पेरियार छात्रावास, जे.एन.यू. में पिछले महीने एक कवि-गोष्ठी का आयोजन किया गया था। अनामिका, विद्रोही समेत कई कवियों ने आयोजित गोष्ठी में काव्य-पाठ किया था। काव्य-पाठ के उपरांत वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय द्वारा इन कवियों की कविताओं पर प्रतिक्रिया-स्वरूप कही बातें यहाँ आलेख-रूप में प्रस्तुत हैं। हिन्दी के वर्तमान काव्य-परिदृश्य में हिन्दी कविता का पाठकों से दूर होना एक बड़ा संकट बना हुआ है। प्रस्तुत आलेख में इस संकट के कारणों की छानबीन है और कवियों के लिए कुछ उपयोगी परामर्श हैं। : संपादक
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इस समय एक खतरा है कविता के साथ, अबूझपन का: मैनेजर पाण्डेय
एक बार हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे, सामने से चंद्रबली पांडेय आ रहे थे। द्विवेदी जी शिष्यों से बोले, रास्ता बदल दो, साक्षात् कुपित ब्रह्मचर्य आ रहा है। बाद में, थोड़ी दूर जाकर एक शिष्य ने पूछा कि पंडित जी कुपित ब्रह्मचर्य क्या होता है? वे बोले कि कुपित ब्रह्मचारी वह होता है जो दिन भर दूसरे से और रात भर खुद से लड़ता है। हिन्दी में भारी संख्या में ऐसे कवि हैं जिनको कुपित ब्रह्मचारी कहा जा सकता है। अपने से ही लड़ते हैं और अपने से ही लड़ने में कविता भी लिखते हैं। आत्मसंघर्ष में जूझे हुए। समाज संघर्ष आना चाहिए। यह देखना जरूरी है कि हमारा समय, आज का समय, कैसा समय है!
अभी अनामिका ने आशाराम बापू के बारे में कविता पढ़ी। मुझे आशाराम बापू का बयान सुन लेने के बाद तुलसीदास याद आए। तुलसीदास ने लिखा है, ‘बंचक भगत कहाइ राम के / किंकर कंचन कोह काम के।’ ये जो राम के धोखेबाज भक्त हैं, वे धन, क्रोध और काम यानी सेक्स; तीनों चीजों के गुलाम हैं।
ऐसी कविताएं होनी चाहिए जो पाठक से संवाद बना सकें। जैसे, किसी ने अनुवाद पर कविता सुनाई। किसी को सुनाइये तो वह सोचे कि ये अनुवाद क्या होता है। अनुवाद समझने के लिए तो जे.एन.यू. का छात्र होना पड़ेगा। कविता आप केवल जे.एन.यू. के छात्रों-छात्राओं के लिए तो लिख नहीं रहे हैं। ज्यों आप ऐसा करेंगे त्यों पाठक कविता से दूर होंगे। हिन्दी के एक कवि थे जिन्होंने तीन ऐसी कविताएं लिखीं जिसमें सारा हिन्दी व्याकरण समा गया। कौन कारक है, कौन संज्ञा है, कौन क्रिया है! मैंने उनसे कहा कि ऐसा करो कि इन कविताओं को लिख कर एन.सी.ई.आर.टी. को सौंप दो। भाषा का काम कवि और श्रोता या पाठक के बीच किसी भी स्तर तक संवाद में बाधक बनना नहीं, संवाद में साधक बनने का है। इसलिए ऐसी भाषा से बचना चाहिए।
कविताओं पर प्रतिक्रया के दौरान आलोचक मैनेजर पाण्डेय / photo: Amrendra N. Tripathi |
ये जो कुछ कविताएं सुनाई गयी हैं, बढ़िया रहीं, लेकिन जिसमें रवींद्र नाथ टैगोर की प्रेमिका विदेशिनी का जिक्र है वह अर्जेंटाइना की महिला प्रेमिका थी। ज्यों आप कहेंगे आपकी कविता का अर्थ ही बदल जाएगा। आपकी कविता में प्रेमिका उस रूप में नहीं है जिस रूप में रवींद्र नाथ टैगोर की प्रेमिका है। और यह भी ठीक नहीं है, देखिए; रवींद्र नाथ टैगोर महापुरुष थे लेकिन उनका सब कुछ महान ही रहा हो, यह मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। न पहले मानने को तैयार था न आज मानने को तैयार हूँ। इसलिए कविता में ऐसा संदर्भ नहीं देना चाहिए जो पाठकों-श्रोताओं को भटकाए।
