मंगलवार, 15 मई 2012

लड़ाई जरूरी है लेकिन सरोकार व्यापक रखकर!

फेसबुक के जरिये मैं भारतीय ज्ञानपीठ और  गौरव सोलंकी के बीच नधे हालिया विवाद से मुसलसल रूबरू होता रहा, जहां-तहां मैंने अपनी सद्य टीप भी की, लेकिन इसी बहाने मुझे थोड़ा विस्तार से कुछ कहने की जरूरत महसूस हुई. बहुत लोग जो अब तक यह प्रकरण न जानते हों वे गौरव द्वारा भारतीय ज्ञानपीठ को लिखा तहलकाई-पत्र - ज्ञानपीठ अपमान - देखकर प्रसंग से वाकिफ हो सकते हैं. इसके बाद आप इस प्रसंग में जन-समर्थन की गुहार को अभिप्रेत हिमांशु भाई का 'जनादेश' पर छपा आलेख - अहसान की तरह नहीं हो सम्मान - भी देख सकते हैं. 

इस घटना पर मुख्यरूप से प्रतिक्रया की दो शक्लें दिख रही हैं. एक - गौरव शहीद है, गौरव 'विद्रोह' का दूसरा नाम है, जय हो!(गौरव-समर्थक) और दुसरे वे हैं जो यथास्थितिवादी मानसिकता के हैं, चुप हैं. मुझे ये दोनों शक्लें अनुपयोगी दिखती हैं. पहली शक्ल भाववादी है और दूसरी पलायनवादी है ही. एक की सीमा तात्कालिक होकर रह जाना है तो दूसरी की सीमा है टालू-प्रवृत्ति जो कहीं परिवर्तन-भय से भीति-ग्रस्त है तो कहीं अवसरवाद-ग्रस्त. समाज के अधिसंख्य इसी दूसरे खेमे के हैं जो समाज के कुछ लोगों और संस्थाओं की दादागिरी का विरोध नहीं करते भले ही उसके खौफ में अपनी आत्मा को मारते-मिरोरते जाते हों. क़तील शिफाई का शेर है: 
मैंने क़तील जैसा  मुनाफ़िक   नहीं देखा, 
जो जुल्म तो सहता है बगावत नहीं करता! 
हमें फिलहाल प्रतिक्रया की इन दोनों सूरतों से बचना चाहिए. 

मैं व्यक्तिगत तौर पर इन दोनों प्रतिक्रिया-वर्ग से अलग हूँ, यद्यपि सवालों और आपत्तियों के साथ मैं गौरव के साथ ही हूँ, फिर भी प्रश्नाकुल हूँ. गौरव के साथ इसलिए भी हूँ कि हिन्दी का विद्यार्थी होने और दिल्ली में कई साल से निकट से परिवेश देखने के कारण हिन्दी अकादमिकी और इन संस्थाओं के स्वेच्छाचारी और बेहूदे रवैयों के बारे में मैं किसी गफलत में नहीं हूँ. गौरव के सन्दर्भ में यही कहूंगा कि 'दुरुस्त आयद' हाँ 'देर आयद'! प्रश्नाकुल इसलिए हूँ कि अभी मैं देखना चाहूँगा कि भारतीय ज्ञानपीठ का क्या पक्ष आता है. गौरव के समर्थकों में कई हैं जो गौरव को करीब से जानते हैं इसलिए उनके लिए गौरव पक्ष पर विश्वास करने की स्थिति सहज है. मैं गौरव को कम ही पढ़ा-जाना हूँ. मैं तर्काधारित और प्रश्न-शमित होकर किसी भी पक्ष को लेना ज्यादा समीचीन समझता हूँ. इस दृष्टि से मुझे गौरव की तरफ से ही रखी बातें पता हैं, दूसरा पक्ष अभी कुछ सामने नहीं  आ  रहा है. यह भी दूसरे पक्ष की गलती ही कही जायेगी. सारी तस्वीर स्पष्ट हो जाती तो कई अन्य भी पक्ष लेने में आसानी पाते. लोगों को ज्ञानपीठ से पक्ष मागना भी चाहिए. 

