शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

'आपका स्थान' विषय पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल का वक्तव्य

लोकमत समाचार द्वारा आयोजित उसकी रचना वार्षिकी -2012 'दीप भव' (अतिथि संपादक: अशोक वाजपेयी) के विमोचन के अवसर पर इण्डिया इस्लामिक सेंटर , नयी दिल्ली, में 6 नवम्बर, 2012 को 'आपका स्थान' विषय पर दिए गए प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल के भाषण की यह अविकल प्रस्तुति है। प्रस्तुति आनंद पांडेय़ के सौजन्य से। : संपादक
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'आपका स्थान' विषय पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल का वक्तव्य

मित्रों,
आमतौर से लेखकों और बुद्धिजीवियों की गोष्ठियों में हमारा समय इस तरह के विषयों पर बातचीत होती आई है। बहुत बार हम लोग बात करते रहे हैं। लेकिन मेरा अनुमान है कि ये विषय वाजपेयी जी का सुझाया हुआ है और इस तरह की क्रिएटिव शरारतों की उम्मीद अगर हम लोग अशोक वाजपेयी से नहीं करेंगे तो किससे करेंगे? तो हमारा स्थान, जब मैं इस विषय पर सोचने लगा, तो जाहिर है कि इस विषय में स्थान शब्द एक तरह का रूपक है और ये उस अर्थ का विस्तार है जिस अर्थ में कई बार जैसे कानूनी और सरकारी दस्तावेजों में हम लोग एक फ्रेज पहले इस्तेमाल करते थे। दिल्ली के बाहर हो सकता है, अभी भी इस्तेमाल करते हों क्योंकि दिल्ली में तो सरकारी दस्तावेज तो केवल अंग्रेजी में होते हैं, लेकिन दिल्ली के बाहर का जो हिंदुस्तान है, उसमें सरकारी दस्तावेजों में एक जमाने में फ्रेज हुआ करता था, जैसे अगर मैं अपने ही बारे में कहूँ तो पुरूषोत्तम पैदाइश ग्वालियर, साकिन दिल्ली, हाल मुकाम जहाँ भी आप हों, मिसाल के तौर पर हाल मुकाम इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर।

तो हम कहाँ हैं, कहाँ से आये हैं, और फिलवक्त कहाँ हैं? इस सवाल पर मुझे लगता है कि ज्यादे प्रामाणिक ढंग से बात मैं अपने ही हवाले से कर सकता हूँ। जड़ों की बात आई, और शायद अंक भी जड़ों पर केंद्रित है, जड़ों की खोज पर ..... एक व्यक्ति के तौर पर अगर मैं देखूँ और जो रूपक स्थान से भी जुड़ता है उसी को आगे बढ़ाऊँ, तो मेरी जड़ें वैष्णव पिता और जैन माँ में हैं। मेरी जड़ें उस संवाद में हैं जो इन दो महान् और कभी-कभी विवादास्पद, और उस विवाद को मैं अपने घर में भी देखता था। वो वैष्णव और जैन विवाद मेरे लिए केवल एक थ्योरेटिकल विवाद नहीं था, वो मेरे लिए प्रत्यक्ष का अनुभव भी कई बार होता था लेकिन इसके बावजूद, उस सारे विवाद के बावजूद मेरे रक्त में जो बहता है, वो विवाद कम है और संवाद ज्यादे है। वो वैष्णव परंपरा का और जैन परंपरा का जो संवाद था..... और अपनी माँ को याद करते हुए एक अद्भुत अनुभव मैं कभी भूल ही नहीं सकता। मेरे स्वर्गीय बड़े भाई एक खास तरह की राजनीति के पैरोंकार थे, बल्कि उसके ऐक्टिविस्ट थे और जिसे कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिखने लगते हैं तो उनके राजनीतिक रूझानात बचपन में ही दिखने लगे थे। और कह सकते हैं कि मेरे भी कुछ-कुछ दिखने लगे थे। तो, वो चर्च द्वारा कुछ परीक्षाएँ आयोजित की जाती थीं, बाइबिल की। बच्चे थे हम, मैंने वो परीक्षाएँ दीं। दो-चार दफे जाकर क्लासेज कीं। फिर कुछ परीक्षा दी और मैंने परीक्षा पास कर ली। तो पुरस्कार में मुझे ईसा मसीह की एक तस्वीर मिली। मैं बड़े उत्साह से उस पुरस्कार को लेकर घर आया। मेरे बड़े भाई आगबबूला हो गये, उस तस्वीर को देखकर कि ये तो नहीं चलेगा, ये सब कहाँ से घर में आ जाएगा? युद्ध हुआ, युद्ध में उन्होंने मेरी ठीक-ठाक से पिटाई भी कर दी और मैं सिवाय रोने के और ये धमकी देने के कि मैं खाना नहीं खाऊँगा, और क्या कर सकता था! 