इस समय एक खतरा है कविता के साथ, अबूझपन का। उसका परिणाम क्या हुआ है कि कवि पुरस्कृत हो रहे हैं और कविता तिरस्कृत हो रही है। उसी में कुछ लोग, जैसे अशोक वाजपेयी, विलाप करते रहते हैं कि हिन्दी-समाज कविता विरोधी समाज है। ये लोग ये नहीं सोचते कि इनकी कविताएं ही समाज-विरोधी कविताएं हैं। हिन्दी समाज पांच सौ वर्षों से कबीर, तुलसी, सूर और मीरा की कविता केवल पढ़-सुन ही नहीं रहा है, जी भी रहा है। हमारी एक बुआ थीं जो कभी नहीं जाती थीं स्कूल, पर उनकी एक आदत थी कि तुलसीदास के तौर पर चौपाइयां वह अपनी आप गढ़ती थीं। मैं जब बाहर नौकरी करने लगा तो उन्होंने बार-बार कहा भोजपुरी में, ‘जे पूत परदेसी भईले / देवलोक से सबसे गईले।’ यह उनकी गढ़ी हुई है, इसका तुलसीदास से क्या लेना-देना। यहां विश्व साहित्य की अध्येता अनामिका बैठी हैं, मैं कह रहा हूं कि कबीर-सूर-तुलसी इन लोगों की कविता अनपढ़ लोगों को कवि बनाती है। वे अपने मन की दुविधा, अपना द्वंद्व, अपनी खुशी, अपना दुख, अपनी नाराजगी कविता में व्यक्त कर देते हैं। इन सबों की कविता जो यह काम करती है वह मेरी जानकारी में दुनिया की कोई कविता नहीं करती। यह क्षमता किसी बड़े से बड़े कवि में नहीं होगी। ऐसे समाज को आप कविता विरोधी समाज कहते हैं! अरे आप ऐसी कविता ही लिखते हो कि लोग समझ नहीं पाते। समझ नहीं पाने के तीन कारण हैं। पहला, हिन्दी में ऐसे कवियों के बारे में आप जानते ही होंगे, कई मेरे आत्मीय भी हैं, कि उनकी कविता में प्रयुक्त हर शब्द का अर्थ आता है लेकिन पूरी कविता समझ में नहीं आती। कारण, ऐसी संरचना और मानसिकता से वह कविता लिखी जाती है कि सामाय पाठक उससे कोई मेल-जोल बैठा ही नहीं पाता। दूसरी बात है कि कोई साधारण आदमी आपकी कविता पढ़ता है तो चाहता क्या है! वह चाहता है कि कविता उसके दिल-दिमाग की भी कुछ कहे। आप अपने ही दिल दिमाग का कहते रहिए तो उसको इससे क्या लेना देना। इसलिए यह भाव-विचार भी कविता के तिरस्कृत होने का एक कारण है। तीसरा कारण यह है कि हाल फिलहाल की हिन्दी कविता में – हिन्दी के एक बड़े आचार्य के शब्द में कहूँ तो – ‘व्यक्ति वैचित्र्यवाद’ बहुत बढ़ गया है। व्यक्तिगत विचित्रता का कविता में प्रदर्शन। यानी, सौ लोग जैसी लिखते हैं वैसी कविता हम नहीं लिखेंगे, अलग से एक कविता लिखेंगे। जिस पर अकबर इलाहाबादी ने कहा है कि ‘उनका कहा वो आप समझें या खुदा समझे!’ तब लोग कविता से मुंह काहे नहीं मोड़ेंगे।
एक कविता शुरू में एक कवि ने पढ़ी थी जिसमें कश्मीर का प्रसंग है। उसमें कश्मीर की जगह उत्तर-पूर्व लिख दीजिए तो भी कही अर्थ निकलेगा जो कश्मीर कहने से है। यह हमारे समय की, भारतीय समाज की व्यापक और बड़ी मानवीय त्रासदी है। इसीलिए मैंने शुरू में कहा था कि कविता सार्थक, सजीव और दीर्घजीवी तभी होती है जब वह मानवीय त्रासदी की आवाज बने।
आखिरी बात मित्रों, यह कहना चाहूंगा कि कभी-कभी कविता में लोकतंत्र भी धोखेबाज हो सकता है। जैसे, अभी अनामिका जी ने कविताएं पढ़ीं। इनकी कविताओं को समझने के लिए श्रोताओं-पाठकों की अपनी ओर से कुछ तैयारी करनी होती है। कार्ल मार्क्स ने कहा था कि संगीत को समझने के लिए संगीत के लिए अभ्यस्त कान चाहिए। मान लीजिए बड़े गुलाम अली खां या मल्लिकार्जुन मंसूर ही क्यों न गा रहे हों और श्रोता यह जानता ही न हो कि ये राग-रागिनी क्या चीज है, तो इन दोनों का गाना ऐसे संगीत-रहित लोगों के सामने लगभग भैंस के आगे बीन बजाने जैसा होगा। बीन बजाने पर हिरण नाचेगी न कि भैस। इसलिए कवि को अपने लिए कुछ रचना भी होता है, पाठक तैयार करना होता है। उसे नया करना होता है, निर्मित करना होता है, लेकिन ऐसा और इस तरह कि आप अपने पाठक तैयार कर सकें, बिदकाएं नहीं उसको।
ये कुछ तत्काल के अनुभव से उपजी व्यावहारिक बातें थीं। हिन्दी कविता की चुनौतियों पर न कोई लंबा-चौड़ा व्याख्यान सोचकर आया था और न ही दिया है। आप लोगों ने भिन्न-भिन्न तरह के कवियों को बुलाया, इसकी मुझे बड़ी प्रसन्नता है। सबको सुनकर मुझे अच्छा लगा।
(प्रस्तुति: अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी)