‘मंटो’ बायोपिक फिल्म की बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहा था। समय-समय पर आने वाले ट्रेलर या वीडियो के टुकड़े इंतिजार को अ-धीरज में बदल रहे थे। आज वह दिन हाथ लग ही गया। कुछ रचनाकार होते हैं जिनके लेखन के साथ-साथ उनके जीवन का भी आकर्षण किसी को खींच सकता है। यह व्यक्तिगत रुचि का मसला हो सकता है। मेरे लिए तुलसी, कबीर, ग़ालिब, निराला, मंटो जैसे रचनाकार लेखन के साथ-साथ अपने जीवन का भी आकर्षण रखते हैं। उनके लेखन से गुजरने की तरह उनके जीवन से गुजरना भी अच्छा लगता है। इसलिए यह फिल्म आते ही आज इसे देखने से खुद को न रोक सका और देखने के बाद एक काबिले-तारीफ फिल्म को देखने की खुशी हुई।
यह फिल्म मंटो की उस मूल-वस्तु की मार्मिक प्रस्तुति है जहाँ सच अकेला लड़ता है। झूठ के महाजाल में उलझे हुए, उससे लड़ते हुए, मंटो को पूरी फिल्म में देखा जा सकता है। यह झूठ का प्रपंच सत्ता का है, संस्थाओं का है, समाज का है, व्यक्ति का है, साहित्यकारों का है, साहित्यिक मानदंडों का है और उनसे लड़ने वाला मंटो एक ईमानदार लेखक की तरह अकेला दिखता है। लेकिन एक विश्वास उसमें है जो उसे निडर किये रहता है। यह सर्जक का विश्वास है। निजी जमीर का विश्वास है। यह जमीर पूरी तरह से एक कलाकार का जमीर है। कलाकार जो ‘अपने जमीर की मस्जिद का इमाम किसी दूसरे को नहीं’ बना सकता। वह अपने सच के साथ जूझ मरेगा, उसे यह गवारा है।
वह मंटो जब स्त्री-दुनिया का सच लिखता है तो लोगों से पचता नहीं। जबकि वह कटु सच्चाई है। जब वह विभाजन का बेबाक सच लिखता है तो वह भी नागवार गुजरता है। साहित्यकारों के लिए वह ‘गुड़ घारी हँसिया’ है जिसे वे न लील पा रहे, न उगल पा रहे। इधर मंटो डंके की चोट पर कहता है कि ‘ये अफसाने इस दुनिया की सच्चाई हैं। अगर आप इन्हें नहीं बर्दाश्त कर पा रहे तो यह दुनिया ही नाकाबिले-बर्दाश्त है!’ मुझे कुँवर नारायण (
Kunwar Narain) की ‘बिजूका’ कविता की पंक्तियां यह फिल्म देखते हुए याद आ रही थीं। पूरी कविता आप देखें –
“बोलो – ज़रा ज़ोर से बोलो
ताकि वे भी सुन सकें
जो ज़रा ऊँचा सुनते हैं
डरो मत
अगर तुम सच कह रहे हो
तो तुम आफ़त नहीं
एक सच्ची ताक़त हो।
जानता हूँ ज़ोर से बोलोगे
तो असभ्य माने जाओगे
यह हक़ सिर्फ़ झूठ को है
कि वह ज़ोर से बोले
और विशिष्ट बना रहे।
यह फुसफुसाकर धीरे बोलने वाली सभ्यता
बेहद फुसफुसी है।
कौओं का अड्डा है
यह बिजूका!”