जो बात मैं सर्वाधिक जरूरी समझता हूँ वह यह कि कोई भी लड़ाई वैयक्तिक बन कर न रह जाय, इसलिए जरूरी है कि हमारा सरोकार व्यापक हो. इस व्यापक सरोकार की उम्मीद संवेदनशीलता का दावा करने वाले लेखक से ज्यादा की जाती है, यह बात अलग है कि लेखकों ने इस दृष्टि से अपनी भूमिका संवेदनशीलता के यथार्थ से अधिक अवसर के यथार्थ में देखी जिसे उस समय बखूबी जाना जा सकता है जब कहीं से किसी लेखक की अनबन होती है और वह रहस्य की पर्तें खोलने लगता है. मसलन इस सन्दर्भ की बात करें तो ज्ञानपीठ के चाल-चरित्र को लेकर गौरव पूर्णतया अज्ञ नहीं रहे होंगे जब उन्हें पुरस्कृत किया गया होगा, जब उनकी पहली किताब आयी होगी. उनका असंतोष उसी दिन फूटा जब संस्था के जुल्मी चरित्र की इंतिहा उनके ऊपर आ गिरी. यह होता है. एक स्तर पर आदमी अपने साथ बुरा न होने की सूरत में सब एडजेस्ट किये रहता है, यही गलत है. वहीं पर आज ज्ञानपीठ में कुणाल जैसे युवा हैं जिन्हें संस्था के गलत रवैये कभी नहीं अखरते और वे संस्था के साथ ट्यूनिंग किये मजा मारते रहते हैं. गौरव को देर ही सही पर संस्था का रवैया अखरा और खुले रूप से बागी बने, यह सराहनीय है! 

गौरव और उनके समर्थकों को चाहिए कि धैर्य के साथ इस लड़ाई को किसी तात्कालिक तक सीमित न करें. यह एक बृहत्तर लड़ाई बने जिसके लिए दूसरे स्तर की तैयारी चाहिए. भावुक होकर 'तुम्हे सलाम' तक ही सीमित न रहे यह लड़ाई. चाहिए यह कि गौरव का यह वैयक्तिक सच सामूहिक अनुभूति का हिस्सा बने, जैसा कि लेखन के साथ होता है. व्यापक सरोकार दिखे जिससे यह न लगे कि यह सब वैयक्तिक असंतोष का सनसनीखेज खुलासा भर है. युवा अपनी प्रतिबद्धता दिखाएँ. संस्था से सवाल मांगे जांय. मैं व्यक्तिगत तौर पर चाहूंगा कि कम से कम हस्ताक्षर इकट्ठे किये जांय ताकि संस्था के इस रवैये के खिलाफ जनमत बने. संस्था माफी मांगे और आगे से जेनुइन रवैये रखे जांय. इसे व्यापक लड़ाई से जोड़ा जाय जो वर्तमान में जारी पुरस्कार और प्रकाशन की घटिया नीति को चोट पहुंचाए और इस हिन्दी-दुनिया की सड़ांध कम हो. फिलहाल तो बड़ा ही निराशाजनक परिवेश है. अगर यह गौरव-प्रसंग ऐसा कुछ कर सके तो इससे अधिक इस लेखक का सम्मान क्या होगा! जिसे कोई संस्था नहीं जनता देगी. ऐसी किसी परिवर्तनकामी योजना के साथ हम इस प्रसंग को बढ़ा सकें और अभियान का रूप दे सकें तो हम सबको शुभकामना ही नहीं इसके लिए सक्रिय सहयोग के स्तर पर भी आना चाहिए. मैं इस स्थिति में यथासंभव सहयोग के लिए सदैव तैयार हूँ. सबसे बड़ी बात यह संकल्प मन में हो कि जहां जो गलत हो उसका विरोध हम उसी वक्त करें, तब तक का इंतिजार न करें जब तक वह 'अपनी पीर'  बनें! 

