शनिवार, 17 मार्च 2012

अगर एनएसडी 20 बार रिजेक्ट करता तो भी मैं एक्टर ही होता!

यह वार्तालापी-पोस्ट मोहल्ला-लाइव साईट पर पूर्व प्रकाशित हो चकी है, कई महीने पहले. इसे यहाँ 'संग्रहण' के निमित्त रख रहा हूँ. इस पोस्ट के साथ कुछ मत-भेद भी रहे जिसको समेटते हुए मनोज वाजपेयी जी ने अपना पक्ष भी रखा था. कई कमेंन्ट्स रहे, जिससे उक्त लिंकों पर जाकर रूबरू हुआ जा सकता है.(Amrendra)
 जेएनयू में विगत 18 अक्टूबर की शाम इस मायने में अहम रही कि वह एक ऐसे अभिनेता से मुलाकात के रूप में गुजरी, जिसे हम इस घोर बाजारू समय में भी संभावना और आशा की देहरी पर बा-फर्ज मुस्तैद पाते हैं। ये अभिनेता हैं, अभिनय की कला के सच्चे पारखियों के चहेते मनोज वाजपेयी, जिनकी जीवटता अभी भी उसी चमक के साथ कहती है कि ‘अगर एनएसडी 20 बार रिजेक्ट करता तो भी मैं एक्टर ही होता’। ऐसे जीवट व्यक्तित्व से रूबरू होने का यह सुखद और प्रेरक संयोग मुहैया कराने में अविनाश (मोडरेटर, मोहल्ला लाइव) और प्रकाश के रे (संयोजक, सिनेमेला) की भूमिका रही। इस पूरी मुलाकात की रीति आरंभ में मेहमान के भाषण और फिर सवाल-जवाब से अलग शुरुआत से ही संभाषण की रही। इस फॉर्मेट के तहत आधे घंटे से अधिक अविनाश जी के सवालों का उत्तर मनोज जी ने दिया और फिर श्रोताओं की तरफ से सवाल किये गये। कुछ प्रश्नों का और उस पर दिये गये उत्तर का जिक्र यहां कर रहा हूं…
अभिनय की किसी भी तरह की कोई पृष्ठभूमि न रहने पर भी सफलता और सार्थकता के विशिष्ट स्थान पर पहुंचे हुए अभिनेता से सर्वप्रथम यही प्रश्न आकार लेता है कि उसने कैसे इस विषय में सोचा, वह कैसे आगे बढ़ा, क्या दिक्कतें आयीं, कैसे इस मुकाम तक पहुंचना संभव हुआ! गौरतलब है कि मनोज जी बिहार के एक पिछड़े जिले नरकटियागंज के बेलवा गांव से ताल्लुक रखते हैं, जहां से अभिनय को कैरियर बनाने वाले व्यक्ति के सामने एक नहीं अनेक दिक्कतें आयी होंगी। एक सामंती संस्कारों को ढोने वाले समाज, जो कला-रूपों को नाच-गाना कह अनुदारता ही बरतता हो, से अपनी अभिनय-यात्रा के बारे में मनोज जी ने जवाब के क्रम में बताया :
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“मेरे घर-गांव में अभिनय को अच्छा काम नहीं माना जाता था। कोई सकारात्मक आधार नहीं था। पर मुझे बचपन से ही बेहद लगाव था अभिनय से। लगता था कि इसके अलावा कोई काम मैं नहीं कर सकता। पर किसी से कहता नहीं था कि आगे चल कर मुझे यह करने का इरादा है। सारी बात अपने मन में ही रखता था। दिल्ली आकर थिएटर करने लगा। घर के लोगों को जाकर बताया कि मैं अभिनय के क्षेत्र में ही जाऊंगा। विरोध हुआ, लोग नाराज भी हुए। जब मैं घर गया, तो लोगों ने मुझसे बात नहीं की। कई दिनों तक असंवाद बना रहा। एक दिन दुवार पर सब लोग बैठे थे, तभी गांव के एक 90 साल के बुजुर्ग आये और एकाएक हम लोगों के सामने मटक कर नाचने लगे। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। फिर वह रुके और मुझको देख कर कहने लगे – ‘‘का हो, तुहूं इहs कुल करै लगलs!” लेकिन मैं हमेशा स्पष्ट था कि मुझे हर हाल में अभिनय ही करना है। अगर एनएसडी 20 बार रिजेक्ट करता तो भी मैं एक्टर ही होता।”
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एक संवेदनशील अभिनेता के लिए निहायत ‘टू द प्रोफेशन’ हो पाना भी एक कठिन चुनौती है। वह किरदार स्वभाव-प्रभाव को अपने जीवन में आने ही न दे, यह एक कठिन साधना है। जिस अभिनेता को कई किरदारों का अभिनय करना हो, तो उसे यह कठिन साधना करनी पड़ती है। इस संदर्भ में मनोज जी ने आपबीती बतायी :
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“किरदार के प्रभाव से जीवन को एकदम दूर रखना शुरू में मेरे लिए भी कठिन था। पर बाद में अभ्यस्त हो गया। ‘शूल’ फिल्म आने के बाद मुझे दृढ़ता से किरदारों से कटना आ गया। ‘शूल’ फिल्म में निभाये गये किरदार का प्रभाव मेरे मनो-मस्तिष्क में बुरी तरह बैठ गया था। जीवन असंतुलित हो गया था। साइकाट्रिस्ट की सहायता लेनी पड़ी। मुझे कुछ वर्षों के लिए अभिनय से दूर रहने की सलाह भी दी गयी। यह मेरे लिए कठिन था। मैंने स्वयं को मजबूत किया। ‘शूल’ फिल्म के बाद ऐसी स्थिति फिर नहीं आयी।”
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फिल्मी दुनिया में बिहार की उपस्थिति को लेकर कई मित्रों के सवाल रहे, इसलिए भी कि मनोज जी स्वयमेव बिहार से हैं। सवाल थे कि शूटिंग बिहार में क्यों नहीं होती, बिहार को लेकर एक नकारात्मक छवि क्यों है, आप भोजपुरी फिल्मों में क्यों नहीं अभिनय करते… आदि। इन सब बातों के जवाब में उन्होंने कहा :
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“ऐसा नहीं है कि बिहार में शूटिंग नहीं हुई। मैं खुद शूटिंग में रहा हूं। रबीना टंडन के साथ शूल फिल्म की शूटिंग वहीं हुई है। दरअसल कई बातें आती हैं। पहली बात यह कि बिहार का प्रशासन हमारी कितनी सहायता करता है। मैं जब शूटिंग पर गया था तब प्रशासन ने पूरा वादा किया था कि कुछ भी बुरा नहीं घट सकता, प्रशासन ने तमाम दिक्कतों के आने के बाद भी वादा निभाया। प्रशासन आगे भी ऐसे ही साथ रहे, तो ऐसी संभावनाएं और भी बनेंगी। दूसरी बात है आर्थिक। फिल्‍म की शूटिंग के दौरान कई बार आवागमन करना होता है, यातायात व्यवस्था की खराबी महंगे फेर में फंसा देती है।
…. मैंने भोजपुरी फिल्मों में काम अभी तक नहीं किया है तो उसका कारण है कि मुझे पसंदीदा कहानी नहीं मिल रही है। स्तरीय फिल्म हो, स्तरीय कहानी हो तो भोजपुरी फिल्मों में अभिनय से मेरा कोई विरोध नहीं है।
…. अगर लोग बिहार की नकारात्मक छवि को लेकर आपकी मुठभेड़ होती है, तो उसको एवॉइड करने की जरूरत है। यह समझ ‘बिहारी’ कहने वाले के सीमित दिमाग की दिखाती है। समझदार भी बेवकूफ जैसी बातें कर सकते हैं, तो क्या ध्यान देना उस पर। ’92 में बाबरी मस्जिद के हंगामे के दौरान मेरी पत्नी (शबाना रजा) से स्कूल टीचर ने कहा कि यह सब तुम लोगों की वजह से हो रहा है। वह बहुत दुखी हुई और घर आकर अपने पापा से इसका जिक्र किया। पापा ने कहा कि कभी-कभी टीचर भी बेवकूफी की बातें करते हैं। जिन्हें हम समझदार कहते हैं, वे भी मूर्खता भरी बातें करें, तो उसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है।”