‘मंटो’ देखते हुए ‘बिजूका’ (प्रपंच) पर मंडराने वाले अड्डा जमाए एक से एक कौओं को देख सकेंगे। इनमें वे ही नहीं है जिन्हें खल और कसूरवार कहा जाता है, बल्कि वे भी हैं जो समझदार कहे जाते हैं। बिजूका की संस्कृति में फुसफुसाकर बोलने वाले इन मौकापरस्त समझदारों का कम योगदान नहीं है।
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Manto with wife Safia (left), sister-in-law Zakia Hamid Jala |
फुसफुसाकर बोलने वाली मौकापस्त ‘प्रगतिशीलता’ की हकीकत ‘मंटों’ फिल्म में उजागर हुई है। आजादी और भारत-विभाजन के बाद मंटो पाकिस्तान चले गये लेकिन उनके आइने में दोनों देशों की हकीकत चीखती है। चाहे भारत के तरक्कीपसंद हों, चाहे पाकिस्तान के तरक्कीपसंद हों, उन्हें मंटो नहीं पच रहे। बंबई का तरक्कीपसंद लेखक भी उनको लेकर सहज नहीं है। पाकिस्तान में फैज अहमद फैज जैसा प्रगतिशील भी उन्हें साहित्यिक विशिष्टता के बरअक्स कम-साहित्यिक पा रहा है। वह भी अदालत में! जहाँ तेज-तर्रार होकर सत्ता के खिलाफ और साहित्यकार के साथ आना है, वहाँ किन्तु-परन्तु के साथ हाजिर हैं कर्नल फैज अहमद फैज। इस पर मंटो का यह कहना उनके बेकाक स्वभाव, और फैज के मूल्यांकन, का प्रमाण है कि ‘बेहतर होता कि फैज अहमद फैज भी मुझे फह्हाश (अश्लील) लिखने वाला बोल देते।’
फिल्म के लिए निर्देशक ने जो विषय-वस्तु उठायी है वह बीती, बीसवीं, सदी की है। विगत से हम जो भी व्यक्ति-घटना-वस्तु-संदर्भ लाते हैं, उसकी एक ‘रचना’ कर रहे होते हैं। इस अर्थ में फिल्म मंटो एक रचना है। इस रचना में लाजमी तौर पर अपने वर्तमान के सवालों की मौजूदगी होती है। ऐसा मंटो में भी है। लेकिन यह मौजूदगी सहज संभव हुई है। आज का कोई संदर्भ चस्पा करके नहीं। प्रासंगिकता इससे और सघन होती है। यों भी एक ईमानदार जीवन कब प्रासंगिक नहीं होता! हर युग में यह जीवन जीना चुनौती बना होता है। मंटो होना तब ही कठिन नहीं था, आज भी कठिन है और आगे भी रहेगा।
इस फिल्म में जो सवाल आपको मथते हैं वे आज भी हमारे सामने हैं। ‘पहचान’ का सवाल आज भी उतना ही उग्र है। ‘राष्ट्रीयता’ के सोच की भयंकर सीमाएँ हमारे वर्तमान की जिंदगी का भी सच हैं। सांप्रदायिकता का जहर क्या भारत विभाजन के बाद खत्म हो गया! धर्मांधता की समस्या किस कदर कहर ढा रही, प्रतिदिन का हमारा जीवन इसका गवाह है। ‘अभिव्यक्ति की आजादी’, जिसे मंटो मुकदमे-दर-मुकदमे झेल रहे थे, वह आज भी संकट में है। एक फिल्म-रचना के रूप में यह फिल्म नित-नवीन है। अगर वर्तमान की समस्याओं से आप ऊँघे हैं, तो यह फिल्म आपको झकझोरती है।
निर्देशक ने बड़ी कुशलता से अभिव्यक्ति के प्रति ईमानदार एक रचनाकार की त्रासदी और पूरे समाज की त्रासदी को एक दूसरे में मिला दिया है। जोकि मिली है भी। इसे अलग-अलग देख पाना संभव नहीं है। सिस्टम से लड़ते हुए व्यक्ति के रूप में निराश-हताश और जर्जर हो रहे मंटो के निजी दुख का कौन सा सिरा है जो सामाजिक विडंबना से नहीं मिला है! इस दुख के सागर में पूरे समाज की विकृत चेहरा डूब-उतिरा रहा है। परिवार के बीच में मंटो का दुख देखें या श्याम की मित्रता के संबंध में मंटो का दुख देखें; समाज के घटिया मूल्य और मान्यताएँ कहाँ नहीं बेड़ा गर्क कर रहीं!