मोहल्ला-लाइव वह जगह है कि जहां से मैं गौरव सोलंकी, विनीत आदि के लेखन से परिचित हुआ. ये लोग वहाँ काफी छपे. यह देख कर अजीब लगता है कि भारतीय ज्ञानपीठ और गौरव के बीच के विवाद पर मोहल्ला-लाइव को सांप सूंघे है और वह पूरे विवाद पर 'एक चुप हजार चुप' है. यूं तो वह फिजूल के विवादों पर भी ढेरों पोस्ट-दर-पोस्ट ढकेलता रहता है पर अपने ही यहाँ से छपे लेखकों के खिलाफ किसी गंभीर संस्था द्वारा किये अन्याय की खोजबीन और उसकी तक़रीर की जरूरत भी नहीं महसूस करता. बात सिर्फ गौरव की नहीं है, इसी बहाने संस्था के बेहूदे रवैये पर सवाल-जबाबी होनी चाहिए. 'व्यक्ति' से असहमत हों तो भी इस मुद्दे पर 'संस्था' के इस रवैये के खिलाफ बोलने का दायित्व बनता है. लोगों को यह भी देखना चाहिए कि मोहल्ला-लाइव (या अन्य हिन्दी-पोर्टल) जो अन्याय के खिलाफ बात रखने का दावा करते हैं, जहां लोग अपनी बात लिखते-छापते हैं, वे अन्याय के मुद्दों को लेकर इतने 'सेलेक्टिव' और 'सधी चुप्पी' के शिकार होते हैं! ये अपनी भूमिकाओं को लेकर उतने नीति-परक नहीं होते जितने कि राजनीति-परक! उतने मूल्य-निष्ठ नहीं होते जितने कि अवसर-निष्ठ!
......
अपडेट : मित्रों, ज्ञानपीठ-गौरव मसले पर रखे गए कुछ सवाल/संदेह/जिज्ञासाओं के गौरव द्वारा दिए गए जवाब इस पोस्ट में देखे जा सकते हैं, देखे जाने चाहिए. यह पोस्ट 'जनपक्ष' पोर्टल पर 'पर्सनल इज पोलिटिकल कामरेड' शीर्षक से मौजूद है.

22 टिप्‍पणियां:

  1. तब तक का इंतिजार न करें जब तक वह 'अपनी पीर' बनें!sahmat.. ham bhi saath hain..

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  2. तुमसे (Gaurav) तुम्हारे लेखन से तमाम तरह की असहमतियों के बाद भी इस घटना/प्रकरण पर तुम्हारे साथ हूँ. ये कोई शुक्रिया की बात नहीं है इसलिए कि ये सही है. बार बार "सब चुप हैं" ऐसा पढ़ते-पढ़ते मन भन्ना गया था. ऐसे में मैं नहीं रह सकता प्रतिरोध दर्ज किये बिना.

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    1. बिलकुल. जरूरी है कि हम व्यक्तिगत सीमाओं/रुचियों से ऊपर उठ कर जिस चीज को बुरा मान रहे हैं, उसके खिलाफ एकजुट रहे! प्रतिरोध की आवाज बनें.

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  3. "एक स्तर पर आदमी अपने साथ बुरा न होने की सूरत में सब एडजेस्ट किये रहता है, यही गलत है." --- आपसे पूर्ण सहमति है. आपने बहुत बड़ी बात कह दी जिसके इस सन्दर्भ के अलावा कहीं बहुत व्यापक अर्थ हैं. दरअसल यह हम भारतीयों की सदियों पुरानी मानसिकता है जो हमारे अन्दर कूट कूट कर भरी हुई हैं, इतनी आसानी से जाने वाली नहीं है. कोई कितना भी अन्यायी क्यों न हो, हम बचते हैं उसकी आलोचना करने से अगर उससे हमारे हित सधते हैं. आपकी तरह से गौरव से मुझे भी पूरी सहानुभूति है पर उनकी ये एक दिन अचानक बागी बन जाने वाली प्रवृत्ति खलती है. हमारे यहाँ ऐसे बागियों की बड़ी लम्बी परंपरा रही है....९० के दशक में बाकी पूरी जिंदगी कांग्रेस के टुकड़ों पर ऐश करने वाले टी एन शेषन साहब ऐसे ही एक दिन अचानक बागी बन गए थे. ऐसे ही अभी जनरल वी के सिंह साहब भी रिटायर होने के करीब आते-आते शहीद होने की कोशिश में लगे हैं. और तो और अभी कुछ सालों पहले तक हिंदी साहित्य के राजनीतिक माहौल में पूरी तरह रमे रहने वाले, सांप्रदायिक उन्मादी योगी आदित्य नाथ से पुरस्कार पाने वाले उदय प्रकाश ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार पाते ही अपने को "हिंदी साहित्य में अनफिट", "भाषा का आदिवासी" और न जाने क्या क्या घोषित कर दिया..!!

