अदम गोंडवी साहब से अतिरिक्त लगाव का कारण यह जानकारी भी रही कि अदम जी ने एक जागरूक जनकवि का प्रमाण देते हुये अपनी जनभाषा में भी लिखा है। जैसे नागार्जुन ने हिन्दी और मैथिली दोनों में लिखा और जनकवि के उस धर्म को निभाया जो जनभाषा में बिना रचनाशील हुये कतई नहीं निभाया जा सकता। ऐसे ही अदम साहिब ने अवधी में भी रचना की और अपने जनकवि होने का प्रमाण दिया। चूँकि अवधी को लेकर आधुनिक अवधी समाज में वैसा गौरव-बोध नहीं है, जैसा कि मैथिलियों(उदाहरण-स्वरूप) में मैथिली को लेकर है, इसलिये अदम जी की अवधी रचनाएँ बहुधा अलक्षित ही रह गयी हैं। उन्हें सम्मुख लाना और उनकी रचनाशीलता से जनमन को अवगत कराना हमारी पीढ़ी का दायित्व है। फिलहाल मित्र हिमांशु वाजपेयी से मुझे अदम गोंडवी की कुछ अवधी पंक्तियाँ मिलीं :
“उल्फत की तलैया मा कोई गोता न मारै,
अरे ज्यूधारी कुआं है यू बहुत जान लीस है!”
“हर आदमी तौ है परेसां हर आदमी पस्त है
मारौ पटक के जे कहय पन्दरा अगस्त है!
जुआं खिलाय का है पोलिस से सांठ लेहा
यही मारे तो लागत रात मा पुलिस की गस्त है!”
इन पंक्तियों से रू-ब-रू होने के बाद मैं अदम साहिब की और भी अवधी पंक्तियों के प्रति लालायित होकर मन मसोस कर रह गया। मिलने की इच्छा बलवती हुई पर तब तक सुनने के लिये खबरें आ रही थीं कि अदम जी का स्वास्थ्य बहुत खराब है और यथेष्ट चिकित्सा के अभाव में हमारा जनकवि जूझ रहा है। मिलने के विचार से दिल्ली से घर रवाना हुआ तो अदम साहिब पी.जी.आई.-लखनऊ की न-नुकुर के बीच इस हास्पिटल में भर्ती हो गये थे। सुधार की आरंभिक खबर के साथ मैं घर गया इस सोच के साथ कि वापसी के समय मिलूँगा। जाने कैसे बीच में हालत ज्यादा खराब हुई और हालचाल लेने के लिये फोन किया तो पता चला कि हमारे चहेते कवि अब हमारे बीच नहीं हैं!
जिस पहली चीज से मन खिन्न हुआ वह यह कि हम निहायत राकस समय व समाज में जी रहे हैं, जहाँ संवेदनशीलता की भी रस्मअदायगी की जाती है। जीते जी जिसने अपने फर्ज को नहीं निभाया वह मरणोपरांत दायित्व के प्रति सजग होने पुख्ता प्रमाण देने लगता है। यह सब नेता बिरादरी के जीव करते हों ऐसा ही नहीं है, ऐसा करने में कलमधारी किसी से कम नहीं। दिवंगत होने के बाद ही किसी को ब्रांड बनाने का प्रयास क्यों किया जाता है! जो समाज कवि की साँसें न बचा सके, जीते जी उसको वह सम्मान न दे सके, वह कविता की धरोहर को लेकर इतना जाग्रत कैसे हो जाता है!
एक नजर हिन्दी साहित्य पर डालने पर अन्य उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ साहित्यकारों के साथ समय-समाज ने अवसरवादी व्यवहार दिखलाया है। हिन्दी के कवि और आलोचक मुक्तिबोध के जीवन में उनका बहुविध विरोध और उपेक्षा की गयी। लेकिन मृत्युपरांत उन्हें हिन्दी साहित्य के एक विशिष्ट दौर का विशिष्ट कवि भी माना गया। जिंदगी भर अभाव में बीड़ी की तरह जिसका समय सुलगता रहा, बाद में लोग उसमें स्वर्णिम काल देखने लगे। यह मृत्यु के बाद का मुक्तिबोधीकरण हमारे समय और समाज की बीमारी है। यही अदम जी के साथ भी हुआ। पढ़े लिखों की अनुदारता! अवसरवादिता! इसके बाद यह सब लेखकीय कर्मकांड सा लगता है, शायद एक ‘कलेक्टिव’ किस्म की जरूरत होती है सबकी! जिन्होंने हिन्दी/उर्दू की साहित्यिक तथाकथित मुख्यधारा में आलोचना की लठैती न करवायी हो या ‘मैनेजिंग’ न की हो, उसके महत्व का लेखा-जोखा लेखकीय कर्मकांड के रूप में उसकी मृत्यु का इंतजार करता है। जन्मशती चल रही है तो मुझे इस त्रासदी का शिकार एक नाम – गोपाल सिंह नेपाली – का भी याद रहा है!
