मंगलवार, 13 मार्च 2012

खुले में रचना / कविता-पाठ / ११-३-१२ / jnu / [२]

रिपोर्टिंग के पहले भाग के बाद यह दूसरा भाग प्रस्तुत है, जिसमें मुख्यतः अशोक वाजपेयी जी की कवितायेँ और उनके विचार हैं. पहले भाग में अरुण देव जी और सुमन केशरी जी की कवितायेँ एवं उसपर अशोक जी की टिप्पणी थी. कार्यक्रम में टिप्पणी देने के बाद अशोक जी ने अपनी कवितायेँ पढीं. उनहोंने कहा; 

'एक जमाने में मैं भाववाचक संज्ञाओं के प्रयोग का बहुत सख्त विरोधी था. मुझे लगता था की भाववाचक संज्ञाएँ बहुत गड़बड़ करतीं हैं. लकिन बाद में मुझे लगा की उनके बिना काम ही नहीं चलता. इधर मैंने सोचा की कुछ छोटी चीजें हमारी जिन्दगी से गायब हो रही हैं, हमारे ध्यान के भूगोल से. सोचा की कुछ नजर इधर रखी जाय, इसलिए यह कविता 'टोकनी'. 

'' एकाएक पता चला की टोकनी नहीं है 
पहले होती थी 
जिसमें कई दुःख और हरी भरी सब्जियां रखा करते थे 
अब नहीं है 
दुःख रखने की जगह भी 
धीरे धीरे कम और गायब हो रही है.'' 

कविता `छाता' 

'' छाते के बाहर ढेर सारी धूप थी 
छाता भर धूप सर पर आने से रोक रही थी 
तेज हवा को छाता अपने पर रोक पाता था 
बारिश में इतने सारे छाते थे कि लगता था लोग घर बैठे हैं 
और छाते ही चल रहे हैं 
अगर धूप, तेज हवा और बारिश न हो तो 
किसी को याद नहीं रहता कि 
छाते कहाँ दुबके पड़े हैं. '' 

कविता `पत्ती' 

'' जितना भर हो सकती थी उतना भर हो गयी पत्ती 
उससे अधिक हो पाना उसके वश में न था 
न ही वृक्ष के वश में 
जितना कांपी वह पत्ती उससे अधिक काँप सकती थी 
यह उसके वश में था 
होने और कांपने के बीच हिलती हुई वह एक पत्ती थी. '' 

कविता `सूटकेश' 

'' ऐनवक्त पर 
जब हम उसे बंद कर चुके होते हैं 
तब पाते हैं कि कुछ उसमें रखने से रह गया है 
कुछ भी 
कोई छोटा सा नोट 
सपने का कोई अधखाया टुकड़ा 
दर्द को मिटाने की कोई दवा 
उसमें जगह नहीं होती 
तह किये कपड़ों के बीच किसी तरह ठूस देते हैं 
अपने छोटे मोटे दुःख, अपनी निरुपायता 
कामचलाऊ सबकुछ अन्दर समा जाता है 
पर वे दुःख नहीं 
जिनके लिए जगह नहीं बचती 
भले उनके बिना हमारा काम नहीं चलता. '' 

कविता `मित्रहीन आकाश' 