    इसके पीछे छिपी हुए शातिराना मनोवृत्ति को समझने की कोशिश की जानी चाहिए. दरअसल यहाँ अगर आपकी शब्दावली इस्तेमाल करूँ तो "व्यापक सरोकारों" वाली बात ही नहीं है. सारा मामला पूर्व नियोजित और कैलकुलेटेड तरीके से बागी होने का है....ये सारे तथाकथित बागी दो ही परिस्थियों में बागी होते हैं पहला जब अपना काम सध गया और अब उस संस्था या परिवेश या माहौल की कोई जरुरत नहीं रह गयी है, तो सुदूर आगे किसी अन्य लक्ष्य को देखते हुए क्रांति का बिगुल फूंक देते हैं और दूसरी परिस्थिति वह होती है जब इन लोगों को लगता है कि अपना काम/लक्ष्य साधने की कोई सम्भावना ही नहीं है. अब गौरव के साथ क्या मामला है यह तो वही जाने पर हमें प्रसन्न होना चाहिए कि "बागियों" की जमात में एक और शामिल हो गया...मुबारक हो...

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    1. महेंद्र जी, आपने सही ही समस्या को लक्षित किया है. इसी सन्दर्भ में मैंने 'नाखून कटाकर शहीद होने' की बात कही थी. इसीलिये जो न्यूट्रल होते हैं वे बहुधा ऐसे बागियों का साथ देने की बजाय दूर से नमस्कार कर लेते हैं. अब चूंकि मैं इस हिन्दी-परिवेश se हूँ और सतत देख रहा हूँ कि यह सवाल हो रहे हैं कि लोग 'चुप' हैं. जिसका तुक भी है. atah इन प्रश्नों साथ गौरव के साथ खड़ा होना सही लगा. दूसरा कारण यह भी कि हिन्दी में संस्थाओं व अकादमियों की अमानवीय स्वेच्छाचारिता (आटोनामी) पर निशानदेही होती रहे, अपना आग्रह यही कि इस लड़ाई के सरोकार व्यापक हों. उदय-शेषन आदि की बात ठीक कही आपने, गौरव को भी देख लिया जाय, इनकी लम्बी पारी पड़ी है, दिलचस्प होगा देखना कि समझौतों के सामने कहाँ तक और कितने बागी रहते हैं ये. भविष्य की बात भविष्य पर छोड़, फिलहाल वर्तमान में अपनी भूमिका देखना वर्तमान की मांग है!

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  4. अमरेंद्र भाई आपके लेख की मूल भावना से सौ प्रतिशत सहमत हूं. साथ ही बताना भी चाहता हूं कि उस लेख मे बार बार मैने भी इसी बात को उठाया है कि ये लड़ाई सिर्फ एक व्यक्तिगत लड़ाई न मानी/बनाई जाए. अगर ऐसा हुआ तब इसमें से सृजन और सुधार की संभावनाएं नहीं निकल सकती. मैने भी मुद्दे को इसी तरह रखा है कि गौरव के बहाने से इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती देने और बदलने की ज़रूरत है.सिर्फ गौरव की लड़ाई होने पर तो ये बहुत छोटी हो जाएगी. हमने लिखा भी इस रोग का इलाज करने की ज़रूरत है जिसमें प्रकाशक किताब या पुरस्कार को अहसान की तरह छापते-करते हैं.