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Manto with his friend Shyam from film Manto |
मार्मिक स्थलों को इस फिल्म में महत्व दिया गया है, या कहें कि उन्हें सिनेमाई सघनता दी गयी है। जैसे, ‘आइडेंटिटी’ के सवाल को फिल्म में सिनेमायित होते देखते हैं। समाज में ‘पहचान’ का संकट कितने सूक्षम स्तर पर काम करता है, समस्या पैदा करता है, इसे बताने के लिए मंटो और श्याम की दोस्ती पर्याप्त है। मंटो बंबई नहीं छोड़ने वाले थे। उनकी मां, पिता और बेटा वही दफ़्न हैं। उन्हें बंबई से गहरा लगाव है जिसे जीवन भर नहीं भूल पाते। लेकिन क्या हुआ कि उन्हें बंबई छोड़ना पड़ा। जब अपने प्यारे कलाकार दोस्त श्याम ने भी उनकी पहचान एक मुसलमान ही के रूप में की तब वे टूट गये। भले उसने रोष में बात कही हो। किन्तु यह बात दूसरे कलाकार को तोड़ गयी। ‘मारने भर को तो मुसलमान हूँ ना!’ यह बात एक गहरी चोट और कचोट देती है। यह कील जितनी दोस्ती में गड़ी है, उतनी ही समाज में भी।
सधे हुए संवादों को रखने के मामले में भी यह फिल्म उत्कृष्ट साबित हुई है। वे संवाद क्लासिक हैं ही जिन्हें मंटो के लेखन से लिया गया है। उनकी चमक हमारी आज की रोजमर्रा की जिंदगी में भी फीकी नहीं। ये संवाद जितने ‘बोलते’ हैं उतने ही सोचने के लिए कुरेदने वाले भी हैं। ये संवाद इंसान के पाखंड को बेपर्द करते हैं और पाखंड हर दिशा में फैला है, इसलिए हर तरफ़ सही साबित होते दिखायी देते हैं। जैसे एक संवाद है, जिसमे जन-रुचि के ठेकेदार बनने वाले से मंटो मुखातिब होते हैं - ‘तुम हरगिज यह नहीं तय कर सकते कि इसे पढ़ कर लोग कैसा महसूस करेंगे।’ आज देखिये तो जन-रुचि के ठेकेदारों का यह बड़ा प्रिय तर्क है कि लोग यह सोचेंगे, लोगों की भावना इस तरह आहत होगी, आदि। इसी तर्क से वे कभी किसी रचना या फिल्म पर लोगों से बवाल खड़ा करवाते हैं तो कभी किसी खास तरह की रचना या फिल्म के ‘ढर्रे’ को मजबूती से जनता के ऊपर थोपते जाते हैं। न सोच में नयापन आ पाता है, न ही कला में। जनता यही देखती है या इसी के साथ अच्छा महसूस करती है या यही जनता की माँग है, ऐसा कह कर फिल्मिस्तान ने वाहियात फिल्मों का ढर्रा लंबे समय तक जारी रखते हुए जनता से जो कमाही की और यह ट्रेंड थोड़ी टूट-फूट के बावजूद जारी है, स्वयं में इस बात का गवाह है। प्रयोग और नये-पन को हतोत्साहित करता ‘ट्रेंड’। ‘मंटो’ फिल्म रूढ़ फिल्मिस्तानी ढर्रों पर भी चोट करती है।
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फिल्म के एक सीन में नवाजुद्दीन |
नंदिता दास को इस बेहतरीन फिल्म को निर्देशित करने के लिए बहुत-बहुत बधाई! नवाजुद्दीन में अभिनय की जो ‘रेंज’ है, वह इस फिल्म में भी बखूबी देखी जा सकती है। मंटो के किरदार को बहुत कायदे से उन्होंने उतारा है। पूरा साध लिया है। गजब का ‘परफेक्शन’ लिए हुए। पर्दे पर जो देश-काल दिखाया गया है, वह मंटो के समय को प्रत्यक्ष करने में समर्थ हुआ है। फिल्म में बंबई और लाहौर दोनों को देखना दिलचस्प है। सबका नाम नहीं ले सकता लेकिन लगभग सारे अभिनय करने वालों ने बहुत सफाई से किरदार निभाया है। मुझे कहीं कोई चूक नहीं दिखी। अंततः मैं यह जरूर कहूँगा कि आप भी इसे देख आइए। जरूरी फिल्म है।
नोट : मैं कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूँ। फिल्म देखते हुए मुझे जैसा महसूस हुआ और जैसी मेरी तुरंता प्रतिक्रिया हुई, उसे मैंने शब्दबद्ध कर दिया है। ~ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी / 22-09-2018