'' धीरे धीरे सब मित्र छोड़ कर चले गए 
कुछ जल्दी जल्दी सूटकेश में चप्पलें रखना भूलकर 
कुछ अपनी नाराजगी और विफलताओं से त्रस्त होकर 
कुछ चकाचौंध की ओर जाने की हड़बडी में 
कुछ अलविदा के सटीक शब्द याद न कर पाने की झल्लाहट में 
सब चले गए 
कुछ इसलिए कि तुमने उनका ऐनवक्त पर साथ नहीं दिया 
कुछ इसलिए कि तुमने अपने और उनके बारे में सच बोलने की जुर्रत की 
कुछ इसलिए कि उन्हें अपनी दुष्टता के मुकाबले तुम्हारी दुष्टता ज्यादा असह्य लगी 
कुछ इसलिए कि उन्हें अब तुमसे कोई लाभ नहीं मिल सकता था 
कुछ इसलिए कि तुम्हारे साथ होना हानिकारक हो सकता था 
वे चले जाएंगे तो 
उनके साथ बिताए समय, बहसें, झगड़े 
साझे सुख और दुःख 
चिथड़े हुए सपने 
न काटे जा सके दुस्वप्न 
मिलकर की गयी घातें 
साथ मिलकर सहे गए आघात भी 
चले जाएंगे ? 
शायद 
शायद नहीं 
जो बचेगा मित्रहीन आकाश 
उसपर खिड़की बंद कर 
तुम बुदबुदाओगे अलविदा मित्रों 
और अपनी मटमैली मेज पर पड़े 
कुछ कागजों को सहेजोगे 
जिनपर कुछ लिखना बहुत दिनों तक मुमकिन नहीं होगा. '' 

इन कविताओं के अतिरिक्त भी अशोक जी ने कवितायेँ सुनाईं. इसके बात प्रश्नोत्तर का सिलसिला चला. इस दौरान जो विचार आये उन्हें भी  देखें;  

सर्वप्रथम संस्थापक-कविताकोश ललित जी ने टिप्पणी-रूप में अपनी जिज्ञासा रखी. उन्होंने कहा कि 'आजकल कविता पढ़ने के लिए लिखी जाती है सुनाने के लिए नहीं, जैसा आपने कहा, यह मुझे ठीक बात लगी, क्योंकि आप लोगों ने जो कवितायेँ सुनाईं उनमें - थोड़ा बेबाक होकर कहूँ तो - बोरियत आ जाती है. सुनते हुए याद आया कि हमने फैज़ को भी पढ़ा, ग़ालिब को पढ़ा, मीर को भी पढ़ा, गजल एक ऐसी विधा है जिसका हर एक सेप अपने आपमें मुकम्मल होता है लेकिन कविता की समस्या है कि वह ऊपर से नीचे तक एक ही सब्जेक्ट को फ़ालो करती है इस लिहाज से इस तरह की लम्बी कविता को अपने माइंड में प्रोसेस करना मुश्किल हो जाता है , ख़ास तौर पर तब जब कवि उसमें बहुत सारे क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल किया हो. मुझे लगता है कि कविता के अन्दर साहित्य और लोकप्रियता में जो फर्क है, जिसे आजकल मंचीय कविता कहते हैं, मेरे खयाल से मंचीय कविता को इतना ज्यादा गरियाने की जरूरत नहीं है. क्योंकि वाजपेयी जी ने कहा कि कविता का मकसद होता है 'ठिठकाना', जो कविता समझ में ही न आये वह सामने वाले को कभी नहीं ठिठका सकती. जाहिर है कि जो मंचीय कविता है, लोकप्रिय कविता है, उसपर हम विचार कर सकते हैं और उसको किसी तरह अपने जीवन में जोड़ कर रख सकते हैं, यह प्रश्न नहीं टिप्पणी है!'

ललित जी की बात पर वाजपेयी जी ने उत्तर दिया: 

'' मुझे लगता है कि दो-तीन बातें कहनी चाहिए. पहली बात, हमारी कविता की समझ को दो चीजों से बहुत प्रभावित हुई, खबर से और फ़िल्मी गीतों से. खबर का मतलब यह कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए, उस खबर का मुख्य सच तो यही है. फिर आगे इसके खुलासे हैं कि कैसे यह हुआ, मुलायम सिंह को मनाया गया..क्या क्या हुआ..आदि. दूसरी तरफ  फ़िल्मी गीत हैं जिन्हें हम आज तक सुनते आये हैं जैसे कोई प्रेमी-प्रेमिका कमरे में बंद हों चाबी खो गई है, फिर आगे तमाम बाते..उसमें मुख्य बात तो यह रहती कि प्रेमी-प्रेमिका एक कमरे में बंद हैं चाबी खो गयी है, बाकी गीत इसी का खुलासा भर करता था. कविता की समझ दुर्भाग्य से ऐसी नहीं है, नहीं हो सकती. वह अपना सच आपको समोसे की तरह गप्प से खा जाने के लिए तस्तरी पर पेश नहीं कर सकती. उसका सच शुरू में ही व्यक्त नहीं हो सकता. दूसरी बात, असल में तो कविता का सच अधूरा सच है. उसमें थोड़ा सा सच आपको मिलाना पड़ेगा, अपना! इसीलिये एक ही कविता के अनेक अर्थ या अनेक व्याख्याएं संभव हैं क्योंकि उसमें आप अपनी और से कुछ जोड़ते हैं. एक अरबी कहावत है जिसको अज्ञेय जी बहुत सुनाते थे कि अगर एक किताब और एक खोपड़ी टकराए और खन्न से आवाज निकले तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि किताब ही खाली है! 

आपने जो मंचीय कविता का जिक्र किया, पहले एक ज़माना था.. और यह हिन्दी में ही हुआ उर्दू में नहीं हुआ, उर्दू में अभी भी मुशायरे में सफल होना शायर की स्वाभाविक आकांक्षा का अंग माना जाता है. लेकिन हिन्दी में पिछले लगभग तीस-चालीस वर्ष में ऐसा विकास हुआ कि लोकप्रियता और महत्व के बीच एक बड़ी खाई बन गयी. जो महत्वपूर्ण है वह लोकप्रिय नहीं है और जो लोकप्रिय है वह महत्वपूर्ण नहीं है. अब इसके कारणों में जाने का अभी अवसर नहीं है. लेकिन ऐसा है. हमने मध्य प्रदेश में एक प्रयोग किया था शब्दों के हिसाब से.. और कविता में कुछ भी क्लिष्ट नहीं होता, या तो सटीक होता है या अ-सटीक होता है. निराला की शक्तिपूजा में शुरुआती पंक्तियाँ समस्त पद में हैं, संस्कृत का कोश  देखिये तब समझ में आयेंगी. इसलिए वह कविता न हो! क्लिष्ट है! थोड़ी-बहुत मेहनत तो आपको करनी पड़ेगी! 

यह जो हमने प्रयोग किया कवियों को लेकर .. कि लगभग १०० आयोजन किये होंगे, भोपाल में, इंदौर में, ग्वालियर में, जबलपुर में, सागर में, और हमने पाया कि अगर इस तरह की कविता ठीक से पढने वाले कवि जुटाए जाएं! बहुत सारे कवि तो अपनी कविता अच्छी नहीं पढ़ते, मसलन मुक्तिबोध अपनी कविता अच्छी नहीं पढ़ते थे. शमशेर और अज्ञेय अच्छा पढ़ते थे. इसलिए पढने का भी इन कवियों को थोड़ा अभ्यास करने की जरूरत है कि क्या चाहिए, एक श्रोत्र समुदाय को अपने को संप्रेषित करने के लिए. दिक्कत कवि के साथ क्या होती है कि उसे लगता है कि लाओ लगे हाथ इसे भी  सुना दे. यह लगे हाथ नहीं चलता. जैसे कुमार गन्धर्व अपने गाने का एक नक्सा बनाते थे, कागज़ पर लिखते थे, तय कर लिया कि आज तिलककामोद सुनाना है तो कोई परिवर्तन नहीं करते थे(सिर्फ मैं ही उनसे परिवर्तन करा सकता था). यह, अपने श्रोत्र-समुदाय के प्रति आदर का भाव भी होना चाहिए..जैसे मैं मानता हूँ कि पंक्तियों को दुहराना अनावश्यक है. कई बार कारण नहीं समझ में आता क्यों दुहराव है. ये सब बातें हैं! '' 

आगे श्रोताओं की तरफ से सवाल हुए कि कविता हमें पूरी यात्रा तक क्यों नहीं पहुंचाती. अधूरे रास्ते पर जैसे छोड़ देती है. इसी के आगे एक सवाल आया था कि सामाजिक सरोकार का ऐसा क्या महत्व कि जिसके अभाव में किसी को श्रेष्ठ कवि की परिधि से खारिज कर दिया जाता है, विषय चयन से दूर तक यह सामाजिक सरोकार की अनिवार्य आवश्यकता का क्या सम्बन्ध है! इन बातों पर अशोक जी ने कहा: 

'' हमारे तो एक बड़े कवि के बारे में यह लगभग रूढ़ है, मुक्तिबोध, जिन्होंने अपने बारे में लिखा है कि ख़त्म नहीं होती, ख़त्म नहीं होती हमारी कविता. तो इसका उत्तर यह है कि कविता से आपकी तवक्को क्या है, आप क्या चाह रहे हैं. कविता का काम आपको रास्ता दिखाना नहीं है. कम-से-कम मैं कवि के तौर पर जो देखता हूँ. मेरा काम आपको रास्ते की संभावना की तरफ सजग करना है. जो बना-बनाया रास्ता है वही रास्ता नहीं है, रचने-गढ़ने के कई विकल्प संभव हैं, उनमें से कौन सा आपको ठीक लगता है यह आप पर है. क्योंकि आपकी परिस्थितियों का तो मुझे पता नहीं!

मेरे जो ८-९ वीं के अध्यापक थे, अद्भुत अध्यापक थे, उन्हीं दिनों मैंने सार्वजनिक वक्तव्य देना शुरू किया था, वाद-विवाद आदि. उनहोंने जो मुझे कई सीखें दीं उनमें से एक सीख यह थी कि अपने श्रोताओं को प्यासा छोड़ना जरूरी है. उनके ऊपर सारा बोझ मत डाल दो, जितना वो सम्हाल न सकें. इसलिए कविता भी एक जगह ले जाकर आपको छोडती हैं, यही उसके लिए ठीक है. आपको रस्ते पर बहुत आगे तक ले जाय, ऐसी कविता होती होगी, लेकिन बहुत अच्छी कविता नहीं होती. 

देखो ये सामाजिक यथार्थ, सामाजिक सरोकार आदि नए चोचले हैं. और इनका कोई विशेष अर्थ नहीं है. किसी भी समय में बहु-संख्यक कवि खराब होते हैं, थोड़े ही अच्छे होते हैं. छायावाद के समय संभवतः साढ़े चार हजार कवि रहे होंगे लेकिन बचे साढ़े चार. आधे में राम कुमार वर्मा आदि को रख दो. बाकी सब का क्या हुआ! दो तरह के कवि होते हैं, एक तो अच्छे कवि, जिनका पूरा विकास होता है जैसे मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, निराला आदि. दूसरे वो होते हैं जो (कोई)एक अच्छी कविता लिखते हैं. बाकी सब उनके बस का नहीं. नेमि जी ने एक बार मृत्युंजय उपाध्याय नाम के कवि को बताया, उनकी एक कविता थी  कि एक आदमी की नौकरी छूट गयी और वह भाग आया, कविता है; 

बगल से गुजरती लछमिनिया को देखा नहीं 
... 
ढिबरी जलाई नहीं 
चूल्हा सुलगाया नहीं 
छूट गयी नौकरी 
किसी को बताया नहीं! 

यह एक दृश्य है जिसमें एक व्यक्ति नौकरी छूट जाने के बाद अपनी झोपड़पट्टी में लौट आया है. यह एक अच्छी कविता है. हिन्दी में दुर्भाग्य से खोजकर लाने-दिखाने की परम्परा नहीं है. अंगरेजी में इसकी परम्परा है. मैं अभी एक किताब खरीद कर लाया जिसमें एक नन है जिसको कविता पढ़ने का शौक है. इस नन ने अपनी रूचि से सौ कवितायेँ चुनी है. उसमें ऐसी कवितायेँ हैं, कवि हैं जिनके मैंने नाम ही नहीं सुने. मैं अंगरेजी साहित्य का वैध विद्यार्थी हूँ, हिन्दी का तो अवैध हूँ, मैं खुद ही पढ़ के चौक गया उन अच्छी कविताओं को! हमारे यहाँ इस तरह से अच्छी कविताओं को बचाने का प्रयास नहीं है. इसलिए ऐसे कवि भी हैं जो संभवतः अच्छे कवि न हों लेकिन अच्छी कवितायेँ लिखे होते हैं. '' 