    चूंकि ये घटना गौरव से जुड़ी थी इसलिए मुझे गौरव की बात करके हुए इसे उठाना पड़ा लेकिन आप भी जानते हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हिन्दी-उर्दू साहित्यिक संस्थाओं की बाकी अन्यायपूर्ण घटनाएं मुझे नहीं दिखतीं या मै नहीं लिखता.ज्ञानपीठ से ही जुड़े छिनाल प्रकरण पर मेरा लिखा आलेख आपको नेट पर मिल जाएगा.बिल्कुल यही गौरव के बारे में भी कह सकता हूं. आपको याद होगा कि तहलका के लिए गौरव ने एक स्टोरी साहित्य के सामंत और बल्ब बड़ा या सूरज की थी इसके अलावा साहित्य विशेषांक में भी मठाधीशों के खिलाफ आवाज़ उठाई थी. सब कुछ नेट पर मिल जाएगा. इसलिए ऐसा बिल्कुल नहीं है कि गौरव को अन्याय की याद तभी आई जब उनके अपने साथ ये हुआ. लेकिन इस पूरे मुद्दे को ध्यान से देखिए क्या गौरव के पास पुरस्कार वापस करने के अलावा कोई विकल्प था ?

    तीसरी बात यह है कि अगर गौरव को मैने विद्रोह का दूसरा नाम कहा तो ये अपने अनुभव के आधार पर कहा और इस बात के लिए मेरे पास अपने कारण और तर्क हैं.बिना जाने गौरव को विद्रोही मानना किसी और के लिए ज़रूरी भी नहीं है. लेकिन ये बात ज़रूरी है कि गौरव जिन मुद्दों को उठा रहे हैं उनके बारे में कम से कम सोचा तो जाए.

    आखिरी बात आप ही की तरह हम भी इंतज़ार में हैं कि दूसरा पक्ष गौरव के प्रश्नों का कोई गंभीर उत्तर तो दे.अभी तक तो मगरूर धमकियों और कुटिल पुचकारों के अलावा कुछ नहीं आया और इनका क्या अर्थ निकाला जाए ?

    मुझे अच्छा लगा कि कम से कम आपने अपने विचार तो रखे यहां तो लोग इस मुद्दे पर सोचने से भी डर रहे हैं लिखना तो दूर की बात है..

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    1. हिमांशु भाई, जैसा कि मैंने कहा भी है कि मेरी पूरी कोशिश है - आपकी भी - इस मामले पर सब सोचे और क्रियाशील हों, कहीं से कुछ बदलाव की गुंजाइश बने. पर इतने पढ़े-लिखे समाज में अगर यह गंभीरता से न लिया जाय तो वह भविष्य को और भी निराश करने वाला होगा. पढ़े-लिखो की चुप्पी दुखद है. इसीलिये मैं चाहता हूँ कि दूसरा पक्ष आये और लोगों के प्रश्न/शक शमित हो जाएं, गौरव का पुनर्पक्ष आ जाए और निष्कर्ष तक अधिकाधिक लोग जा सकें. लड़ाई व्यापक हो सके. सबसे बड़ी चीज है कि हम व्यक्तिगत सीमाओं से ऊपर उठ कर जिस चीज को बुरा मान रहे हैं, उसके खिलाफ एकजुट रहे!

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  5. गौरव सोलंकी का प्रकरण यह बताने भर के लिए पर्याप्त है कि हम संस्थानिक रूप से भी कितना कमज़ोर हो गए हैं? हम ऐसे समाज में रहते हाँ जहाँ अब खुलेआम नंगई करने पर भी गौरव महसूस करते हैं !

    गौरव के साथ सिर्फ सहानुभूति ही कर सकते हैं !

    आपने यह मुद्दा उठाकर ज़रूर एक विमर्श पैदा किया है !

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    1. हाँ, इस बात पर नोटिस लेनी चाहिए ki बात 'व्यक्ति' गौरव की जितनी है उससे अधिक 'संस्था' की है.