हिन्दी जगत में चर्चा होती है कि अदम साहब दुष्यंत कुमार के अगले पड़ाव थे। पर व्यवहार में ऐसी चर्चाओं को कितना महत्व मिला? गजल के प्रति अभी भी हिन्दी अकादमिकी सहज नहीं हो सकी है। इसके मूल में अभिधा से अलग चलने का हिन्दी-दंभ हो या उर्दू के सिन्फ के प्रति अछूत-भावना, नहीं कह सकता पर डग्गामार मुक्तछंदी से अधिक जनता ने जिन कविताओं को अपनाया है, उसके प्रति हिन्दी का शुचितावाद स्वयं को ही सीमित किया जा रहा है, स्वयं ही बौना होता जा रहा है। शमशेर की गजलें जिस अकादमिक उत्साह से शोध-बोध का हिस्सा बनीं, क्या उसी रूप में अदम साहिब की गजलों को लिया गया? शायद हिन्दी जन-रुचि को ताक पर रखकर जिस कलात्मक बारीकी को आस्वाद और शोधादि का हेतु मानती है, वह अदम जी के यहाँ नहीं मिलता। अदम जी इसे अपनी कविता के लिये पसंद भी नहीं करते थे। जो जनता पूछ रही थी उसे अदम साहिब ने जनता को बतलाया, हिन्दी अकादमिकी क्या चाहती है उसकी परवाह उन्होंने नहीं की। बड़े बड़े मानवीय सपने को कलात्मक बारीकी में रखना जिसे जनता ग्रहण न कर सके, अदम साहिब का स्वभाव न था, यह विरोधाभास उन्हें भला क्यों प्रिय होता! उन्होंने कहा भी था :
“ ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में!
…….
अदीबो! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में! ”
“ जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिए! ”
अदम जी ने अपना रस्ता चुना, अपना काव्य-प्रयोजन खुद बनाया, अपना तेवर जारी रखा, जनता को साक्षी माना, फिर क्या! अब जो बचा वह ठाठ कबीरी था, किसी की न परवाह, न किसी की मुँहदेखी! ‘पांड़े कौन कुमति तोहिं लागी’ के तर्ज पर कह उठे - ‘ मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की / यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की! ’ यह कह डालने का फक्कड़पना और साहस उनकी कविता में हर एक सोपान पर मिलेगा। यह दुर्लभ दिलेरी ही है जो हरामखोरों के सामने कहने में नहीं चूकती – ‘ जितने हरामखोर थे पुरवो-जवार में / परधान बन के आ गये अगली कतार में! ’ ऐसी बहुत सी पंक्तियाँ और बातें रखी जा सकती हैं, पर अब जरूरी है कि अदम साहिब की कविताओं से सीखा जाय कि कविता किस रूप में जनोन्मुखी हो! गाँव की माटी से जनकवि किस तरह आगे आएँ! साहस, साफगोई, सादगी, मानवीयता आदि मूल्य कैसे कविता की प्राणवायु बनें!
पूर्वप्रकाशित: तराई पत्रिका
सादर/अमरेन्द्र अवधिया
शानदार विश्लेषण , अमरेन्द्र जी ! सब कुछ आपने थोड़े में ही कह दिया ! आभार !
जवाब देंहटाएंshrddha me natmastak hoon.. adam ji ka sahi ilaaj na ho paya.. yah poore hindi samaaj balki bauddhik samaj ke liye dukhad hai..
जवाब देंहटाएंहर आदमी तौ है परेसां हर आदमी पस्त है
जवाब देंहटाएंमारौ पटक के जे कहय पन्दरा अगस्त है!
जुआं खिलाय का है पोलिस से सांठ लेहा
यही मारे तो लागत रात मा पुलिस की गस्त है!”
बाह पढ़ के आनंद आवा .सुन्दर आलेख
...श्री अदम जी के हमार कोटि नमन !!
यह मृत्यु के बाद का मुक्तिबोधीकरण हमारे समय और समाज की बीमारी है।
जवाब देंहटाएंशत प्रतिशत सत्य आकलन!
विचारोत्प्रेरक आलेख!
अदम जी को नमन!
साहस, साफगोई, सादगी के सच्चे जनकवि (लाल वाले नहीं 'जन' नहीं) को कोटिश नमन
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया अमरेन्द्र जी, गोंडवी जी के बारे में कुछ दिन पहले ही पता चला था | उनकी भाषा में अपना बचपन दिख जाता है (मेरा ननिहाल है गोंडा) |
जवाब देंहटाएंइस तरह से लोगों को उनका ड्यू क्रेडिट ना मिलना एक गंभीर समस्या है और ये हर कहीं है | इससे पीड़ित कोई एक कला, भाषा या देश नहीं है | पर अपने यहाँ इसकी एक अलग पराकाष्ठा दिखती है |
आपकी ये पंक्ति एकदम किल्ले सी आकर ठुंक गयी जेहन में..
जवाब देंहटाएं"जिस पहली चीज से मन खिन्न हुआ वह यह कि हम निहायत राकस समय व समाज में जी रहे हैं, जहाँ संवेदनशीलता की भी रस्मअदायगी की जाती है। "
निष्कर्ष सचमुच यही है...
