कहते हैं कि “भाषाएँ ऐसे पिसती-पिसाती नहीं ”
, हद है !
हिन्दी सौ सालों से पीसे हुई है सारी देशभाषाओं को, उर्दू सरहद पार यही काम की हुई है , आप को कुछ समझ ही
नहीं आ रहा पिसना-पिसाना , देखिये यह क्या ‘जन’ की माँग नहीं है:: http://www.youtube.com/watch?v=72iAP0OjJw0
raaम विलास अंतिम सीमा हैं हिन्दी बौद्धिकी की सोच के जिन्होंने अपनी ठस्सा बुद्धि का ही परिचय दिया है, भाषा के संदर्भ में, साथ ही घटिया पोलिटिकल राइटिंग का भी!
हिन्दी के व्यक्ति को सामान्य भाषा विज्ञान का भी सेंस नहीं होता है, और बोलता जैसे है जैसे दरोगा , और अभी हिन्दी राजभाषा के दंडे से दर्जन भर लोकभाषाओं को लखेद देता है।
अशोक जी या तो आप स-सन्दर्भ / स-तर्क , जुमलों से अलग विमर्श कीजिये, या हमारे “जय लोकभाषा / मादरी जुबान की आजादी की जय” मंडल में शामिल हो जाइये।
July 11 at 11:33pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi हम गुजरात हाईकोर्ट
के इस आदेश का अभिनंदन करते हैं जिसने कहा कि हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं है, यह कहने का अधिकार
संविधान-दत्त है। आप लोग भी देखें::
http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2010-01-25/india/28148512_1_national-language-official-language-hindi
ऐसे अवसर लोकभाषा उत्थानक-चेतना को बलवान बनायेंगे! अवश्यमेव!
ऐसे अवसर लोकभाषा उत्थानक-चेतना को बलवान बनायेंगे! अवश्यमेव!
July 12 at 1:07am · Like
o Dipankar Mishra अशोक जी कह रहे हैं
कि भाषाएँ पिसती पिसती नहीं हैं तो,
१- पंजाबी ,जो पाकिस्तान के 50 % लोगों कि mother
tongue है और
जिसकी एक लम्बी literary tradition है उसमे आज एक paper या magazine नहीं निकलती इसे
क्या कहेंगे ?(Source- http://www.apnaorg.com/research-papers-pdf/A-postcolonial-sociolinguistics-of-Punjabi-in-Pakistan.pdf )
२-ऊपर जैसा मैंने लिखा है ,२००२ में जब पाकिस्तान के पंजाब असेम्बली के एक सदस्य ने पंजाबी में शपथ लेनी चाही तो उसे सुरक्षा कर्मिओं द्वारा बाहर फिकवा दिया गया ,इसे क्या कहेंगे ?
३-स्पेनिश तानाशाह "जेनरल फ्रांको" ने "बास्क " लोगों कि भाषा "बास्क " को" language of dogs "कह कर उसका जो दमन किया उसे क्या कहेंगे ?
ये चंद उदहारण हैं ,क्योंकि ऐसे उदहारण हजारों में है .
खास आपके लिए "ग्राम्शी " का एक वक्तव्य उधृत कर रहा हूँ -
१-Language is transformed with the transformation of the whole of civilisation, through the acquisition of culture by new classes and through the hegemony exercised by one national language over others .
२-ऊपर जैसा मैंने लिखा है ,२००२ में जब पाकिस्तान के पंजाब असेम्बली के एक सदस्य ने पंजाबी में शपथ लेनी चाही तो उसे सुरक्षा कर्मिओं द्वारा बाहर फिकवा दिया गया ,इसे क्या कहेंगे ?
३-स्पेनिश तानाशाह "जेनरल फ्रांको" ने "बास्क " लोगों कि भाषा "बास्क " को" language of dogs "कह कर उसका जो दमन किया उसे क्या कहेंगे ?
ये चंद उदहारण हैं ,क्योंकि ऐसे उदहारण हजारों में है .
खास आपके लिए "ग्राम्शी " का एक वक्तव्य उधृत कर रहा हूँ -
१-Language is transformed with the transformation of the whole of civilisation, through the acquisition of culture by new classes and through the hegemony exercised by one national language over others .
July 12 at 1:55am · like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi Ashok Kumar Pandey जी, भाई मेरे उपर्युक्त
दो कमेंट्स के साथ दीपांकर जी का जस्ट ऊपर वाला कमेंट भी जोड़कर देखिये। फिर अपने
कह मारे गये वक्तव्य पर विचार कीजिये, उम्मीद है कि आपको हम लोगों द्वारा
देशभाषाओं को लेकर की जारी इस बहस की
गंभीरता/अंतर्वस्तु/स्पष्टता/माँग-मुमूर्षा...........आदि आदि चीजों का तहे-दिल से
इल्म होगा! सादर..!
July 12 at 2:03am · Like
ya filter karne ki jarrurat hai....
July 12 at 6:46am · Like
o बुद्धिमान उल्लू अलंकारिता और बीच बीच में अगियारी करते
हुये मैं भी अपना उत्तर दे सकता हूँ
लेकिन वैसा नहीं करूँगा।:) मैं यहाँ डिबेट नहीं कर रहा।
आप ने यह कैसे मान लिया कि देसभाषाओं या लोकभाषाओं का दर्द मैंने नहीं पढ़ा,
समझा होगा? अपने किसी पिछले उत्तर में आप ने तिब्बत का सन्दर्भ दिया है। बन्धु!