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बंबई नगर की बाजार-संस्कृति में अभिनेता का मूल्य-जाग्रत बने रहना या उस कोशिश को अपने अंदर बनाये रखना चौंकाता अवश्य है। जाने कितने गये सही सही और फिर गये-गुजरे हो गये। जाने कितने मूल्य-प्रेमी बजारू-बयार के सामने टिक न सके। मनोज जी ने जेनुइन किरदार को लेकर अपनी बावस्तगी लगातार बनाये रखी, फलतः टकही-अधोपतन के शिकार नहीं हुए। इसलिए गंभीर श्रेणी का श्रोता-दर्शक-वर्ग मनोज जी का मुरीद भी है। इस संदर्भ में वे कहते हैं :
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“बाजार से पूर्णतया कटा भी नहीं जा सकता। हमें बाजार का उपयोग करना चाहिए, पर इसी का हिस्सा नहीं बन जाना चाहिए। हिस्सा बन जाने से फिर दिमाग में बाजार के दोष भी घर कर लेते हैं। बाजार माध्यम है, इसका बुद्धिमानी से इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन बाजार को ही सबकुछ नहीं मान लेना चाहिए। लोग कहानी सुनाने के लिए मेरे पास बैग भर कर पैसे लाते रहे हैं। यह कहते हुए कि यह तो सिर्फ सुनने के लिए है! पर मैं किसी कहानी को अपनी तरफ से किरदार के लिए तभी निश्चित करता हूं, जब वह मुझे संतुष्ट करती है। जब मेरा मन कह देता है।”
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निश्चय ही यह एक विवेकवान अभिनेता की कुशलता है कि वह बाजार और मूल्यवत्ता दोनों के बीच संतुलन बनाये रखे। इसलिए मनोज जी सराहनीय हैं, पर इसी मौके पर एक संदर्भ को रखना अप्रासंगिक नहीं होगा, जिससे आज ही पढ़ने के क्रम में रूबरू हुआ। संभवतः यहां मनोज जी अपने सिद्धांत में चूके हैं। बात निर्देशक अनुराग कश्यप की जुबानी है, जिनकी निर्देशक के तौर पर भूरि-भूरि सराहना मनोज जी करते हैं। अनुराग साहिब का कहना है –
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‘मैंने ‘शूल’ में मनोज और रवीना के साथ काम किया था। जब ‘पांच’ की नींव गढ़ी गयी तो उन दोनों को सुनाया था। मनोज को बोला था, ये करना है। कहानी सुनायी थी रवीना को और बोला था कि करना है। दोनों करने के लिए रेडी थे। बाद में उन्हें लगने लगा कि मैं अभी काम का नहीं हूं। मनोज ने बोला कि 17 लाख रुपये चाहिए। रवीना बोलीं 17 लाख चाहिए। जामू जी तैयार थे फिल्म करने को। उन्होंने बोला कि 1 करोड़ 80 लाख के अंदर बना कर दो। बाद में जब फिल्म बनी तो 1 करोड़ 11 लाख में बनी थी। लेकिन 1 करोड़ 80 लाख में भी उस समय भारी लग रही थी। मैं इतना ज्यादा डिसइलूजन हो गया कि एक दिन गुस्से में मैंने तय किया कि मैं उनके साथ फिल्म बनाऊंगा, जिन्होंने कभी फिल्म नहीं की हो। हर नये आदमी के साथ फिल्म बनाऊंगा। चालीस लाख, पचास लाख में फिल्म बनाऊंगा … और स्टार सिस्टम पर निर्भर नहीं रहूंगा।’
[ संदर्भ http://chavannichap.blogspot.com/2008/11/0-1993-0-0-0-1993-0-1995-0-0-0-0-0-0.html ]
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एक अभिनेता की निर्मिति में कई निर्देशकों का योगदान होता है। अभिनय में निखार की दृष्टि से। निर्देशकों की अलग-अलग विशेषताओं को एक अभिनेता अच्छे से पढ़ता भी है। मनोज जी के अभिनय का सफर कई अभिनेताओं के साथ में बीता है। इन अभिनेताओं के जिक्र के साथ मनोज जी ने बताया :