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  6. अच्छा लेख लिखा है। सभी बातों से सहमत! हिंदी पोर्टलों की सधी चुप्पी वाली बात की तरफ़ सही इशारा किया।

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    1. हाँ वही, नीक-बेकार कुछ भी, प्रतिक्रया तो आये! बात तो हो!

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  7. सहमत हूँ, राजनीति से लेकर साहित्य तक हर ओर एक ही हाल चल रहा है। अक्षम लोग तंत्र चलाते हैं तो यही होता है। दूसरी तरफ़ लोग तब तक बच कर ही निकलते रहते हैं जब तक उनके अपने ऊपर नहीं आती।

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  8. अमरेन्द्र इस पुरे प्रकरण पर लगातार सबके विचार पढ़ता रहा हूँ . तुम्हारी बात से सहमत हूँ . किसी भी माध्यम से सही संस्थाओं के गलत रवय्ये के खिलाफ इकट्ठा तो होना ही चाहिए .अपने अवधी में एक कहावत है 'अंधरा बांटें सिन्नी घरु -घराना खाय' अब तक इन संस्थाओ द्वारा यही तो किया जाता रहा है .गुट और खेमें निर्मित कर उनके बीच ही मज़ा - मलाई का बँटवारा , खाने -खिलाने का जश्न किए जाते रहने की सांस्थानिक प्रवित्ति से आप हम सब वाकिफ हैं .अब आज 'घरु-घराने ' के बीच ही अनबन पैदा हो गई है और इस तरह की सार्वजनिक मंच पर विवाद की शक्ल ले चुका है , तब हमेशा से हाशिए पर रहे 'बाहर वाले ' के पास इस घरु-घराने ' के विवाद पर चुप्पी साधने के सिवा और चारा भी क्या है . सीधी सी बात है -ये उनके आपस का मामला है .तुम्हारे लेख से दो बातें मुझे खास जंची - एक की ज्ञानपीठ का पक्ष जाने बगैर निर्णय तक पहुंचना संभव नहीं , निश्चित रूप से ज्ञानपीठ को अपना पक्ष रखना चाहिए . और अगर नहीं रखता तो ये उसका एक बड़ा दोष है . दूसरी बात गौरव के साथ इसलिए खड़े होने का कोई औचित्य नहीं है कि उनके साथ अन्याय हुआ है , आज जिस व्यवस्था की वे पोल खोल रहे हैं , कल तक उसी का हिस्सा थे .हाँ अगर गौरव इस लड़ाई को वहाँ तक ले जाना चाहते हों कि ये लड़ाई केवल उनकी न होकर सभी हाशिए पर पड़े लोगो की लड़ाई हो सके . संस्थावो से घरु घराना वाली प्रवित्ति खत्म हो सके , तो गौरव के साथ खड़ा हुआ जाना चाहिए . कहीं ऐसा न हो कि दुबारा व्यक्तिगत हित सधते देखकर गौरव की क्रांतिकारिता हवा हो जाए . अगर गौरव व्यापक समर्थन चाहते हैं और बदलाव के हामी हैं तो उन्हें व्यक्तिगत हित को पीछे करना पडेगा .

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    1. आपकी बात से सहमत हूँ कि आगे भी गौरव व्यापक सरोकार रखें, 'किसी व्यक्ति' तक ही अपने को सीमित न रखें, पर वही कहूंगा कि हमारी भूमिका 'वर्तमान' में भी वर्तमान को देखकर हुआ करती है, अतीत और भविष्य को देखने के बावजूद!

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  9. इसी मुद्दे में हमनें एक टिप्पणी गौरव के "India Against Corruption in Literature" Facebook community पर भेजी थी पर उन्होंने अप्रूव नहीं की।

    https://sites.google.com/site/akshapadp/gaurav.pdf

    आशा है प्रबुद्ध जन इसे पढ़्कर राय बनाएंगे।

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    1. क्लिकेबल लिंक यह है - patra

      आशा है प्रबुद्ध जन इसे पढ़्कर राय बनाएंगे।

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