इस शृंखला के चक्कर में बहुत कुछ पढ़ा है मैंने, जिसमें भाषा का पक्ष भी है।
अंग्रेजी-देसभाषा या चीनी-तिब्बती युग्मों की तुलना में हिन्दी-लोकभाषा और
उर्दू-पंजाबी युग्म एक दूजे के लिये बहुत कम 'एलिएन' हैं। मैं अपने कथित झूठ और
सन्दर्भहीन वाक्य पर अभी भी कायम हूँ। सच के कई पहलू होते हैं और वे एक दूसरे
को झुठलाते नहीं। मेरे वाक्य को एक बार और पढ़िये, कम ऑन! लोकभाषाओं के दर्द से
जुड़ा हूँ तभी पहले कहा हूँ कि हिन्दी को लोकभाषाओं से संस्कृत करने की आवश्यकता
है। ऐतिहासिक ग़लतियों और भूलों से आती धारा को मोड़ा जा सकता है। उन पर स्यापा
करते हुये आँसू बहाने और आरोप प्रत्यारोप से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
पाकिस्तान की उर्दू हो चाहे भारत की हिन्दी, भले आरोपित रही हों और लोकभाषाओं
को नुकसान पहुँचाई हों लेकिन आज की सचाई हैं। इन्हें आप काट कर न तो फेंक सकते
हैं और न तंत्र से निकाल सकते हैं। ये यहीं की देन हैं, कहीं बाहर से नहीं आईं।
इन्हें लोकभाषाओं के इतना निकट लाया जा सकता है कि जनसामान्य इन्हें समझ सके और
राजभाषा से आतंकित न होता रहे। आप सर्वोत्तम स्थान पर हैं। उठाइये भारत सरकार
और हिन्दी प्रांतों की राजभाषा शब्दावली! एक एक शब्द के लोकभाषा विकल्प देते
हुये एक समान्तर कोष का वृहत नॉन प्रॉफिट, विद्यार्थी रचित अनौपचारिक कोष के
निर्माण का वृहत आयोजन कीजिये जो 'जे एन यू हिन्दी शब्दकोष' कहलाये। वह मंच एक
स्वस्थ और जीवंत परम्परा हो जो सरकारी नीतिनिर्माताओं को परिवर्तन हेतु मजबूर
कर दे, साथ ही प्राइमरी स्तर से लेकर डिग्री लेवल तक पठन पाठन का प्रारूप क्या
हो, यह बताये। अंग्रेजी भी ध्यान में रहे और बाकी भारतीय भाषायें भी। भारत में
जितनी लोकभाषायें हैं, उन पर भी ध्यान रहे। भारत केवल 'अवधी, ब्रज, मगही,
भोजपुरी, मैथिली, कौरवी, खड़ी...' आदि का क्षेत्र नहीं है। एक विकल्प है कि केवल
कथित 'हिन्दी क्षेत्र' पर केन्द्रित हुआ जाय। यहाँ से हिन्दी को हटा दिया जाय।
लोकभाषाओं में हाईस्कूल/इंटर तक शिक्षा दीक्षा हो और बाद में अंग्रेजी में।
प्रश्न यह है कि उसके परिणाम क्या होंगे और व्यावहारिक समस्यायें कितनी आयेंगी?
इतिहास की गहराइयों से बाहर आइये आचार्य और वर्तमान की व्यापक सतह पर दृष्टि
दौड़ाइये। इतिहास तो बहुत समझ लिये,मर्म और विगत कर्म भी, अब सतही होइये।
वर्तमान, दुहरा रहा हूँ - वर्तमान में यह काम बहुत कठिन है। समय लगेगा। रोटी और
जीवन को लेकर इतने दबाव पहले कभी नहीं रहे जितने आज हैं और आम जन को भाषा
परिवर्तन के बारे में उतनी फिक्र नहीं है जितनी अन्य समस्याओं की। भाषिक समस्या
और उससे जुड़े विरूपों को वह वर्ग समझ सकता है, परिमार्जन की दिशा दे सकता है
जिसे मैंने 'नेतृत्त्व' कहा। रही बात तर्कों की तो तर्कों से सब कुछ सिद्ध किया
जा सकता है और कुछ भी नहीं। ऐसा कोई तर्क नहीं जिसके उलट तर्क न हो। ऐसे में यह
एक अंतहीन बहस होगी। मैं अपनी नौकरी करता रहूँगा और आप 'एलियन हिन्दी' में पी
एच डी की थीसिस लिखते रहेंगे। साथ ही हमलोग अंग्रेजी संचालित तंत्र से येन केन
प्रकारेण अपना काम भी निकालते रहेंगे। बहस वहीं की वहीं रहेगी और लोकभाषायें
भी।... चलते चलते.... जरा इस लिंक को भी ध्यान से पढ़ियेगा
http://en.wikipedia.org/wiki/Esperanto । हो सकता है कोई अलग सी राह निकल आये
:)
आप ने यह कैसे मान लिया कि देसभाषाओं या लोकभाषाओं का दर्द मैंने नहीं पढ़ा,
समझा होगा? अपने किसी पिछले उत्तर में आप ने तिब्बत का सन्दर्भ दिया है। बन्धु!
इस शृंखला के चक्कर में बहुत कुछ पढ़ा है मैंने, जिसमें भाषा का पक्ष भी है।
अंग्रेजी-देसभाषा या चीनी-तिब्बती युग्मों की तुलना में हिन्दी-लोकभाषा और
उर्दू-पंजाबी युग्म एक दूजे के लिये बहुत कम 'एलिएन' हैं। मैं अपने कथित झूठ और
सन्दर्भहीन वाक्य पर अभी भी कायम हूँ। सच के कई पहलू होते हैं और वे एक दूसरे
को झुठलाते नहीं। मेरे वाक्य को एक बार और पढ़िये, कम ऑन! लोकभाषाओं के दर्द से
जुड़ा हूँ तभी पहले कहा हूँ कि हिन्दी को लोकभाषाओं से संस्कृत करने की आवश्यकता
है। ऐतिहासिक ग़लतियों और भूलों से आती धारा को मोड़ा जा सकता है। उन पर स्यापा
करते हुये आँसू बहाने और आरोप प्रत्यारोप से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
पाकिस्तान की उर्दू हो चाहे भारत की हिन्दी, भले आरोपित रही हों और लोकभाषाओं
को नुकसान पहुँचाई हों लेकिन आज की सचाई हैं। इन्हें आप काट कर न तो फेंक सकते
हैं और न तंत्र से निकाल सकते हैं। ये यहीं की देन हैं, कहीं बाहर से नहीं आईं।
इन्हें लोकभाषाओं के इतना निकट लाया जा सकता है कि जनसामान्य इन्हें समझ सके और
राजभाषा से आतंकित न होता रहे। आप सर्वोत्तम स्थान पर हैं। उठाइये भारत सरकार
और हिन्दी प्रांतों की राजभाषा शब्दावली! एक एक शब्द के लोकभाषा विकल्प देते
हुये एक समान्तर कोष का वृहत नॉन प्रॉफिट, विद्यार्थी रचित अनौपचारिक कोष के
निर्माण का वृहत आयोजन कीजिये जो 'जे एन यू हिन्दी शब्दकोष' कहलाये। वह मंच एक
स्वस्थ और जीवंत परम्परा हो जो सरकारी नीतिनिर्माताओं को परिवर्तन हेतु मजबूर
कर दे, साथ ही प्राइमरी स्तर से लेकर डिग्री लेवल तक पठन पाठन का प्रारूप क्या
हो, यह बताये। अंग्रेजी भी ध्यान में रहे और बाकी भारतीय भाषायें भी। भारत में
जितनी लोकभाषायें हैं, उन पर भी ध्यान रहे। भारत केवल 'अवधी, ब्रज, मगही,
भोजपुरी, मैथिली, कौरवी, खड़ी...' आदि का क्षेत्र नहीं है। एक विकल्प है कि केवल
कथित 'हिन्दी क्षेत्र' पर केन्द्रित हुआ जाय। यहाँ से हिन्दी को हटा दिया जाय।
लोकभाषाओं में हाईस्कूल/इंटर तक शिक्षा दीक्षा हो और बाद में अंग्रेजी में।
प्रश्न यह है कि उसके परिणाम क्या होंगे और व्यावहारिक समस्यायें कितनी आयेंगी?