सामाजिक सरोकार वाले मुद्दे पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने भी अपना मत रखा, जो इस तरह है; 

'' ये जो सामाजिक सरोकार वाली बात है, पहली बात यह की भाषा स्वयं एक सामाजिक सरोकार है. आप भाषा का प्रयोग करते हैं तो आप एक सामाजिक कर्म कर रहे होते हैं. इसलिए मैं कवि से यह उम्मीद नहीं करता की वह मेरे प्रिय सामाजिक सरोकारों पर कुछ कह रहा है या नहीं कह रहा है, लेकिन उसकी भाषा में सामाजिक तत्व होता ही है. दूसरी बात जब आप मनुष्य हैं और समाज में हैं तो आपकी चिंताओं के बीच में ऐसा साफ़-सुथरा विभाजन संभव नहीं है कि कहाँ आंतरिक जगत समात्प होता है और कहाँ बाह्य जगत आरम्भ होता है, अगर आप संवेदनशील व्यक्ति हैं तब! तीसरी बात यह है और यह कुछ विवादास्पद हो सकती है कि जो लोग सामाजिकता को आस्तीन पर चिपकाए फिरते हैं उनकी सामाजिकता हमें हमेशा संदिग्ध लगती है. कहीं न कहीं यह एक प्रचलित बाजारवाद का रूप है कि डिमांड किस चीज की है, वैसी कविता हम प्रस्तुत करें! हिन्दी के एक बहुत महत्वपूर्ण महान कवि थे जो पहले छायावादी थे, फिर प्रगतिशील हुए, फिर अध्यात्मवादी हुए, फिर अरविन्दवादी हुए, पुनः प्रगतिशील हुए और पुनः अध्यात्मवादी हुए! इसमें कोई हरज नहीं है अगर यह विकास आंतरिक दबावों और आतंरिक चिंताओं का परिणाम हो. मार्केट के दबाव में न हो. दुर्भाग्य से हिन्दी की बहुत सारी कवितायेँ बाजार की मांग के मुताबिक़ लिखी जा रही हैं. जैसे वाजपेयी जी ने `टोकनी' पर कविता लिखी, महत्वपूर्ण यह की हम सोचें, हमारी भाषा से टोकनी का गायब हो जाना, मेरे बच्चों की भाषा से टोकनी का गायब हो जाना, यह सामाजिक चिंता का विषय है या नहीं? अगर यह सामाजिक चिंता का विषय है तो कैसे वह कविता सामाजिक सरोकार की कविता नहीं है! '' 

कविता के लिए प्रतिमान, उनका दायरा, उनमें विमर्श, भविष्य में वे कैसी हों, इन बातों आधारित प्रश्न के जबाब में अशोक जी ने अपना मत रखा; 