माँ ने जो रास्ता निकाला, वो अद्भुत था। उन्होंने वो तस्वीर उठाई और ले जा करके अपने पूजाघर में रख दी। पूजाघर, बाद के पूजा घरों और देवस्थलों की तरह हिंसा के लिए आउट ऑफ बांड्स हो या न हो, लेकिन मेरे घर में मेरी माँ का पूजाघर मेरे बड़े भाई की तमाम हरकतों के लिए आउट ऑफ बांड्स था। तो ईसा मसीह जब एक बार वहाँ पधर गए तो फिर तो वो हर तरह के खतरे से बाहर निकल गए। और माँ के अंतिम समय तक ईसा मसीह वहाँ जमे रहे और अपने विभिन्न प्रकार के प्रसाद हर त्यौहार पर दिवाली से लेकर क्रिसमस तक, कृष्ण जन्माष्टमी से ले करके रामनवमी तक, विभिन्न प्रकार के त्यौहारों पर वे विभिन्न प्रकार के भोग ग्रहण करते रहे और हम लोगों को जो प्रसाद मिलता था उसमें से एक अंश जीसस क्राइस्ट का भी होता था। तो, जड़ें तो वहाँ हैं। और मुझे लगता है कि मेरे जैसे करोड़ों आम हिंदुस्तानियों की जड़ें वहीं हैं। और इसीलिए वो चमत्कार, वो अजूबा मुमकिन हो पाता है जिसकी चर्चा अभी थोड़ी देर पहले फारूख साहब कर रहे थे। लेकिन, जब हम अपने स्थान की बात करते हैं, तो कहीं-न-कहीं वो बात अपने समय की बात से जुड़नी ही है। क्योंकि आज मैं जहाँ खड़ा बात कर रहा हूँ वो अपनी जगह महत्वपूर्ण है लेकिन मैं जिस वक्त खड़ा बात कर रहा हूँ वो कम महत्वपूर्ण नहीं है। 

बल्कि, मुझे लगता है हमारे यहाँ देशकाल शब्द का प्रयोग साथ-साथ किया जाता है। देशकाल-विवेक, देशकाल के अनुकूल बात करना, देशकाल के प्रतिकूल बात करना। तो, देश और काल परस्पर संवादरत वास्तविकताएँ हैं। और अगर काल को देखता हूँ तो इक्कीसवीं सदी का ये समय, जो एक ऐसा समय है कि जिसमें इमारतें बड़ी-से-बड़ी होती जा रही हैं और अक्ल और न्याय का बोध छोटे-से-छोटा होता चला जा रहा है। कई बार मित्रों, मुझे लगता है कि हम एक बेहद बौने समय में जी रहे हैं। महान् उपलब्धियों का समय है ये। मैं उन महान् उपलब्धियों को नकार नहीं रहा हूँ। वैज्ञानिक तौर पर, तकनालॉजी के तौर पर, समृद्धि की संरचना के तौर पर, धन के निर्माण के तौर पर महान् उपलब्धियों का ये समय है। और फिर भी ऐसा लगता है कि जैसे यह बहुत बौनेपन का समय है, बहुत छोटेपन का समय है, बहुत ओछेपन का समय है। ये एक ऐसा समय है, और ये केवल अपने देश में नहीं बल्कि दुनियाभर में। हम अपने देश के बारे में प्रत्यक्ष और अधिक निकट अनुभव से जानते हैं। सचाई ये दुनिया भर की है ये एक ऐसा समय है, जिसमें साझे सपने पीछे छूटते चले गए। पहचानें, तरह-तरह की पहचानें। सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, इस तरह की, उस तरह की। याने अब आलम यह है कि मिसाल के तौर पर मैं किसी के बारे में कुछ कहूँ तो मुझे ये कहा जा सकता है कि आपको कुछ नहीं कहना चाहिए क्योंकि आपका संबंध उस समूह से नहीं है। आप उस वर्ग से या उस विशेष पहचान से ताल्लुक नहीं रखते, इसलिए आप चुप बैठिए, उसके बारे में आप बात नहीं कर सकते। कहने वाले मित्र ये भूल जाते हैं कि इस तर्क से न मैं फिलीस्तीन के बारे में बात कर सकता हूँ और न चीन के मुसलमानों के बारे में बात कर सकता हूँ। कहने वाले ये भी भूल जाते हैं कि इस तर्क से मैं स्त्रियों के बारे में भी बात नहीं कर सकता और बर्मा की जनता के बारे में भी बात नहीं कर सकता। लेकिन, फिर भी ये ऐसा समय है, इस सचाई से मुँह चुराना मेरे लिए मुमकिन नहीं है, जिसमें पहचानें छाती जा रही हैं और साझे सपने धुँधले होते जा रहे हैं। 

और, अंततः मित्रों, ये ऐसा समय है, मार्टिन लूथर किंग के अद्भुद शब्दों में उनके अंतिम भाषण के शब्दों में, ये एक ऐसा समय है, मार्टिन लूथर किंग ने बिल्कुल ठीक कहा था, 1968 में और आज 2012 में ये बात उससे कहीं सौ गुना ज्यादा सच है कि अब ये वक्त नन वॉयलेंस और वॉयलेंस के बीच में चुनाव करने का नहीं है। अब ये चुनाव आप के पास बचा नहीं है कि आप हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लें या अहिंसा का रास्ता अख्तियार कर लें। मार्टिन लूथर किंग ने कहा कि अब चुनाव वॉयलेंस और नन वॉयलेंस के बीच में नहीं है, अब चुनाव नन वॉसलेंस और नन इग्झिस्टेंस के बीच में है। या तो आप अहिंसा का रास्ता चुनेंगे या सर्वनाश का रास्ता चुनेंगे। जितने भी मतभेद हों, जितने भी टकराते हुए सपने हों, अंततः अहिंसा की ओर जाना होगा। अंततः गांधीजी के शब्दों में अगर अहिंसा की परिभाषा याद करें तो संयम और करूणा की ओर जाना होगा।

पर्यावरण की चिंताएँ आज जिस पैमाने पर पहुँच गईं हैं, सवाल अंततः वही है कि कहीं तो संयम अख्तियार करना होगा। कहीं तो सिर्फ अपने दुख की नहीं, दूसरे के दुख की भी बात करनी होगी। करूणा इसी को कहते हैं। तो मार्टिन लूथर किंग की बात याद करता हूँ कि चुनाव नन वॉयलेंस और नन इग्झिस्टेंस के बीच में है, चुनाव नन वॉयलेंस और वॉयलेंस के बीच में नहीं है। 

और, अंत में मित्रों न जाने क्यों मुझे सेवा ग्राम याद आता है। आप में से कई लोग वहाँ गये होंगे। वहाँ जो प्रार्थना स्थल है, बस वो एक साफ-सुथरी जगह है। एक तरफ चौकी है। वहाँ गांधी जी बैठकर प्रार्थना करते थे, करवाते थे और अभी भी वहाँ हर शाम को विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का पाठ होता है। प्रार्थना होती है। वहाँ एक बोर्ड पर गांधीजी का एक वाक्य लगा हुआ है, गांधी जी का बोला हुआ एक वाक्य। और मुझे लगता है कि वो हमारे आज के विषय पर चर्चा करने के लिए ही नहीं, हमारे आज के सवालों पर सोचने के लिए भी बड़ा प्रेरणास्प्रद वाक्य है। और वो वाक्य है कि प्रार्थना के लिए खुले आकाश के नीचे जमीन का एक छोटा-सा स्वच्छ टुकड़ा सबसे अच्छा क्योंकि उस तक गरीब-से-गरीब आदमी की पहुँच है। तो गरीब-से-गरीब आदमी की पहुँच वाले स्थान की कल्पना और उस स्थान की कल्पना करने के लिए मूलभूत मानवीय और सर्जनात्मक कल्पना।

मित्रों, मुझे लगता है कि इक्कीसवीं सदी का सबसे संकट कल्पना का संकट है। इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी विफलता स्मृति और कल्पना की विफलता है। हम अपनी स्मृतियों से सीखना नहीं चाहते। हम अपने भविष्य की प्रदत्त कल्पनाओं से आगे जाकर कल्पनाएँ नहीं करना चाहते। ये सबसे बड़ा संकट है। और ये संकट ही हमारा स्थान है। हम ऐन इस संकट के बीचोंबीच खड़े हैं। मैं नहीं जानता कि ये कामना करने का पर्याप्त आधार हमारे पास है या नहीं लेकिन फिर भी यह कामना करना चाहता हूँ कि हम इस स्थान पर खड़े हो करके कल्पना के पुनर्वास का, विवेक के पुनर्वास का साहस कर सकें। तब संभवतः हम सचमुच अपने आप से कह सकेंगे कि हम दीप हुए, दीप भव होने की कामना हमने सचमुच पूरी करने की कम-से-कम कोशिश की।
धन्यवाद मित्रों।
(प्रो. 
पुरुषोत्तम अग्रवाल)



प्रस्तुति : आनंद पांडेय ने जवाहरलाल नेहरु विश्‍वविद्यालय से उच्‍च शिक्षा प्राप्त की है। एनएसयूआई के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं। इस समय में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य में संलग्न हैं। साहित्यिक और सामाजिक सरोकार के साथ लेखन में सक्रिय हैं। उनसे anandpandeymail@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस प्रस्तुति के लिए बहुत धन्यवाद !

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  2. इक्कीसवीं सदी का ये समय, जो एक ऐसा समय है कि जिसमें इमारतें बड़ी-से-बड़ी होती जा रही हैं और अक्ल और न्याय का बोध छोटे-से-छोटा होता चला जा रहा है। कई बार मित्रों, मुझे लगता है कि हम एक बेहद बौने समय में जी रहे हैं।

    यह कड़ुवा सच है!

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