इतिहास की गहराइयों से बाहर आइये आचार्य और वर्तमान की व्यापक सतह पर दृष्टि
दौड़ाइये। इतिहास तो बहुत समझ लिये,मर्म और विगत कर्म भी, अब सतही होइये।
वर्तमान, दुहरा रहा हूँ - वर्तमान में यह काम बहुत कठिन है। समय लगेगा। रोटी और
जीवन को लेकर इतने दबाव पहले कभी नहीं रहे जितने आज हैं और आम जन को भाषा
परिवर्तन के बारे में उतनी फिक्र नहीं है जितनी अन्य समस्याओं की। भाषिक समस्या
और उससे जुड़े विरूपों को वह वर्ग समझ सकता है, परिमार्जन की दिशा दे सकता है
जिसे मैंने 'नेतृत्त्व' कहा। रही बात तर्कों की तो तर्कों से सब कुछ सिद्ध किया
जा सकता है और कुछ भी नहीं। ऐसा कोई तर्क नहीं जिसके उलट तर्क न हो। ऐसे में यह
एक अंतहीन बहस होगी। मैं अपनी नौकरी करता रहूँगा और आप 'एलियन हिन्दी' में पी
एच डी की थीसिस लिखते रहेंगे। साथ ही हमलोग अंग्रेजी संचालित तंत्र से येन केन
प्रकारेण अपना काम भी निकालते रहेंगे। बहस वहीं की वहीं रहेगी और लोकभाषायें
भी।... चलते चलते.... जरा इस लिंक को भी ध्यान से पढ़ियेगा
http://en.wikipedia.org/wiki/Esperanto । हो सकता है कोई अलग सी राह निकल आये
:)
July 12 at 7:43am via · Like ·
1 person

o सुन्दर सृजक सार्थक बहस पर किसी को भी हतोत्साहित करना
या "साहित्य में कचड़े" का टैग लगाना उतना ही निरर्थक जितना कि यह मानना
कि किसी विद्वान/निपुण साहित्यकार की पहली रचना ही मानो उसकी उत्कृष्ट रचना
(काव्य-पदार्थ) रही हो उसके हो; आवर्जनाओं में भी चुनाव के विकल्प हो तो भाषा और
साहित्य का भला हो सकता है....क्या पता किसी अनाम रचनाकार की कोई रचना आपके भी मन
को छू जाए या समाज का/साहित्य का हित कर जाए | प्रोत्साहित करें कि राजभाषा में लेख्न और
पठन का दायरा बढ़े इससे भाषा को ही लाभ मिलेगा | यह बहस निश्चित रूप से सभी नव रचनाकारों
के लिए मार्गदर्शन का ही कार्य करेगा|
July 12 at 10:57am · Like ·
1 person

o Ashok Kumar Pandey भाइ अमरेन्द्र, मेरे वक्तव्य से ‘भाषाएँ ऐसे
पिसती-पिसाती नहीं’ की जगह ‘भाषाएँ पिसती-पिसाती नहीं’ करके आपने पूरी बात
का सन्दर्भ ही बदल दिया। वह ‘ऐसे’ आपके पिछले कमेन्ट के प्रतिउत्तर मे था, ठीक वैसे ही जैसे
आपके उसके पहले के कमेन्ट की प्रतिक्रिया में मेरे द्वारा उपयोग किया गया 'धिया' जिसे आप ले उड़े।
हालांकि वह lighter vain में था फिर भी उसके तार्कि आधार हैं जिस पर आगे
बात करूँगा.
वैसे विशुद्ध एकेडमिक होने का अपना गर्व होता है और जो भाषा और आक्रामकता यहाँ दिखाई दे रही है वह अकादमिक आत्मविश्वास से अधिक अकादमिक विद्वत्ता और सब कुछ जान लेने के भ्रम से अधिक उपजी है। दीपान्कर जिस भाषाई साम्राज्यवाद की बात करके अघाये हुए हैं वह हिन्दी मे कोई नई या अजानी चीज़ नहीं जिसके सन्धान पर यूरेकाई मुद्रा मे इतराया जाय।
दरअसल, जब मैं कह रहा था कि भाषायें ऐसे पिसती/पिसाती नहीं तो मेरा इशारा इसी तथ्य की ओर था कि भाषाओं की अपनी राजनीति होती है और अपने समय-समाज तथा आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से विशिष्ट अंतर्संबंध. भाषाएं न आसमान से टपकती हैं न किसी की सदिच्छा या साजिश से नष्ट होती हैं. बदलती सामाजार्थिक परिस्थितियों में वर्चस्वशाली वर्ग अपनी खुद की ज़रूरतों के मुताबिक भाषाओं का सरंक्षण करता है और विनाश भी. अगर हिन्दी के विकास को देखें तो वर्त्तमान स्वरूप में इसकी उम्र सौ-सवा सौ साल से अधिक नहीं. जाहिर है सौ-सवा सौ साल पहले भी आसमान से कोई तारा नहीं टूटा था. विकसित होते भारतीय पूंजीवाद और छोटे सामंती राजाओं की जगह स्थापित हो रही एकीकृत शासन व्यवस्था (जो इन नए उत्पादन संबंधो का ही परिणाम थी) को एक सामान भाषा की ज़रूरत थी. लोकभाषायें अपनी सीमाओं के कारण यह भूमिका निभाने में सक्षम नहीं थीं. अंग्रेजी के लिए अभी मूल तैयारियाँ पूरी नहीं थीं. ऐसे में एक जनभाषा के रूप में जिस हिन्दी का विकास हुआ उसने तब तक मौजूद तमाम भाषाओं से अपना रूप और अपनी अंतर्वस्तु ग्रहण की जिसमें लोकभाषायें भी प्रमुख रूप से शामिल थीं ही. मैंने 'धिया' प्रत्यय का इसी रूप में उपयोग किया था. इतने वर्षों बाद भी यह प्रभाव बड़ी आसानी से देखा जा सकता है. कम से कम उत्तर भारत में हिन्दी ने संपर्क भाषा की भूमिका निभाई ही. बैंसवाडे की भाषा बुंदेलखंड के लिए समझना मुश्किल है तो एक भोजपुरी के लिए अवधी भी इतनी आसान नहीं. लेकिन एक कामन भाषा के रूप में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग शब्दों की निधि से संपन्न (जी हाँ राजभाषा की मानकता के बावजूद हिन्दी अपनी टोन ही नहीं बल्कि अपनी अंतर्वस्तु में भी अलग-अलग क्षेत्रों में किंचित अलग-अलग रूप धारण करती है) पूरे उत्तर भारत की भाषा बनी.