'' इस सवाल का जवाब बहुत लंबा होगा .. कुछ साल पहले मैंने एक इसपर एक टिप्पणी लिखी थी  कि  हमारे साहित्यिक जीवन से, साहित्यिक कृतियों से उदात्त का भाव इतना गायब क्यों है! बल्कि उदात्त शब्द का ही प्रयोग नहीं के बराबर, हिन्दी साहित्य वाले लोंजाइनस के सिलसिले में पढ़ते होंगे और मानते होंगे कुछ रहा होगा उदात्त होना इत्यादि. अब कोई उदात्त होना नहीं चाहता. जैसे  कि  उदात्त होना कोई पिछडापन है. जैसे कोई कृतग्य नहीं होना चाहता, वह भी उदात्तता का ही एक रूप है. जैसे कोई विराट को छूने की आकांक्षा नहीं करना चाहता. क्योंकि यह आध्यात्मिकता के खाते में है. कभी भी कोई कविता बड़ी कविता नहीं हो सकती अगर वह इन स्तरों से  किसी न किसी रूप में जुड़ती न हो! हो सकता है आप उदात्त को अपना उद्देश्य घोषित न करें, जैसे मैंने एक कविता सुनाई `अपने हाथों से उठाओ पृथ्वी', उसमें आप कहें तो थोड़ा सा उदात्त होने की चेष्टा है. लेकिन इसीलिए कई बार उदात्त होता भी है तो उसे अनदेखा कर दिया जाता है. क्योंकि हमारे देखने की आँख में उदात्त शामिल नहीं है. जैसे शमशेर की कविता है, `प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे...' यह अद्भुत बिम्ब है, पूरा ब्रह्माण्ड! यह उदात्त है. `असाध्य वीणा` की कल्पना बिना उदात्तता के कैसे कर सकते हैं आप! दूसरे  स्तर पर `अँधेरे में' भी वह तत्व है जिसमें  वह आदमी भाग रहा है जिसके सामने प्रश्न है  कि  दिल्ली जाऊं या उज्जैन, उसको गांधी मिल जाते हैं, उसको तोल्स्तोय मिल जाते हैं. ये उदात्त चरित्र हैं! सीधे सीधे उदात्त नहीं! कई बार सीधे सीधे कुछ भी कहना गड्ढे में डालता है, अन्तःसलिल होना कविता में, अन्तर्ध्वनित होना, ज्यादा अच्छा है बजाय उसके बारे में मुखर होने के! .. पहचाने जाने की तुरंत की चिंता से बेहतर है की आप सोचें  कि  भाषा में जो आप करना चाह रहे हैं, क्या वह कर पा रहे हैं! बाकी की चिंता न करे, भवभूति जैसे कवि ने कहा था  कि   मैं दोनों भुजा उठा के कह रहा हूँ  कि  कभी-न-कभी तो होगा कोई सामान धर्मा, पृथ्वी विपुल है और काल निरवधि है!! ऐसे बहुत से कवि हुए हैं जिनकी सराहना तो क्या, हमारे यहाँ मुक्तिबोध हुए हैं जिनके जीते-जी पहला कविता संग्रह ही नहीं आया था. सत्य और सपने के बीच वही विडम्बना देखते रहिये, कोई सच बिना सपने के होता ही नहीं है!! '' 

इस तरह यह दूसरा भाग पूर्ण होता है. तीसरे भाग की प्रकृति अलग है, यूं कहें तो औपचारिक रूप में रिपोर्टिंग पूर्ण. (क्रमशः) 

8 टिप्‍पणियां:

  1. समग्र सुगठित रिपोर्ट!
    अच्छा लगा पढ़ना!
    आभार!

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  2. bahut badhiya likha aapne amrendra....sabhi yaden taza ho gayi....shubhasheesh

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  3. Its such a pleasure to know the open mindedness and the inquisitive thought process of our poets. Their social awareness and need to preserve our culture and its ways is touching. Amrendra, thanks for such a systematic report.

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  4. कविता का उद्देश्य है, ठिठकाना..पूर्णतया सहमत..थोड़ा खीचना होता है अपनी ओर..

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  5. इतना समग्र और सुन्दर रिपोर्ट कैसे लिख दिया अमरेन्द्र? सच में तुम्हारी याददाश्त, मेहनत और लेखन शैली बेजोड़ है. यह सब इसलिए नहीं कह रहा हूँ की तुमने "खुले में रचना" की रपट लिखी है बल्कि इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि सचमुच यह (और पहली भी) रिपोर्टिंग शानदार है. बहुत बहुत बधाई हो मित्र इस शानदार रिपोर्ट के लिए और बहुत बहुत धन्यवाद भी. तीसरी किस्त कैसी भी हो, सामने आनी ही चाहिए. :-)

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  6. बहुत अच्छा लग रहा है पढकर ..
    बधाई आपको और
    आभार इतनी तथ्यपरक सुव्यवस्थित रिपोर्ट के लियें ..

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