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“अलग-अलग निर्देशकों की अलग-अलग विशेषताएं भी हैं। काफी कुछ सीखना हुआ सभी से। शेखर कपूर ने मुझे बताया कि कैमरा देखो ही मत, बस अपना अभिनय करो। कैमरे से अप्रभावित रहने की ट्रेनिंग वहीं से हुई। रामगोपाल वर्मा इंपल्सिव स्वभाव के हैं। उनके साथ हमें हरदम एलर्ट रहना पड़ता है कि कब कह दें कि 500 किलोमीटर चल कर शूटिंग करनी है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा का मामला ठीक उलट है। बहुत ठहराव के साथ काम करते हैं। इत्मीनान से। डाक्टर चंद्रप्रकाश किसी भी कहानी की पूरी पृष्ठभूमि का पता करके काम करते हैं, जैसे यह पेड़ क्या 1960 में था? बहुत परफेक्‍शनिस्ट हैं। प्रकाश झा मल्टीटास्किंग कर लेते हैं। दिन भर शूटिंग भी देख लेंगे और फिर इस सबसे एकदम हटकर अपने मल्टीप्लेक्स पर फोन करके वहां की देखरेख की पूरी जानकारी भी ले लेंगे। इसके बाद भी कोई हड़बड़ी नहीं दिखाते। महेश भट्ट साथ वाले को पूरा स्पेस देते हैं। श्याम बेनेगल इंटेलेक्चुअली सैटिस्फैक्‍शन चाहते हैं, इससे कोई कंप्रोमाइज नहीं करते, कहानी में रुक-रुक कर बदलाव लाते रहते हैं। अनुराग कश्यप आज के दौर के सबसे महत्वपूर्ण निर्देशक हैं। इनके पास सभी निर्देशकों की अच्छाइयां मौजूद हैं। सिनेमा की एक मुकम्मल समझ रखते हैं। इनकी फिल्में आपको बीच की (एवरेज) नहीं मिलेंगी। या तो बहुत अच्छी लगेगी या बहुत खराब। इस समय में दिवाकर बैनर्जी, नीरज पांडेय, विशाल भारद्वाज जैसे महत्वपूर्ण निर्देशक भी मौजूद हैं।”
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अक्सर सफल अभिनेता राजनीति में भी पारी खेलने के इच्छुक दिखते हैं। मनोज जी से प्रश्न पूछा गया कि क्या उनकी भी ऐसी कोई योजना है! इसके जवाब में उन्होंने कहा :
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“फिलहाल मेरी इच्छा अभिनय तक ही है। राजनीति में जाने की बात सोचने में भी डर लगता है। वहां हम जैसों का टिक पाना बहुत कठिन है। फिल्म में ‘करारा जवाब मिलेगा’ (राजनीति फिल्म में मनोज जी द्वारा अभिनीत बहुचर्चित डायलाग, जिसे जेएनयू में श्रोताओं ने वन्स मोर कह-कह कर सुना…) कहना आसान है लेकिन राजनीति में करारा जवाब दे पाना बहुत कठिन।”
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और भी कई प्रश्नों से बातचीत का सिलसिला पूरा होने के बाद मनोज जी को फैन लोगों ने गजब का घेर लिया। इस लोकप्रियता को देखकर खुशी हो रही थी। लोग फोटो/आटोग्राफ लेने के लिए उद्धत थे। स्टूडेंट-एक्टिविटी-सेंटर/टेफ्ला (वेन्यू) से आने के बाद 15, महानदी होस्टल में मनोज जी के साथ हम मित्रों की देर तक बैठकी हुई। बहुत सी बातें हुईं। बिना औपचारिक हुए जिस आत्मीयता से मनोज जी हम सभी से बात कर रहे थे, लग ही नहीं रहा था कि इतना बड़ा अभिनेता यूं सहज होगा। मनोज जी को करीब से जानने-समझने का मौका मिला, यह एक सुखद और स्मरणीय अनुभव रहा।

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