लेकिन इसके साथ ही निश्चित रूप से इस प्रक्रिया में स्वतंत्रता पूर्व के दौर में साम्प्रदायिकता तथा दक्षिणपंथी राष्ट्रवादों के उभार ने हिन्दी को हिन्दू से जोडकर इसे एक धार्मिक रंग भी प्रदान किया. (प्रसंगवश भाषा की मज़बूरियाँ क्या होती हैं इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि आरम्भ में संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा सिद्ध करने में लगे गोलवलकर को भी अंत में हिन्दी पर समझौता करना पड़ा था).
July 12 at 7:05pm · Like ·
1 person

o Ashok Kumar Pandey आजादी के बाद
राजभाषा के रूप में मिली शासक वर्ग की मान्यता और दक्षिणपंथी ताक़तों द्वारा इसे
एक धार्मिक रूप दिए जाने के फलस्वरूप एक तरफ दूसरी भारतीय भाषाओं पर इसकी तानाशाही
का दौर शुरू हुआ तो दूसरी तरफ इससे जोड़ दी गयी एक खास तरह की पवित्रता ने (हालांकि
यह शुरू पहले ही हो चुका था) संस्कृतनिष्ठ सरकारी और साहित्यिक हिन्दी का एक ऐसा
नीरस संसार रचा जो आमभाषा नहीं हो सकती थी. छायावाद के दौर में चुन-चुन कर उर्दू
तथा तद्भव के शब्द निकाले जाने की जो प्रक्रिया शुरू हुई, और नागरी प्रचारिणी
सभा जैसी संस्थाओं ने जिसे जमकर बढ़ावा दिया उसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि
साहित्यिक हिन्दी आम जन द्वारा व्यवहार की जाने वाली हिन्दी से अलग कोई चीज़ बन
गयी. इसने साहित्य को निश्चित रूप से जनता से दूर किया ही.
लेकिन इस क्षेत्रीय साम्राज्यवादी भाषा के बरक्स विश्व साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासक वर्ग की भाषा के रूप में लगातार प्रतिष्ठित होती गयी. मजेदार बात यह कि जब अँगरेज़ विश्व साम्राज्यवाद के नायक थे तब आक्सफोर्ड-कैम्ब्रिज वाले एक्सेंट का जोर था तो अमेरिका के नायक के रूप में प्रतिष्ठित होते ही अमेरिकी एक्सेंट की मांग होने लगी! जैसे-जैसे रोजगार दिलाने में हिन्दी अक्षम हुई वैसे-वैसे समाज में अंग्रेजी पढ़ना और व्यवहार किया जाना बढ़ा (ठीक वैसे ही हिन्दी की मांग घटी जैसे कभी उर्दू की घटी थी). और यह प्रक्रिया जारी है. हालांकि बाजार अपनी ज़रूरत के हिसाब से हिन्दी भी सीख रहा है और उसका अनुकूलन भी अपने हिसाब से कर ही रहा है.
आज के दौर में वर्चस्वशाली वर्ग की भाषा जाहिर तौर पर अंग्रेजी है. देशी भाषाओं को खतरा हिन्दी से कहीं अधिक अंग्रेजी से है. वैसे भी जिन भाषाओं का समय समाप्त हो चुका है उनको लेकर भावुक प्रलाप चाहे जितना हो लेकिन सच यही है कि लोकभाषाये आज कोई बहुत महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकतीं. मजेदार बात यह कि उनके समर्थन में चल रही यह बहस भी हिन्दी में है.
हाँ, हिन्दी का विकास और उसकी अधिक प्रभावी भूमिका निश्चित रूप से ज़रूरी है. हिन्दी निश्चित रूप से अपनी भूमिका आज भी निभा सकती है. संस्कृतनिष्ठ और 'शुद्ध' हिन्दी का दौर वैसे भी लगभग बीत चुका है. आज जो हिन्दी लिखी-बोली जा रही है उसमें ऐसे निषेधों की कोई जगह नहीं. उसे स्थानीय भाषाओं, उर्दू, अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं से समृद्ध करके एक आमभाषा और संपर्क भाषा के रूप में विकसित किया ही जाना चाहिए. लेकिन इसे एक अखिल भारतीय भाषा के रूप में थोपे जाने की कोई भी मंशा उचित न होगी.
बाक़ी दुकानादारियाँ और मठ कहीं भी हो सकते हैं. 'जयकारा लगवा के ' अपने साथ शामिल करने की इच्छा मठ निर्माण की वृहत्तर आकांक्षा से ही जन्म लेती है. भोजपुरी ने अपने मठाधीश और मठ पा लिए हैं...जिनके लिए अनुदान भी हैं, पुरस्कार भी और मारीशस यात्राएं भी...बाक़ी के लिए शायद मैदान खाली है.
