‘बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना / तेरी जुल्फों का पेचो-ख़म नहीं है।’- कहने वाले मजाज़ अपने दौर में दुनिया की मुश्किलों को संवारने-सुलझाने के लिए विचार-जाग्रत थे, प्रतिबद्ध थे, इसका प्रमाण उनका यह दूसरे विश्वयुद्ध से ताल्लुक बयान है। इसे पढ़ते हुए आप उनकी वैश्विक चिंता से रूबरू होते हैं। उनका यह बयान फासिज्म के विरुद्ध कलम की कटिबद्धता से ओतप्रोत है। मजाज़ साहब के इस बयान को मैंने उद्भावना पत्रिका (संपादक : जानकीप्रसाद शर्मा) से साभार लिया है। शीर्षक भी मैंने वही रखा है। अनुवाद जानकीप्रसाद शर्मा का है। आज की तारीख मजाज़ साहब के जन्म की तारीख (१९ अक्टूबर १९११) है, इस मौके पर प्रस्तुत है उनका यह महत्वपूर्ण बयान। : संपादक
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“इस खुली हुई हक़ीक़त से भला किसको इंकार हो सकता है कि हम अपनी आँखों से एक इतना बड़ा हंगामा देख रहे हैं जिसकी नज़ीर मानव इतिहास में नहीं मिलती। एक ऐसा हंगामा जिसका अंजाम सुखद भी है और भयानक भी। इस क़दर सुखद कि यह दुनिया आज़ादी, बराबरी और हर्षोल्लास की जन्नत बन जाये; और इस क़दर भयानक कि हमारी यही दुनिया एक जहन्नुम और नाक़ाबिले-बर्दाश्त जहन्नुम बन जाये।
हमारी मज़बूत और तंदुरुस्त क़ौमों ने एक दुनिया एक निज़ाम की तमीर के लिए क़दम उठाया ही था कि प्रतिक्रियावादी ताक़तें बड़ी क्रूरता के साथ शिष्टाचार, संस्कृति, सभ्यता और भाईचारे के हर विधि विधान को ध्वस्त करते हुए हम पर टूट पड़ीं। तबाही और बरबादी के गरजते गूँजते बादल, विस्तार की हवस, ख़ून की प्यास, भीषण आग की बरसात और ध्वंस – इन सबने मिलकर जर्मन, इतालवी और जापानी फ़ासिज़्म की शक्ल अख़्तियार कर ली है। फ़ासिज़्म का यह तूफ़ान सारी दुनिया पर छाने के लिए पेचो-ताब खा रहा है, और यह मनहूस बला खुद हमसे (हिन्दुस्तान से) क़रीबतर होती जा रही है। चाहे हम महसूस करें या न करें, इस महा हंगामे में हमारी हैसियत सबसे चिंताजनक है। हमारी हैसियत तो एक शिकस्ता परिंदे की सी है जो एकतरफ़ ख़ुद पहले से शिकंजे में जकड़ा हुआ है और दूसरी तरफ़ एक पैनी चोंच और ख़ूनी पंजों वाला शाहीन* दबोचने के लिए मँडला रहा है। एक तरफ़ अंदरूनी सामराजी दबाव से हमारे लिए आवाज़ बुलंद करना तो क्या साँस लेना भी मुश्किल। दूसरी तरफ़ बाहरी बला जापानी हमले की शक्ल में हर आन क़रीबतर…इसी तरह हम एक साथ दो मुसीबतों से घिरे हुए हैं। हमें दोनों का एक ही वक़्त मुक़ाबला करना है।
यह नाज़ुक और पेंचीदा मसला क्यूँकर हल करना चाहिए। हमारे प्रिय राजनेता बता चुके हैं। मैं तो शाइर की हैसियत से नहीं, अदब के तालिबेइल्म की हैसियत से; एक रहनुमा की हैसियत से नहीं सिर्फ़ एक मुसाफ़िर की हैसियत से अपने शाइरों और अदीबों को सूरतेहाल की नज़ाकत बताना चाहता हूँ। अगर यह सच्चाई है कि राष्ट्र के नाश-निर्माण में कवि-लेखकों का बड़ा हाथ रहा है तो यह भी एक खुली हुई हक़ीक़त है कि इस नाज़ुक दौर में हर लेखकीय प्रयास एक बड़ी ज़िम्मेदाराना हैसियत रखता है।
इस वक़्त बाज़ नौजवान शाइर और अदीबों को हम बड़ी दुविधा की हालत में देख रहे हैं। वे अपने-आपको शख़्त अंधेरे में पा रहे हैं और कोई फ़ैसला नही कर सकते। इस दुविधा से दो ख़तरनाक नतीजे निकल सकते हैं। वह संवेदनशील व्यक्ति जिसे कवि या लेखक कहा जाता है, इन हालातों से परेशान होकर मौन धारण कर ले और हाथ पे हाथ धरे दैव से किसी तब्दीली का इंतज़ार करता रहे, या फिर वस्तु स्थितियों की तल्ख़ी से बेज़ार होकर ख़ुद को जामों सुराही की सरमस्तियों और गालों व बालों की उत्तेजना में डुबो दे। मुझे इस बात को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि मैं इन दोनों का शिकार रह चुका हूँ, अब भी किसी हद तक हूँ। मगर बंबई के चंद रोज़ क़याम और अपने उन सरफ़रोश दोस्तों की निकटता ने जिन्हें मैने हमेशा दस्तो-बाज़ू समझा है, मेरे दिलो-दिमाग़ को झिंझोड़ दिया है। मैं अपने वीरान सीने में एक ताज़ा ऊर्जा मेहसूस कर रहा हूँ। हम उतने बेबस नहीं जितना समझते हैं। हम ऐसे परकटे और बे हाथ पैर के नहीं हैं जैसा कि ग़लती से मेहसूस करते हैं। हम अपने मुल्क, अपनी सभ्यता-संस्कृति के सरमाए को, अपने आर्ट और अदब को फ़ासिज़्म की दस्त दराज़ियों से बचा सकते हैं। और हक़ीक़त यह है कि हमारे सिवा कोई दूसरा इन्हें बचा नहीं सकता। आज हमारा काम यह है कि अपने अहले वतन के दिलों में उम्मीद की रौशनी पैदा करें। उनकी थकी हुई नब्ज़ों में हिम्मत का ख़ून दौड़ाएँ। हम प्रगतिशील लेखक अब तक अपने आर्ट से तलवार का काम लेते रहे हैं। हमने हर क़िस्म के अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद की है। फिर कोई वज़ह नहीं कि मानवता और संस्कृति के सबसे बड़े दुश्मन फ़ासिज़्म के मुक़ाबले में हम अपनी तलवार मियान में रख लें।
हमारे नग़्मों को आज दोबारा वतन की फ़ज़ाओं में गूँजना चाहिए ताकि एकता, आत्म-विश्वास और बलिदान की भावनाओं से संपन्न होकर हम अपने रास्ते से हर उस रुकावट को हटा दें जो अंधे सामराजी हमारी राह में खड़ी करते रहे हैं और तमाम दुनिया के अवाम के साथ मिलकर इस जंगे आज़ादी में इस तरह शरीक हों जो हमारे महान राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल है।”
___साभार : उद्भावना पत्रिका / अंक १०१-१०२ / संपादक - जानकीप्रसाद शर्मा / पृ . १२५-१२६
* एक मशहूर शिकारी परिंदा
* एक मशहूर शिकारी परिंदा
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