इस माहान कलमकार को नमन...
आपका साधुवाद इस धारदार सुन्दर समीक्षा के लिए...
जितने हरामखोर थे पुरवो-जवार में
जवाब देंहटाएंपरधान बन के आ गये अगली कतार में!
रामनाथ सिंह जी अपनी बेबाक शैली और जमीनी-जुड़ाव के चलते सच्चे जनकवि थे...शत-शत नमन ऐसी हस्ती को
और आपको साधुवाद इस विश्लेषण हेतु !!
छोटी छोटी बातों से बेबाक संदेश..
जवाब देंहटाएंअब जरूरी है कि अदम साहिब की कविताओं से सीखा जाय कि कविता किस रूप में जनोन्मुखी हो!...
जवाब देंहटाएंकई बेहतर और जरूरी बातें...
यह हमारे हिंदी-साहित्य और राजनीति की बेरुखी है कि अदम साहब के बारे में तभी जान पाया ,जब वे जीवन-मृत्यु के महीन फासले पर खड़े थे !
जवाब देंहटाएंयह सही है कि उनकी जो भी रचनाएँ पढ़ी हैं,इस सुन्न पड़े समाज में एक हलचल पैदा करती लगीं ! दुष्यंत से उनकी तुलना इस मायने में की जा रही है कि व्यवस्था को उन्होंने बेलाग शब्दों में लपेटा !
बिलकुल आम जन की पहुँच वाले जनकवि थे,अदम साहब ! उन्हें हमारा नमन !
मारौ पटक के जे कहय पन्दरा अगस्त है!
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - अंजुरि में कुछ कतरों को सहेज़ा है …………ब्लॉग बुलेटिन
जवाब देंहटाएंजल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
जवाब देंहटाएंकिस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिए! ”
unke hi shabdoo me adam ji ko salaam....
ये म्रत्यु के बाद का रुदन अदम को वापस तो नहीं ला सकता ........क्या फायदा......कुछ नहीं सीखते हम अतीत से ...वक़्त ऐसे लोगो को कभी मुआफ नहीं करता .....अदम पर अब तक पढ़े लेखों में सबसे बढ़िया.....अदम अमर हैं ...!
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अदम गोंडवी जी के बारे में सुना तो बहुत था... पर उन्हें जाना आज आपके इस आलेख से ही... सही मायनों में जनकवि थे वे... बाबा नागार्जुन की परंपरा को बढ़ाते हुऐ...
क्या अदम गोंडवी जी का लिखा कुछ नेट पर मौजूद है कहीं ?
...
प्रवीण शाह जी, यह लिंक है अदम जी की कविताएँ पढ़ने के लिये:
हटाएंhttp://www.hindisamay.com/kavita/adam-gondbi.htm
@यह मृत्यु के बाद का मुक्तिबोधीकरण हमारे समय और समाज की बीमारी है। यही अदम जी के साथ भी हुआ। पढ़े लिखों की अनुदारता! अवसरवादिता!
जवाब देंहटाएंअनपढों का हाल भी कोई खास फ़र्क नहीं है। साहित्य हो, ब्लॉग या राजनीति, यह हमारी चारित्रिक/सामाजिक समस्या है। अदम जी को जितना पढा, जितना जाना, एक पाठक के रूप में उनके प्रति आदर है, लेकिन नियंत्रणवादी इस तरह नहीं सोचते, वे एक कवि, एक मानव के आगे एक प्रतिद्वन्द्वी, एक खतरा, एक शत्रु देखते हैं।
कुल मिलाकर एक विचारणीय आलेख!
हिन्दीसमय का पता तो बहुत समय से था लेकिन अदम साहब की इस कड़ी का नहीं था।
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद आपका इसके लिए।
जन कवि को सुंदर शब्दांजलि।
जवाब देंहटाएंस्व0 अदम की ये पंक्तियाँ पढ़कर थोड़ा चौंका हूँ..
“हर आदमी तौ है परेसां हर आदमी पस्त है
मारौ पटक के जे कहय पन्दरा अगस्त है!
कभी स्व0 चकाचक बनारसी से सुना था..
हर अदमी परेशान हौ हर अदमी पस्त हौ
मारा पटक के जे कहे पन्द्रह अगस्त हौ।
देवेन्द्र पाण्डेय जी, मैं इन पंक्तियों के संदर्भ से चकाचक बनारसी की चर्चा पहली बार इधर सुन रहा हूँ, अदम जी की शेष दो पंक्तिओं के रिदम में भी ये पंक्तियाँ हैं, चूँकि आपने मंचों पर उन्हें(चकाचक) परतख सुना है और जिन दूसरे सज्जन से मुझे ये पंक्तियां मिलीं उनका भी कहना है कि वहाँ भी परतख-प्रमाण की स्थिति है, इसलिये और मूल में जाना उचित होगा। उनका अवधी का कोई संग्रह आया नहीं, नहीं तो बहुत कुछ संभव है तुरंत स्पष्ट हो जाता।
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