July 12 at 7:24pm · Like ·
2 people

Hindi agar Rajyabhasha ha to English kya. Jo pure Bharat me
kya pure sansar me prachalit hai. Jiske bina bharatvasi ka videsh jane kaam
nahi hota. Sansar ki baat chod, yahi Bharat me Chennai, Keral aur north east me
hum begane ho jate ha. Mera hindi ke prati koi dvesh bhav nai ha, kewal sacchai
kahi ha
July 12 at 7:43pm · like ·
4 people

o Amrendra Nath Tripathi गिरिजेश जी, अगियारी नहीं किया, वरन चलिये यहू सही।
अलंकारिक चीजें तो आप हिन्दी कवि-कथाकारों की हाँक-डाँक हैं, हम गवार को नहीं आती
यह! ;)
पंजाबी-उर्दू युगम की सचाई रख चुका हूं, और ढेर गाल नहीं बजाऊंगा, कोई फायदा भी नहीं दिख रहा।
हिन्दी की स्थायी-राजभाषावादी चौधराहट से अलग हटकर सोचिये तो बात ज्यादा समझ सकेंंगे आप।
वर्तमान देखिये, इतिहास नहीं। इसके अपने फायदे-नुकसान सब होते हैं, इसे सब अपनी अपनी सुविधानुसार उचारते हैं, यथास्थिति वाद का अवसरवाद वर्तमान का दुहाई देता है तो कभी अतीत से जागृत होने और पुनर्नवा होने की चेतना इतिहास की भी। हम जिन्दा-जावेद लोकभाषाओं के जीवन की बात कर रहे हैं, संस्कृत के शव-साधना की नहीं। आपकी यह वर्तमान की दुहाई मेरे संदर्भ में अर्थहीन है।
हाँ यह बात आपकी सही है कि चेतना/विचार और मूर्तरूपीकरण दोनों जरूरी, इसलिये जेएनयू के संदर्भ ले जो आप समझाइस ठोके हैं, उसके लिये आपको शुक्रिया दे ही देता हूं, पर हिन्दी का पाखंडी मानस अगर विचाए-स्फुलिंग से ही असहज हो जा रहा तो मूर्तीकरण से तो वह और भी स्यापा-रूदन पर आ जायेगा:)
अंतिम में जो आपने लिंक दिया है वह आपके ही तथ्य को मटियामेट कर रहा कि हिन्दी की तरह वह भी एक गढ़ी हुई भाषा का संदर्भ है जो वर्तमान में हजारों की संख्या तक ही सीमित रह गयी है। इसी “राह” में हिन्दी अपना भविष्य देखे, मेरी शुभकामनाएँ!
जहाँ तक बात भविष्य की है, वह आना शेष है, इसलिये नो प्रोफेसी, माई हिन्दी पुरफेसर :)
जय अवधी! जय भारत! मादरी जुबानों को लेकर हमारी संघर्ष की परंपरा ‘लोंग लिव’!!
July 12 at 8:54pm · Like ·
1 person

@..... लोकभाषायें अपनी सीमाओं के कारण यह भूमिका निभाने में सक्षम नहीं थीं.
>> हिन्दी के विकास के आरंभिक रूप पर पुनर्विचार कीजिये, उसमें “जन” कितना था, कौन सा था, पढ़-प्रजाति किसकी थी, अनपढ़ जिनकी भाषायें लोकभाषायें थीं, क्या उसके कोई लिखने आदि की परंपरा थी, किसी लोकभाषा का समूह क्या नेटवर्किंग के लिये छितराया था?? लोकभाषाओं के संदर्भ में अनवसर की बात कीजिये, तो थोड़ा मान भी लूं लेकिन सक्षम न होने की बात गवारा नहीं मेरे भाई! दरअसल हिन्दी, हिन्दी न समझ तत्कालीन उर्दू समझें तो ज्यादा ठीक(जो अमीर-उमरा की भाषा थी और जनभाषा नहीं रही, तथा अमीर-उमरा के हर जगह फैलने के साथ फैली हुई थी), नेटवर्किंग के तौर पर ज्यादा सचरी थी, यह उस समय खास क्लास के संपर्क की भाषा थी जो कई कारनों से बना था, फैला था, कोरट की भाषा थी....आदि आदि कारण थे। (गौरतलब यह भी है कि आज तक कोरट कभी जन-भाषा में नहीं चली, इसलिये वकील जनता का खुद का मन-माफिक भाष्यकार भी होता है।) यानी कि एक क्लास भर की संपर्क भाषा को जनता भर की संपर्क भाषा तब की स्थितियों में मानना अनुचित है। तब का जन कितना पढा लिखा था जो इन भाषाओं से ताल्लुक रखता, उसने जो देखा भौतिक रूप घटता हुआ, उसपर जनभाषा में लिखा, देख लीजिये जनभाषा में १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम का दर्ज होना, अवधी के पचासों लोक-गीत बता सकता हूं, जन भाषा मर नहीं रही थी मेरे भाई और न आज ही मरी है कि आप बोलें ,“वैसे भी जिन भाषाओं का समय समाप्त हो चुका है उनको लेकर भावुक प्रलाप चाहे जितना हो लेकिन सच यही है कि लोकभाषाये आज कोई बहुत महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकतीं." ! उम्मीद करता हूं कि इस संदर्भ में आप विचार करेंगे।
बाकी आप हिन्दी के संदर्भ में “हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान” वाली जो बात कह रहे हैं, हम उससे सहमत हैं, जिसने उर्दू-हिन्दी के साथ क्या किया वो आप जानें लेकिन उसने भाषिक पहचान को गजब लपेट लिया कि हिन्दी पट्टी का व्यक्ति लोकभाषाओं को बिसार बिसार के हिन्दी को मादरी जुबान मान बैठा, यही दशा शरहद पार उर्दू ने की यानी “उर्दू-मुस्लिम-पाकिस्तान” कुछ समय बाद जिस भाषा के मसले पर बंगला देश बँटा, और अब पंजाबी लोगों का दर्द जुबान निकालने लगा है। उनकी माँग पूरी हो आमीन! हिन्दी भी उर्दू से कम नहीं है!
बाकी मठ वगैरा पर ज्यादा नहीं जान रहा, मेरी रुचि भी नहीं है, हिन्दी का कुजात पढ़ैया हूं, आप हिन्दी दुनिया के समर्पित सिपाही हैं, आप ही जानें, मैं यह सब किसी मठेच्छा से नहीं कर/बोल रहा! हाँ, अगर मेरा बलिदान करोड़ों को मादरी जुबान दे सकेगा, तो इसे आपका यह भाई सौभाग्य समझेगा! सादर..!!
July 12 at 9:38pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi Santosh
Sharma जी, आपकी बात पर सहमत
हूं कि अगर संपर्कभाषा के तैर पर ही कोई भाषा हो तो वह अंग्रेजी ही क्यों न हो, वैसे भी अंग्रेजी
देश की संसद न्यायालयादि में जारी है...हिन्दी मातृभाषा भी नहीं, जिनकी हैं वे देखें
सम्हालें, जिसके पास मातृभाषा है वह अपनी अपनी मादरी जुबान के साथ अंग्रेजी
संपर्क जुबान के साथ आगे क्यों न बढ़े। वैसे भी इन तथाकथित हिन्दी लेखकों में से
बहुतों की नई पीढ़ी(संतति) अंग्रेजी में शिक्षा ले रही है,,,,बौद्धिकता छांटना एक अलग बात है!
July 12 at 9:55pm · Like ·
1 person

July 12 at 9:56pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi अशोक भाई, बलिदान सबद को “......” में काहे लिख बैठे, लगता है औकात से
जहती बोल दिया हूं, बस एक भाव-मात्र कहना चाहा हूं, कोई गर्व-गुरु-डम
नहीं मेरे भाई! सादर..!
July 12 at 10:02pm · Like
o Ashok Kumar Pandey :)
July 12 at 10:03pm · Like
o Ashok Kumar Pandey अगर कहूँ कि आपका
संघर्ष सफल हो...तो बेहतर होगा न...
July 12 at 10:03pm · Like
o Amrendra Nath Tripathi जरूर भाई ...झापड़
रसीद दीजिये मुला छिरोरा नहीं भाय!!,,,,बस वही ‘जन’ तक संप्रेषित हो सकूं...!
July 12 at 10:07pm · Like
o Ashok Kumar Pandey अरे
अमरेन्द्र.....तुम तक ढेर सारा स्नेह पहुंचे. तुम्हारी बहस और तुम्हारा तेवर हम
जैसे बुढा रहे कलम घसीटों को बहुत सहारा देता है...संतोष भी. खूब लड़ो और मस्त रहो.
July 12 at 10:08pm · Like ·
2 people

o Amrendra Nath Tripathi शुक्रिया भाई!
July 12 at 10:10pm · Like
o Chandrashekhar Chaubey @ 1954 में शिवदान सिंह चौहान ने "हिन्दी
साहित्य के अस्सी वर्ष " नामक पुस्तक लिखकर ये सारी स्थापनाएं रख दी थी लेकिन
उस समय हिन्दी के प्रसार की राजनीति और रामविलास शर्मा के प्रभाव के कारण
प्रगतिवादी आलोचकों ने शिवदान सिंह चौहान को नेहरू का करीबी और सत्ता का हितैषी
बताकर प्रगतिशील खेमे से बाहर करते हुए नेस्तनाबूत कर दिया |
July 13 at 12:54am · like ·
4 people

o Amrendra Nath Tripathi चंद्रशेखर जी, यही तो हुआ है, किसी ने भी कहने की
कोशिश की तो उसे बड़े कायदे से बैठा दिया गया है, राम विलास जी इस काम में हीरो थे। चौहान
जी को मारे, राहुल जी को भी। सबसे बड़ी बात है कि हिन्दी का विद्यार्थी इन सभी
चीजों से दूर रखा जाता है। सच्चाई से रू-ब-रू होना चाहिये!
July 13 at 3:01am · Like ·
5 people

फेसबुक के सभी सहयात्रियों, बहस के औपचारिक तौर पर समापन की घोषणा करता हूं, परन्तु जो जन अपने विचार अभी भी रखना चाहते हों, वे अवश्य रख सकते हैं। बस बात यह है कि आगामी दो सप्ताह सघन-व्यस्तता के चलते उत्तर दे सकने की स्थिति में नहीं रहूंगा। बाद में यथावसर उसपर प्रतिक्रिया अवश्य दूंगा।
बहस में काफी मेरा ज्ञान-वर्धन हुआ, जरूरी था कि ऐसे धारा से हटे “सोच” की परख कछ लोगों के साथ गुफ्तगू करके की जाती, इस प्रक्रिया में इस बहस को अपनी तरफ से सार्थक और सफल कहूंगा। कहीं मुझसे किसी को समस्या हुई हो तो क्षमा माँग रहा हूं, मेरा गँवार मन अभी संस्कारित होने की प्रक्रिया में है, कभी थोड़ा सा लंठिया-भर जाता है, पर सम्मान सभी का तहे-दिल से करता हूँ!!
बहस को “लाइक” के लायक समझने वाले सभी लोगों को धन्यवाद! बहस में अपने शब्द/वाक्य/टीप से बने रहने वाले सभी जनों का आभारी हूं! आदरणीयSaurabh Pandey ji , Mahesh Mishra Maral ji , Gita Pandit ji , Girijesh Rao ji, Dinesh Srivastava ji , .....................jari
July 13 at 3:27am · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi jari
se aage ......... Dipankar
Mishra ji ,Ravi
Kumar ji , Bhartendu Mishra ji
, Ashok Kumar Pandey ji
,Chandrashekhar
Chaubey ji , Karthik Vaidhinathan ji
...........जारी!
July 13 at 3:36am · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi Paritosh Mani ji , Priyankar Paliwal ji
,Mohan Shrotriya ji
, संतोष त्रिवेदी Santosh
Trivedi ji , Anurag
Arya ji ,Bodhi
Sattva ji, ...............जारी!
July 13 at 3:40am · Like ·
1 person

o Amrendra Nath Tripathi Santosh Chaturvedi ji, Swapnil Tiwari ji ,Sundar Srijak ji,
@santosh sharma ji, brajesh anay ji ......... आप सभी को मेरा धन्यवाद ! सादर...!!
July 13 at 3:45am · Like
o डॉ. कविता वाचक्नवी कृतिकार को वर्बल
डायरिया हो जाए तो रस परिपाक के लिए पर्याप्त अन्तराल ही कहाँ से आएगा ? और यदि परिपाक ही न
हुआ तो रचना के स्तर और काव्यपदार्थ की यही परिणति तय है ।
July 13 at 4:18am · like ·
4 people

o Amrendra Nath Tripathi जी सहमत हूँ!!
July 13 at 4:35am · Like
रुमाल सी.
मैं भी इसी करके चुपाया हुआ दीख रहा हूँ. .. किन्तु इस चर्चा के समापन की घोषणा
न कर paused रहने दें. ..
मैं भी इसी करके चुपाया हुआ दीख रहा हूँ. .. किन्तु इस चर्चा के समापन की घोषणा
न कर paused रहने दें. ..
July 13 at 8:48am via · Like ·
1 person

THANKS DIPANKAT, RAVI AND AMRENDRAJI
July 13 at 5:42pm · Like
o Saurabh Pandey भाई अमरेंद्रजी,
//वह ‘नाडु’ हो या महाराष्ट्र का ‘राष्ट्र’, इसने अपनी सांस्कृतिक माँग को रखा है, इससे भारतीय संघवाद
में अनास्था कहाँ से खोजी जाय भला। ऐसा क्यों माना जाय। //
जिस आसानी से आपने ’नाडु’ और महाराष्ट्र के ’राष्ट्र’ का मिलान कर अपनी रौ में निकल गये, बात उतनी आसान नहीं है. आप तमिल आंदोलन की कृपया थॊड़ी --ज्यादा नहीं-- जानकारी रखें. तब मालूम होगा कि भारत संघ में अनास्था किस स्तर को छू गयी थी. इन अर्थों में महाराष्ट्र का ’राष्ट्र’ उस खाँचे में नहीं आता.
वैसे मैं आपके विचारों और इस चर्चा के पूरे क्रम को तालबद्ध करने में ही लगा हूँ और समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं इस तरह के सवाल या प्रतिक्रिया पर कितना बोलूँ, कितना रोऊँ.
संयत होने का, विश्वास है, आप मौका मयस्सर होने देंगे
जिस आसानी से आपने ’नाडु’ और महाराष्ट्र के ’राष्ट्र’ का मिलान कर अपनी रौ में निकल गये, बात उतनी आसान नहीं है. आप तमिल आंदोलन की कृपया थॊड़ी --ज्यादा नहीं-- जानकारी रखें. तब मालूम होगा कि भारत संघ में अनास्था किस स्तर को छू गयी थी. इन अर्थों में महाराष्ट्र का ’राष्ट्र’ उस खाँचे में नहीं आता.
वैसे मैं आपके विचारों और इस चर्चा के पूरे क्रम को तालबद्ध करने में ही लगा हूँ और समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं इस तरह के सवाल या प्रतिक्रिया पर कितना बोलूँ, कितना रोऊँ.
संयत होने का, विश्वास है, आप मौका मयस्सर होने देंगे
July 13 at 7:00pm · Like ·
1 person

o Shyam Juneja इस शानदार भाषा-बोली
दंगल में, अपनी अक्षमता /अज्ञता/अल्पज्ञता के चलते हिस्सा नहीं ले पाया ...सबके
तो नहीं, कुछेक मित्रों के विचार ही पढ़ पाया.. और अब कुछ कहने की इच्छा हो रही
है...सो प्रिय अमरेन्द्र जी, झेलिये हमें भी ..लेकिन नाराज हुए बगैर ...
सबसे पहले तो आपको अपने नाम का अवधिकरण करना होगा क्योंकि यह तो
संस्कृत से निकला हिंदी नाम गिना जा रहा है ...तुलसी बाबा के "राम-चरित्र
मानस" के "राम-चरित मानस" की तर्ज पर .
अगर आपकी मादरी जुबान "अवधी" है, तो मेरी मादरी जुबान "पंजाबी" है और फादरी जुबान "कश्मीरी" है ...मुझे क्या करना चाहिए ? फिलहाल तक तो मैंने अपनी मादरी और फादरी जुबान से कुछ रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया है लेकिन हिंदी की एक भी रचना का इन जुबानों में कोई अनुवाद नहीं किया !
तीसरी बात मैं "सरकारी हिंदी" को कोई मानता नहीं देता ..मेरे लिए हिंदी का मतलब ठेठ हिन्दुस्तानी है जिसमें अखंड भारत की लगभग सभी बोलियों उप-बोलियों के लहरीले शब्द जीवन्तता के साथ उपस्थित हैं !
९० बोलियों को समेट कर क्या हिंदी ने कोई दुकान खोली थी जिसके भागीदारों ने बटवारा करना है ?
अगर आपकी मादरी जुबान "अवधी" है, तो मेरी मादरी जुबान "पंजाबी" है और फादरी जुबान "कश्मीरी" है ...मुझे क्या करना चाहिए ? फिलहाल तक तो मैंने अपनी मादरी और फादरी जुबान से कुछ रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया है लेकिन हिंदी की एक भी रचना का इन जुबानों में कोई अनुवाद नहीं किया !
तीसरी बात मैं "सरकारी हिंदी" को कोई मानता नहीं देता ..मेरे लिए हिंदी का मतलब ठेठ हिन्दुस्तानी है जिसमें अखंड भारत की लगभग सभी बोलियों उप-बोलियों के लहरीले शब्द जीवन्तता के साथ उपस्थित हैं !
९० बोलियों को समेट कर क्या हिंदी ने कोई दुकान खोली थी जिसके भागीदारों ने बटवारा करना है ?
July 14 at 11:37am · Like
o Shyam Juneja सबसे महत्वपूर्ण
बात.. क्या स्थानीय बोलियों का कूट-भाषा के रूप में प्रयोग, उनका सबसे अच्छा
इस्तेमाल नहीं है ? किसलिए उन्हें सर्व-सुलभ सर्व-व्यापक बनाना ?
July 14 at 11:47am · Like
THANLS sHYAMJI, DHANYAVAD. hINDI KA ANADAR HO RAHA HA, KITNE
RAJYO ME HUM BEBUS HO JATE HA AUR VAHAN PAR SIRAF BAAT-CHEET KARNE KA EK HI
SADHAN HOTA AUR VO HUM EK DOOSRE KO ISHARE SE SAMJHATE HA. JAB MAIN CHENNAI ME
THEE AUR LOCAL SHOPS SE SAMAN LELE JATITHEE TO BAAT CHEET KEWAL ISHARE SE HOTI
THE. AGAR KISI VASTU KA BHAV POOCHNA HA TO USKO UTHA AUR DIKHA KAR RATE POOCHTI
THEE AUR VO LADY YA AADMI APNE EK HATH ME PAISE AUR DOOSRE ME BAAT
(MEASUREMENT) UTHATA THA/THE, TO BHAV PATA CHALTA THA. mALL AUR bIF SHOPS KI
BAAT ALAG THE PRANTU VAHAN PAR BI TAMIL BOLTE THE - JAI SRI RAM
July 14 at 4:36pm · Like
o Shyam Juneja संतोष जी , यह सब, इस देश को सतत फूट
में उलझाए रखने की एक लम्बी साजिश का हिस्सा है, और इस साज़िश के रचयिता भी वही लोग हैं
जिन्होंने देश का अकूत धन देश के बाहर जमा कर रक्खा है ...वे नहीं चाहते कि कोई भी
ऐसा सूत्र बचे जो इस देश के लोगों को आपस में बाँध कर रख सके ...कितनी हैरानी की
बात है ...दशको से मुंबई के फिल्म जगत का वजूद हिंदी फिल्मो पर टिका हुआ है, लेकिन, जब इंटरव्यू देना हो
तो अंग्रेजी उगलते हैं. और यह हमारे नेता लोग! सोनिया गांधी ने विदेशी मूल का होने
पर भी हिंदी सीखी और वोट बटोरे लेकिन हमारे सिंह साहब सिब्बल साहब, (चिदम्बरम जैसों की
बात जाने दीजिए) ...इन लोगों को हिंदी अच्छे से आती है फिर भी कभी भूल कर भी हिंदी
में बात नहीं करते ...एक रूसी उपन्यासकार (शायद गोगोल ) ने ऐसी जात वालों के लिए
बढिया नाम चुना था--- "दोगले बलगमी कुत्ते"...
July 15 at 6:49am · Like
Shyamji, ye rajneeti ke baten meri samaj me kum aati hai.
Kyun ki rajneeeti me kehte kuch ha karte kuch hain aur ya bi pata nahi chalta,
ki ishara kis taraf ha.Ya to hum sudh rajneeti ki baat kare ya phir apne muddhe
par rahe aur us par vichar - vimarsh kare. Aapne jo kaha usse maim sehmat hoon.
Prantu subse badi baat ye hai, ki jo Hindi ko Bharat ki Rashtra Bhasha kehte
hain ha aur Bharat sarkar me Mantri aur officers bane hue, unke bacche videsh
me shiksha pate ha. unhe hindi ka moolya acchi tarah maloom ha ki ye hindi
bhasha siraf kuch rajyon tak swwmit ha, Agar bacchon ko English na padai to vo
har field me pichad jayenge. English ki jade bahut majboot hain, ise manna
padga. Agar kuch vyakti sochte ha ki hindi mahan ha , to usme mujhe kya itraj
ho sakta ha, ye unki apni vyaktigat bhavna aur vichar ha. hum unka anadar nhi
kar sakte. unka bi adhikar ha, apni baat kehne ka. Main kewal jo hindi ke naam
par yahan ki janta ko befkoof banana chate he, kewal unko batana chati hoon, ki
kewal hindi se kaam nahi chalega. Hume english ur hindi dono ke sath chalna
padega, jaha hindi ki avasakta ha , vahan hindi se kaam chalaye aur jahan
english ki jaroorat ho vahan par english me kaam kare. Isme Harj kya ha. Na
hindi mahan, na english mahan, kewal desh ke log mahan, jo samajte ha ki hindi
se kewal kaam nahi chalega. Maaf kijiyega, aap hindi ke bal par kisi bank,
multinational coy, embassy etc etc me kaam nahi pa sakte. Ye hi sach ha - Jai
SriRamji
July 15 at 11:20am · Like
o Shyam Juneja मैं आपकी बात से
१००% सहमत हूँ और दिल से त्रिभाषा फार्मूले का समर्थक हूँ ...अपनी प्रांतीय भाषा, राष्ट्रभाषा और
अंतर-राष्ट्रीय भाषा तीनो का सम्यक ज्ञान विद्यार्थी को मिलना ही चाहिए और भाषा के
अनुरूप विषयों का भी चयन होना चाहिए ..यह नहीं कि एक के सिर पर दूसरी को बिठा दो !
July 15 at 12:04pm · Like
SHYAMJI JO BAAT AAP NE SAMJI AUR USKA ADAR KIYA USKE LIYE
ABHARI HOON. KYA YE CHOTI SI BAAT HAMARI SARKAR AUR BHAI BEHAN JO FACEBOOK PAR
APNE APNE VICHAR RAKHTE ISSE SEHMAT NAHI HO SAKTE. YE EK SATYA HA AUR IS
SACCHAI KO MANNE SE VYAKTI INKAR NAHI KAR SAKTA. MAIN SAMAJTI HOON KI HUMKO
APAS ME IS VISHAY PAR EKMAT HOKAR SARKAR SE MAAN KARNI CHIYE KI KOI AISA
FORMULA BANAYE JISSE DESH KI GARIMA VIDESH AUR DESH ME BANI RAHE AUR HAMARE
DESH KE VASHI LABHANVANT HO, AISI MERI ICCHA HA DHANYAVAD - JAI SRI RAM
July 15 at 12:23pm · Like ·
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o Shyam Juneja चलिए संतोष ...आप और
मैं मिलकर ११ तो हुए ...
नदी ,
मैं जानता हूँ
बूँद बूँद पहाड सा दर्द
जब रिसता है
तुम लेती हो जन्म !
July 17 at 6:18pm · Like
Aaj hum Boond kal sagar bi Ho jayen ge, Aaj hum Doob hain,
Kal parvat bi jayeen ge, Jab ek se ek milen ge to ek shakti ban jayegi aur vo
shakti karege hum sab ka Nettrav - theek hai na
July 18 at 11:10am · Like ·
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o Ashish Mishra ऐसी गंभीर चर्चा
किसी कवि गोष्ठी या कॉफी हाउस में कतई संभव नहीं है...... सभी को धन्यवाद.. खासकर फेसबुक
को..
August 14 at 12:47am · like ·
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o Amrendra Nath Tripathi shukriya
ashish bhai !
ये तो मालगाडी से भी लम्बी है
जवाब देंहटाएंये तो मालगाडी से भी लम्बी है
जवाब देंहटाएंबहुत लम्बी थी यात्रा थी भाई!
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